बसवराज बोम्मई
भाजपा - शिगगांव
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किसी हत्या की भर्त्सना करने में अगर ज़बान अटकने लगे, तब हमें अपने बारे में सोचना चाहिए। बेहतर यह हो कि भर्त्सना का मौक़ा ही न आए लेकिन ऐसा होता नहीं है। जो आस्तिक हैं, वे आस्तिक होने के बावजूद ‘उसका’ काम अपने हाथ में ले लेते हैं। ऐसा नहीं है कि नास्तिक हत्या नहीं करते लेकिन आस्तिकों को तो कम से कम ‘उसके’ काम में दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए अगर उसके इकबाल पर उन्हें सचमुच यकीन है।
हत्या अलग-अलग कारणों से की जाती है लेकिन एक हत्या वह है जो इनमें सबसे जघन्य है और वह ईश्वर या अल्लाह या रब की शान की हिफाजत के नाम पर की जाती है। क्योंकि इस प्रकार की हत्या मनुष्य के अहंकार की अभिव्यक्ति है और ‘उससे’ भी ऊपर होने का एलान।
भारत में लेकिन जिस बात पर हमें फिक्र होनी चाहिए कि ऐसी हत्या से हमें जितनी परेशानी नहीं उतनी इससे होती है कि हमारे मुताबिक़, जिन शब्दों में हम चाहते हैं ठीक-ठीक उन शब्दों में, उस लहजे में हत्या की निंदा या भर्त्सना क्यों नहीं हो रही।
सबसे ताज़ा घटना दिल्ली और हरियाणा की सीमा, सिंघु पर महीनों से चल रहे किसानों के धरना स्थल पर एक दलित लखबीर सिंह की हत्या की है। इसके ब्योरे दिल दहलाने वाले हैं।
हत्या की ख़बर आते ही ध्यान किसान आंदोलन के नेतृत्व की प्रतिक्रिया की तरफ गया। पहले सूचनाओं से संकेत मिले और बाद में पुष्टि हुई कि हत्या कुछ निहंग सिखों ने की है। यह कोई अचानक क्रोध के जोम या उबाल में आकर की गई हत्या नहीं थी। धीरे-धीरे, काट-काटकर उसे मारा गया। यह सब कुछ अकेले में नहीं हुआ।
‘न्यूज़लांड्री’ की रिपोर्ट में चश्मदीद गवाह बता रहे हैं कि उन्होंने उसकी हत्या होते देखी। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ इस हिंसा में देखने वालों ने कोई ऐसा हस्तक्षेप नहीं किया कि हत्या न हो।
विवरण से साफ़ है कि यह हत्या रोकी जा सकती थी। एक चश्मदीद ने उसे पिटते हुए देखा और फिर वह सोने चला गया। दुबारा जब वह जगा तो लखबीर का हाथ काटा जा चुका था और उसे मरने के लिए छोड़ दिया गया था। उसकी तरह दूसरों ने भी यह देखा होगा। किसी ने न रोकने की कोशिश की, न शोर मचाया।
ऐसी नैतिक और कानूनी निष्क्रियता उनकी है जो संविधानसम्मत अधिकार के लिए संघर्ष करते हुए 10 महीनों से धरने पर बैठे हैं। यह ठीक है कि उनका कोई हाथ हिंसा में नहीं है लेकिन इस हिंसा को होते देखना और हत्या होने देना, इसकी कोई माफी नहीं है। वे यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकते कि निहंगों से मुंह लगना खतरनाक है, वे किसी की नहीं सुनते।
वे 100 नंबर पर फ़ोन कर सकते थे, धरना स्थल के नेताओं तक खबर पहुँचा सकते थे। ऐसा करना भी उन्हें ज़रूरी नहीं लगा। एक ने कहा कि निहंग प्रायः ही लोगों को पीटते रहते हैं इसलिए इस बार लगा कि बात पिटाई तक ही सीमित होगी।
यह भी फिक्र का विषय है कि किसी की पिटाई को मामूली बात माना जाता है, अपराध नहीं। अगर ऐसी घटनाएँ लगातार हो रही थीं तो निहंगों के धरना स्थल पर बने रहने की जिम्मेदारी से किसान आंदोलन का नेतृत्व मुक्त नहीं हो सकता।
यह कहकर कि आंदोलन में तो तरह-तरह के लोग शामिल हो रहे हैं और सब पर उसका बस नहीं, वह बात खत्म नहीं कर सकता।
किसान आंदोलन के नेतृत्व के बयान में हत्या की निंदा की गई है लेकिन इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि हत्या इतने इत्मिनान से क्यों होने दी गई। इसका अर्थ यही है कि धरना स्थल पर नेतृत्व का पूरा नियंत्रण नहीं है।
निहंगों के एक समूह ने कहा है कि उसे लखबीर सिंह की हत्या का कोई अफ़सोस नहीं है। उसे इससे नाराज़गी है कि उसने पाक ग्रंथ की बेअदबी की थी। यह धमकी भी इस समूह के नेताओं ने दी है कि किसान नेतृत्व इस मामले में न पड़े।
निहंगों के एक समूह का तर्क है कि पंजाब में लगातार पवित्र ग्रंथ की बेअदबी की जा रही है और किसी को कोई सज़ा अब तक नहीं मिली। इसलिए लखबीर के हश्र से सबको मालूम हो जाना चाहिए कि ऐसा करने वालों के साथ क्या किया जाएगा।
इस पर बहस शुरू हो गई है कि लखबीर सिंह ने पवित्र ग्रंथ का अपमान किया था नहीं। इस बात के भी कयास लगाए जा रहे हैं कि जब लखबीर के गाँव से सिंघु या टिकरी कोई नहीं आया तो वही कैसे पहुँच गया। ऐसी गवाहियाँ दी जा रही हैं कि उसने कबूल किया कि उसे किसी ने यहाँ आने के लिए पैसा दिया। यह सारा विवरण व्यर्थ है और हत्या का औचित्य तलाश करने की चतुर कोशिश है।
राजनीतिक दलों ने हत्या की निंदा करते वक्त ध्यान रखा है कि हत्यारों की निंदा न करें। चुनाव निकट है और ऐसा करके वे सिख भावना को आहत नहीं करना चाहते। सवाल किया जा रहा है कि आखिर एक दलित मारा गया, उसकी हत्या क्या निंदा योग्य भी नहीं! फौरन ही यह 'तथ्य' सामने लाया गया कि अभियुक्तों में एक कम से कम दलित है।
बीजेपी के नेताओं ने हत्या के लिए किसान नेताओं को जिम्मेवार ठहराया है लेकिन निहंग अभियुक्तों की भर्त्सना करने से वे बच रहे हैं।
हत्या जिसने की और जो उसका जिम्मा ले रहा है उसकी निंदा न कर पाने और उस पर कार्रवाई की मांग न कर पाने की विवशता बीजेपी को क्यों है और क्यों वह किसान नेतृत्व को जिम्मेदार ठहरा कर कर्तव्य मुक्त हो गई?
बीजेपी के प्रवक्ता ने तालिबानी मनोवृत्ति को इस हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया। तालिबानी मनोवृत्ति कहना आसान है लेकिन हत्या की खुलेआम जिम्मेदारी ले रहे निहंग का नाम लेने में बीजेपी की ज़बान बंद है।
हम यह कह सकते हैं कि बीजेपी को हत्या की निंदा का अधिकार नहीं क्योंकि वह हत्यारों का सम्मान करती रही है और हत्याकांडों के आयोजकों को उसके यहाँ सर्वोच्च पदों से नवाज़ा जाता है। लेकिन न तो अकाली दल, न कांग्रेस, न आम आदमी पार्टी ने अब तक हत्या की जिम्मेदारी लेने वालों की निंदा की है।
क्या यह इसलिए कि सबके सब यह मान बैठे हैं कि इस हत्या के अभियुक्तों को पंजाब के आम सिखों का समर्थन प्राप्त है?
इस बीच यह खबर मिली कि लखबीर का शव गाँव ले जाया गया लेकिन गाँव वाले उसका अंतिम संस्कार नहीं होने दे रहे। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग ने राज्य सरकार को इस संबंध में नोटिस भेजा है।
कड़ी सुरक्षा के बीच जब अंतिम संस्कार हुआ तो लखबीर के परिवार के 12 सदस्यों के अलावा गाँव का कोई व्यक्ति, कोई सिख इसमें शामिल नहीं हुआ। परिवार से कहा गया कि वे अंतिम संस्कार तो कर सकते हैं लेकिन कोई धार्मिक संस्कार नहीं करने दिया जाएगा। सो, अंतिम अरदास के लिए कोई मौजूद न था।
मृत्यु के बाद भी लखबीर को उसके गाँव वालों की सहानुभूति क्यों नहीं मिली? क्या यह भी तालिबानी मनोवृत्ति है? या इस दिमागी बनावट का कोई भारतीय नाम होगा या पंजाबी नाम भी होगा?
क्या कोई राजनीतिक, सामाजिक दल यह मानवीय साहस कर पाएगा कि गाँव वालों की इस असंवेदनशीलता के लिए उनकी आलोचना करे?
किसान आंदोलन का नेतृत्व अपने प्रतिनिधि को अंतिम अरदास के लिए भेज सकता था। आंदोलन में अनेक प्रकार के नेता और तरह-तरह के राजनीतिक विचार के लोग हैं। क्यों किसी के दिमाग में लखबीर के साथ जो हुआ उसे अन्याय बता सकने का प्रभावी सन्देश देने के लिए उसके गाँव जाने का ख्याल नहीं आया?
क्यों किसी राजनीतिक दल के लोग अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हुए? लखबीर सिंह के परिवार को क्यों इस घड़ी में अकेला छोड़ दिया गया? क्या उनका वोट किसी को नहीं चाहिए?
हम अगर एक हत्या से दूसरी हत्या तक बढ़ते जाएँगे और हत्या के पहले और बाद के क्षणों के बारे में नहीं सोचेंगे तो समाज में हत्या का विचार जड़ जमा लेगा। या शायद देर हो चुकी है और हम नैतिक रूप से इतने दुर्बल हो चुके हैं कि इसका विरोध करने की हालत में नहीं रह गए हैं?
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