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‘एक देश-एक चुनाव’: देश का फ़ायदा या बीजेपी का!

‘एक देश-एक चुनाव’ के प्रस्ताव से सत्ता और शक्ति के विकेंद्रीकरण के बजाय केंद्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ेगी, जो अंततः हमारी विकासशील लोकतांत्रिक व्यवस्था को निरंकुशता और तानाशाही की तरफ़ ले जा सकती है। यही कारण है कि यह प्रस्ताव हमारे जैसे विशाल देश और उसके लोकतंत्र के लिए बेहद ख़तरनाक है। यह राष्ट्रवाद का एक मायावी मुहावरा रचता है पर वास्तविक अर्थों में राष्ट्र के लिए बेहद घातक है।
उर्मिेलेश
किसी के अंग्रेजी में सोचने, बोलने या लिखने से मुझे कभी कोई परेशानी नहीं होती। पर हंसी तब ज़रूर आती है, जब देखता हूँ कि अपने देश में जो लोग हमेशा ‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्थान’ का राजनीतिक-जाप करते रहे हैं, वे सत्ता में आने के बाद अपनी हर प्रमुख सैद्धांतिकी या मंतव्य को अक्सर अंग्रेजी में परोसते नज़र आते हैं। तीन उदाहरण देखिये - एक है - ‘नेशन फ़र्स्ट!’ दूसरा है - ‘न्यू इंडिया!’ और तीसरा है - ‘वन नेशन-वन इलेक्शन!’ 
कम लोगों को अंदाज होगा कि ये तीनों किसी न किसी स्तर पर दुनिय़ा के कुछ ताक़तवर देशों के बेहद दबंग या तानाशाह प्रवृत्ति के नेताओं के नारों की नकल हैं। बहरहाल, इस आलेख में हम ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ के लिए ‘एक देश-एक चुनाव’ के जुमले का इस्तेमाल करेंगे और इस बात का आकलन करेंगे कि भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली मोदी सरकार के इस अहम प्रस्ताव से हमारे लोकतंत्र और अवाम को क्या फायदे और क्या नुक़सान हो सकते हैं!
यह देखकर विस्मय होता है कि जो सत्ताधारी पार्टी हर क़ीमत पर गुजरात में दो राज्यसभा सीटों के चुनाव अलग-अलग कराने पर आमादा है, वह संपूर्ण देश में ‘एक साथ-एक चुनाव’ के लिए प्रस्ताव ला रही है। दूसरी बार सरकार में आने के फ़ौरन बाद इसके लिए बैठक बुला रही है।

गुजरात में क्यों टाले गए चुनाव?

याद कीजिए, ज़्यादा पुरानी बात नहीं है, 2017 में किसी न किसी तरह जीत सुनिश्चित करने के लिए गुजरात विधानसभा के चुनाव कुछ समय के लिए टाल दिये गए, जबकि हिमाचल प्रदेश के साथ ही वहाँ भी चुनाव होने थे। हिमाचल प्रदेश के चुनाव घोषित हो गए। वहाँ 4 नवम्बर को मतदान हुआ। पर गुजरात के चुनाव दो चरणों में 13 और 17 दिसम्बर, 2017 को हुए। पर दोनों प्रदेशों के नतीजे 20 दिसम्बर को एक साथ घोषित हुए। यानी हिमाचल की जनता को अपनी नई सरकार के लिए मतदान करने के बाद भी डेढ़ महीने तक इंतजार करना पड़ा। विश्व के लोकतांत्रिक इतिहास में ऐसे दिलचस्प उदाहरण भला कहाँ मिलेंगे? इससे क्या नतीजा निकाला जाए? 
सवाल यह है कि क्या मौजूदा सत्ताधारी दल को ‘एक देश-एक चुनाव’ के लागू होने से देश का कोई भला हो या नहीं हो, अपने दल का भला ज़रूर नज़र आ रहा है?

इतनी भी क्या जल्दी है!

सत्रहवीं लोकसभा के पहले सत्र के पहले सप्ताह में ही प्रधानमंत्री मोदी ने इस मुद्दे पर एक सर्वदलीय बैठक बुला ली। 19जून की इस बैठक का राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर के प्रमुख दलों ने बहिष्कार किया। कांग्रेस, द्रमुक, तृणमूल कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के प्रतिनिधि बैठक में नहीं आए। तेलुगू देशम पार्टी, आम आदमी पार्टी और अन्नाद्रमुक सहित कुछ क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधि भी बैठक में नहीं आए। पर इन तीनों दलों ने बैठक के विचारणीय विषय पर अपनी राय पत्र के जरिये सरकार को भेजी।
सर्वदलीय सहमति के बग़ैर केंद्र सरकार ने बैठक के दौरान इस विषय पर विशेषज्ञ-राय देने के लिए एक उच्चस्तरीय कमेटी बनाने का ऐलान कर दिया। कमेटी के सदस्यों के बारे में कोई सूचना नहीं दी गई। समझ में नहीं आता, सरकार इतनी जल्दी में क्यों है? इस विषय पर व्यापक बहस से पहले ही वह एक उच्चस्तरीय समिति क्यों बना रही है?

सरकार की तीन बड़ी दलीलें

सरकार की तरफ़ से ‘एक देश-एक चुनाव’ के पक्ष में सबसे बड़ी दलील क्या है? सर्वदलीय बैठक हो या राष्ट्रपति का अभिभाषण हो, हर जगह चुनावों के बेहद ख़र्चीला होते जाने पर चिंता जताई गई है और दलील दी जा रही है कि इससे चुनाव ख़र्च कम होंगे। दूसरी बड़ी दलील है कि इससे गवर्नेंस और विकास के काम बार-बार नहीं रूकेंगे। यह कहा जा रहा है कि अलग-अलग चुनाव होने से आचार संहिता लागू हो जाती है और शासकीय कामकाज ठप हो जाते हैं।
केंद्र सरकार की तीसरी दलील है कि इससे कालेधन पर अंकुश लगेगा। सरकार के मुताबिक़, अलग-अलग चुनाव होने से कालेधन का प्रयोग ज़्यादा होता है। इन तीन दलीलों की रोशनी में मोदी सरकार के ‘एक देश-एक चुनाव’ के एजेंडे की समीक्षा करने से पहले हमें यह ज़रूर याद रखना चाहिए कि संघ-जनसंघ-बीजेपी के पहले के नेता भी देश की राजनीतिक व्यवस्था और चुनाव प्रणाली में अपने मन-मुताबिक़ सुधार की बातें करते रहे हैं।
चुनाव सुधार की ज़रूरत से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसके लिए निर्वाचन आयोग और एडीआर जैसी ग़ैर-सरकारी संस्थाओं ने कई बार ठोस सुझाव भी दिए। पर मोदी सरकार के दिमाग में चुनाव सुधार के नाम पर फिलवक़्त सिर्फ़ एक एजेंडा है - ‘एक देश-एक चुनाव’!
एक जमाने में बीजेपी के कुछ प्रमुख नेताओं ने देश में ‘राष्ट्रपति प्रणाली’ को लेकर भी बात की थी। इसके लिए वे पूरे चुनाव-तंत्र में तब्दीली की पैरवी करते रहे। अभी वे राष्ट्रपति प्रणाली की बात खुलेआम नहीं कर रहे हैं पर उनकी मंशा कुछ ऐसी ही है। क्या यह बात किसी से छिपी है कि लोकसभा चुनाव को प्रधानमंत्री मोदी और उनके चुनाव-अभियान संचालकों ने ‘राष्ट्रपति-प्रणाली’ जैसे चुनाव में तब्दील करने की कोशिश की। 
ऐसा लगा मानो यह संसदीय चुनाव न होकर बीजेपी के शीर्ष नेता नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द किसी राष्ट्राध्यक्ष के चयन की प्रक्रिया चलाई जा रही है! लोगों का आह्वान किया जा रहा था कि वे अपने संसदीय प्रतिनिधियों के बारे में न सोचें, सिर्फ़ प्रधानमंत्री मोदी के बारे में सोचें! वे किसी सांसद को नहीं, सिर्फ़ मोदी को वोट दे रहे हैं! बीजेपी की चुनाव रणनीति का यह पहलू हमारी लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली पर गंभीर सवाल खड़ा करता है।
संविधान के निर्माताओं ने तो संविधान में चुनाव की दलीय-व्यवस्था की भी कल्पना नहीं की थी। उनके दिमाग में जन-प्रतिनिधि का चुनाव था, जिससे जन प्रतिनिधि सभा (संसद) गठित होनी थी। संविधान में राजनीतिक दलों का उल्लेख बाद के दिनों में दल-बदल क़ानून के संदर्भ में एक संशोधन के मार्फत जोड़ा गया। यह भी ग़ौरतलब है कि संविधान सभा में निर्वाचन की प्रक्रिया पर बहुत लंबी बहस हुई। पर पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने का प्रावधान नहीं तय किया गया।
संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 तक, भारत में निर्वाचन की प्रक्रिया और प्रणाली की चर्चा है। इसमें केंद्रीय और प्रांतीय, दोनों चुनावों की चर्चा है। उनके लिए प्रावधान तय किये गए हैं। पर संविधान में कहीं भी यह नहीं कहा गया कि हमारे केंद्रीय और प्रांतीय चुनाव हर हालत में एक ही साथ कराए जायेंगे। 
अगर देश की आज़ादी के बाद शुरू के कुछ बरसों में केंद्र और राज्यों के चुनाव साथ हुए तो इसका कारण था - एक ही दल का राष्ट्रव्यापी दबदबा। कुछेक अपवादों को छोड़कर मध्यावधि चुनाव की नौबत नहीं आई।
केरल पहला राज्य था, जहाँ जुलाई, 1959 में एक निर्वाचित और पूर्ण बहुमत वाली वामपंथी सरकार को बर्खास्त किया गया था। तब वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी के ईएमएस नंबूदरीपाद मुख्यमंत्री थे। उनकी बर्खास्तगी से राज्य में अभूतपूर्व राजनीतिक संकट पैदा हो गया  था। पहली बार कोई राज्य राष्ट्रपति शासन के हवाले हुआ। फरवरी, 1960 में दूसरी विधानसभा निर्वाचित हुई। लेकिन देश में व्यापक स्तर पर मध्यावधि चुनावों (प्रांतों में) की नौबत 1967 में पैदा हुई। स्वाधीनता आंदोलन से उभरी कांग्रेस पार्टी का एकछत्र-राज का सिलसिला टूटता नज़र आया। तब से अब तक गंगा-यमुना-गोदावरी-कावेरी में बहुत सारा पानी बहा है। विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय दलों का बोलबाला बढ़ा है। केंद्र की सरकारों के गठन में भी कई मौक़ों पर उन्होंने अहम भूमिका निभाई है।

संविधान में संशोधन की दरकार होगी!

ऐसे राजनीतिक परिदृश्य में ‘एक देश-एक चुनाव’ का नारा संविधान में संशोधन के बग़ैर क़ानूनी असलियत नहीं बन सकता। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 के बीच कहीं न कहीं बड़े संशोधन करने होंगे। सवाल उठता है - क्या वाक़ई इससे चुनावी ख़र्च कम हो जायेगा? इस प्रस्ताव के पक्ष की तीनों दलीलों को हम बारी-बारी से लेते हैं।

जहाँ तक चुनाव ख़र्च की दलील है - संभव है इसमें कुछ कमी आए। लेकिन इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती। अभी-अभी हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने सबसे अधिक धन ख़र्च किया।
विवादास्पद चुनाव-बांड का क़ानून जब से बना है, इसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा बीजेपी को मिला है। अधिकृत आंकड़ों के हिसाब से उसे चुनाव बांड के जरिये तक़रीबन 95 प्रतिशत धन मिला। ऐसे में चुनाव ख़र्च में कटौती की बीजेपी की दलील में कोई नैतिक बल नहीं नज़र आता! संभव है, इससे निर्वाचन आयोग का अपना ख़र्च कुछ कम हो पर ईवीएम की संख्या में भारी बढ़ोतरी करनी होगी। सुरक्षा बलों की तैनाती में भी ख़र्च बढ़ेगा। ऐसे में ख़र्च कितना घटेगा, इस पर कोई अधिकृत और संगत आंकड़ा देना संभव नहीं है।
मोदी सरकार की दूसरी दलील है कि पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने से शासन और विकास के कामकाज में रुकावट नहीं आएगी। आचार संहिता के चलते कामकाज नहीं रुकेंगे। सरकार की यह दलील तो और भी बेदम है।
हमने हाल ही में देखा कि लोकसभा के चुनावों के दौरान निर्वाचन आयोग की सहमति से प्रधानमंत्री मोदी, उनकी सरकार के मंत्रीगण और उच्चाधिकारी, एक से बढ़कर एक शासकीय सौगात जनता के समक्ष पेश करते रहे। कई बड़े फ़ैसले उसी वक़्त हुए, जब चुनाव के लिए आचार संहिता लागू थी। अंतरिक्ष से लेकर अर्थव्यवस्था तक, सरकार की ओर से कई बड़े ऐलान किए गए। निम्न आय वर्ग के लोगों के बीच दो-दो हजार रुपये की पहली किस्त का आबंटन तक आचार संहिता के लागू होने के कुछ ही पहले किया गया। लगभग 12 करोड़ परिवार इस योजना के लाभार्थी बताए गए।
सूत्रों के मुताबिक़, कुछ प्रदेशों में अनेक परिवारों को पैसे का भुगतान आचार संहिता लागू होने के बाद हुआ। विपक्षी दलों ने इनमें कुछेक सरकारी फैसलों पर आचार संहिता के उल्लंघन के सवाल भी उठाए। प्रधानमंत्री ने कुछ योजनाओं का उद्घाटन या लोकार्पण तक किया। पर सरकार ने निर्वाचन आयोग से हमेशा हरी झंडी पाई।
ऐसी स्थिति में क्यों न राजनीतिक दल और निर्वाचन आयोग आचार संहिता में संशोधन पर सहमत हो जाएँ कि कुछेक अपवादों को छोड़कर रोजमर्रा के शासकीय कामकाज चुनाव आचार-संहिता के नाम पर नहीं रोके जायेंगे! इसके लिए पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने जैसे संविधान संशोधन की भला क्या ज़रूरत है?  
मोदी सरकार की तीसरी दलील में दावा किया गया है कि पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने से कालेधन पर अंकुश लगेगा। यह इतनी फालतू दलील है कि इस पर ज़्यादा विचार की ज़रूरत ही नहीं है।

कालेधन पर अंकुश के नाम पर ही नोटबंदी की गई। करोड़ों लोगों को परेशानी में डाला गया। सौ से अधिक लोगों की मौत हो गई। पर कालाधन काबू में नहीं आया। बंद कराए गए लगभग सारे नोट वापस रिजर्व बैंक पहुँच गए। फिर एक साथ चुनाव कराने से कालेधन पर अंकुश की दलील किसके गले उतरेगी!

लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ने का डर 

पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने की व्यवस्था से कई तरह के संवैधानिक और प्रशासनिक संकट पैदा होंगे। सबसे बड़ी मुश्किल होगी कि किसी राज्य या केंद्र में सरकार के असमय गिरने और नए चुनाव की स्थिति आने तक वह राज्य या देश राष्ट्रपति शासन के अधीन रहने को अभिशप्त होगा। 

निर्वाचित सरकारी व्यवस्था या संसदीय प्रणाली तब तक मुल्तवी रहेगी। इसका मतलब कि हमारी व्यवस्था पर काबिज ‘कुछ लोग’ हर स्थिति में महत्वपूर्ण बने रहेंगे। शासन-प्रशासन में जनता की बची-खुची भूमिका और हिस्सेदारी घटेगी। दूसरा सबसे बड़ा आघात पहुँचेगा हमारे संघीय ढांचे को। राज्यों की हैसियत कम होगी और केंद्र का एकाधिकार बढ़ेगा। इससे देश की राजनीति में विविधता ख़त्म होगी। प्रांतीय राजनीति में भी क्षेत्रीय महत्व के सवालों की तरजीह कम हो जायेगी। 

इससे क्षेत्रीय दल कमजोर होंगे और कथित राष्ट्रीय दल अपनी कॉरपोरेट समर्थित ताक़त के साथ उन पर और हावी होंगे। इसका सीधा असर किसानों, मजदूरों, आम लोगों और यहाँ तक कि स्थानीय स्तर के नये उभरते उद्योगपतियों पर भी पड़ेगा। यानी कॉरपोरेट के अंदर भी विविधता के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचेगी। सियासत और सत्ता में समाज के व्यापक हिस्सों का प्रभाव और कम हो जायेगा। इससे सत्ता और शक्ति के विकेंद्रीकरण के बजाय केंद्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ेगी, जो अंततः हमारी विकासशील लोकतांत्रिक व्यवस्था को निरंकुशता और तानाशाही की तरफ़ ले जा सकती है। यही कारण है कि ‘एक देश-एक चुनाव’ का प्रस्ताव हमारे जैसे विशाल देश और उसके लोकतंत्र के लिए बेहद ख़तरनाक है। यह राष्ट्रवाद का एक मायावी मुहावरा रचता है पर वास्तविक अर्थों में राष्ट्र के लिए बेहद घातक है।

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