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कभी न कभी अच्छे दिन ज़रूर आएँगे

वह हार्ड वर्किंग होने के साथ इंप्लायड भी थे। फिर भी गर्दभ समाज में उनका कोई अतिरिक्त सम्मान नहीं था। दरअसल, उन दिनों देश का हर गधा रोजगारशुदा हुआ करता था। जैसे सब बोझा ढोते थे, वैसे ही वह भी ढोते थे तो फिर काहे की इज्‍ज़त।वह दिन में मालिक के कई बार डंडे खाते और बदले में परिश्रम की पराकाष्ठा करने के संकल्प के साथ दोगुना बोझ उठाते थे। फिर भी मालिक उनसे ख़ुश नहीं था। फ़ूड सिक्योरिटी बिल या अंत्योदय जैसी कोई चीज़ गधों के लिए आई नहीं थी। ड्यूटी बजाने के बाद भोजन का इंतज़ाम भी उन्हें ख़ुद करना पड़ता था। लंच ब्रेक में उन्हें थोड़ी देर के लिए किसी ऐसे मैदान में चरने के लिए छोड़ दिया जाता था, जहाँ घास नहीं के बराबर होती थी। 
लंच ब्रेक में उनकी पिछली दोनों टांगें बांध दी जाती थीं ताकि वह फ्रस्टेशन में आते-जाते किसी राहगीर पर दुलत्ती ना झाड़ दें। दोनों टांगें बंधने के बाद वह वैसा ही महसूस करते थे, जैसा आजकल के कर्मचारी दफ़्तर में फ़ेसबुक बैन होने पर महसूस करते हैं।रात को थके-हारे वह मालिक के द्वार पर उदास भाव से बैठे रहते थे। लेकिन इस उदासी को कोई नोटिस तक नहीं करता था। स्थितप्रज्ञता का वही भाव उनके चेहरे पर होता था, जो हर गधे के चेहरे पर होता है। फिर भला कौन नोटिस ले।
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दुख से भरे वह बहुत कातर भाव से प्रभु को पुकारते थे, हे भगवान अच्छे दिन कब आएँगे? भगवान भक्त वत्सल होते हैं लेकिन इतने बड़े गधे नहीं कि एक गधे की सुन लें। लेकिन एक दिन चमत्कार हो गया। प्रभु ने सचमुच पुकार सुन ली। अंदर मालिक अपनी बेटी को डांट रहा था - ताड़ जैसी लंबी हो गई है लेकिन अकल का ठिकाना नहीं। पढ़ेगी-लिखेगी नहीं तो एक दिन किसी गधे के साथ ब्याह दूंगा।

लो, घर में दामाद और शहर में ढिंढोरा! उनके मन में सैकड़ों शहनाइयां एक साथ बज उठीं। सूखे मैदान में उन्हें हरियाली ही हरियाली नज़र आने लगी। लंच ब्रेक में दोस्तों ने पूछा कि इतना क्यों ब्लश कर रहे हैं बड़े मियां? उन्होंने जवाब दिया - देखते जाओ गुरू। मेरे दिन कैसे बदलते हैं।

पहेली वाले ऐसे संवाद का चलन गर्दभ समाज में नहीं था। दोस्तों ने उन्हें घेर लिया। सबके चेहरों पर गर्दभोचित आश्चर्य था। वे इस ब्रेकिंग न्यूज़ टीज़र की असली कहानी जानता चाहते थे। लेकिन वह किसी बड़े एंकर की तरह अब भी हवा बांध रहे थे। आख़िर में उन्होंने राज़ खोला गर्दभ समाज के लिए आज गौरव का दिन है। ऐसा इतिहास में पहली बार होने वाला है। सब फ़िक्स हो चुका है।

दोस्तों ने पूछा - क्या फ़िक्स हो चुका है? बस देखते जाओ गुरू, दो-चार दिन में मैं उसी आदमी का दामाद बनने वाला हूँ, जिसके डंडे रोज सुबह-शाम खाता हूं। यह सुनकर उनके दोस्त गश खाकर गिरने वाले थे। तभी मालिक आ गया। दोस्तों ने देखा मालिक उन्हें दामाद की तरह नहीं अब भी गधे की तरह ही हांककर ले जा रहा है। फिर भी सबने सोचा कि अगर वह कह रहे हैं तो उनके अच्छे दिन अवश्य आएंगे।

अगले दिन दोस्तों ने देखा कि मालिक रोज की तरह उनकी पीठ पर डंडे लगा रहा है। लंच ब्रेक में मुलाक़ात हुई तो किसी ने कहा - फेंकना बंद करो भाईजान। होनेवाले दामाद को कोई इस तरह पीटता है भला?

वह बोले, ‘जलना बंद करो। आज बात और आगे बढ़ गई है। मालिक ने गधे से ब्याह की बात दोहराई तो लड़की कुछ नहीं बोली। चुपचाप दूसरे कमरे में चली गई। अगर मैं उसे नापसंद होता तो साफ़-साफ़ मना कर देती।’ 

दलील दमदार थी इसलिए तमाम दोस्तों ने एक साथ सहमति में मुंडी हिलाई। एकाध ने किनारे रास्ता रोककर उनसे कहा, भाई कोई भतीजी-वतीजी भी तो होगी उनकी। मेरी भी बात चलाना। इस पर वह एक जिम्मेदार नेता की तरह बोले - जब मेरे अच्छे दिन आएंगे तो मेरे समाज के बाक़ी लोगों के भी आएंगे। चिंता मत करो गुरू सबका उद्धार कर दूंगा।

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...अगले दिन वह फिर उसी तरह पिटते और बोझा ढोते नज़र आये। दोस्तों ने हंसना शुरू कर दिया लेकिन वह बिना विचलित हुए संत भाव से बोले -  सब कुछ शनै-शनै होता है। ससुरजी को मैंने सासू मां से कहते सुना कि तुम्हारी बेटी का ब्याह किसी गधे से ही होगा। मतलब अब तो यह समझ लो कि बात तारीख़ तक पहुँच गई है। 

अगले दिन वह फिर पिटे, दोस्त फिर हंसे लेकिन उनके चेहरे पर तनिक भी निराशा नहीं थी। वक्त बीतने लगा अचानक एक दिन उनके दोस्तों ने देखा दो लोग उन्हें ठेलागाड़ी पर लिये जा रहे हैं। हार्डवर्क ने उनका दम निकाल दिया था। इस अकाल मृत्यु पर संपूर्ण गर्दभ समाज को बहुत ग्लानि हुई। सभी गधों ने गहन चिंतन किया और निष्कर्ष निकाला कि आशा कभी नहीं छोड़नी चाहिए। वह ना सही लेकिन कोई ना कोई गधा ज़रूर दामाद बनेगा। आज नहीं तो कल अच्छे दिन ज़रूर आएँगे।

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राकेश कायस्थ

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