चुनावों के पहले राजनीतिक नारे उछालना आम बात है, पर बीते कुछ सालों से जिस तरह ध्रुवीकरण को ध्यान में रख कर विभाजनकारी नारे उछाले गए हैं, क्या उससे लोकतंत्र मजबूत होगा?
मुख्यधारा की तमाम राष्ट्रीय पार्टियाँ जीत के लिए दल-बदलुओं के सहारे हैं। इन पार्टियों के दिग्गज नेता विचारधारा के आधार पर पार्टी को मजबूत करने के बजाय किसी तरह जीत हासिल करने में लगे हैं।
आज़ादी के बाद देश को सत्तर साल हो गये हैं, लेकिन इसके नेता एक किशोर की भाषा बोलते हैं। राष्ट्र व्यस्क हो गया है, लेकिन इसके नेता एक बुरे नौसिखिये की तरह आपस में लड़ते हैं।
बीजेपी के 'लौहपुरुष' लालकृष्ण आडवाणी का टिकट कट गया और वह पार्टी में दरकिनार कर दिये गये। क्या आडवाणी को ही अपनी ऐसी हालत के लिए ज़िम्मेदार माना जाना चाहिए। सुनिये, 'सच्ची बात' में प्रभु चावला को, वह क्या मानते हैं।
भारत लगातार यह दबाव बनाता रहा है कि जैश के मुखिया मसूद अज़हर को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित कर दिया जाए लेकिन चीन चार बार भारत के प्रस्ताव का विरोध कर चुका है।
चुनाव की तारीख़ों का एलान हो गया है, जल्द ही तमाम राजनीतिक दल अपने-अपने घोषणा पत्र जारी करेंगे, लेकिन क्या वे देश की बुनियादी मुद्दों को उसमें शामिल करेंगे और जीतने पर उन्हें पूरा भी करेंगे?