loader

सामाजिक-आर्थिक तौर पर बेहाल मुल्क़ को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाने की साज़िश!

देश में बेरोज़गारी, असमानता और ग़रीबी तेजी से बढ़ रही है। लेकिन ‘हिन्दू-राष्ट्रवादी विमर्श’ में इन बड़ी चुनौतियों के लिये कुछ नहीं है। सत्ताधीशों के सांप्रदायिक-ध्रुवीकरण की रणनीति और राजनीति से इन चुनौतियों को कुछ समय तक स्थगन की स्थिति में रखा जा सकता है पर लंबे समय तक नहीं! सवाल यह है कि 'हिंदुत्व की राजनीति' के पैरौकार संगठन आर्थिक बदहाली के माहौल में जिस तरह के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में जुटे हैं, कहीं यह देश के कुछ सर्वाधिक बदहाल हिस्सों को गृहयुद्ध की तरफ धकेले जाने की साज़िश तो नहीं है?
उर्मिेलेश

हमारे मौजूदा सत्ताधीश और उनके दर्जनों राजनीतिक-सामाजिक संगठन देश के सेक्युलर-लोकतंत्र की जगह 'हिन्दू-राष्ट्रवादी निरंकुश तंत्र' स्थापित करने की जैसी तेजी दिखा रहे हैं और जिस तरह के क़दम उठा रहे हैं, वैसा बीते सात दशकों में पहले कभी नहीं हुआ! इन्हें लग रहा है, 'अभी नहीं तो कभी नहीं'! ऐसा लगता है कि ये 2024 तक भारत की संवैधानिक संरचना और शासकीय प्रणाली में अपने इच्छित बदलाव की प्रक्रिया पूरी कर लेना चाहते हैं! 

2024-25 का पूरा एक वर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना का शताब्दी वर्ष भी है! संभवतः उन्हें यह सब कर लेना कठिन ज़रूर लेकिन असंभव नहीं लग रहा है! हाल के कुछ वर्षों में संवैधानिक संस्थाओं और लोकतंत्र के अन्य महत्वपूर्ण निकायों ने जिस तरह शासक-समूह के निरंकुश और असंवैधानिक निर्देशों के समक्ष घुटने टेके हैं, उससे सत्ताधीशों के निरंकुश आचरण और मिजाज को बल मिला है!  

ताज़ा ख़बरें
सत्ताधारियों के इस प्रकल्प की संभावना और भावी प्रकिया को लेकर मेरे मन में यहां दो सवाल उठते हैं। पहला यह कि समूचे दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत में मौजूदा शासकों की 'हिन्दू राष्ट्रवादी' राजनीति को आज भी बहुत कम समर्थन प्राप्त है! दक्षिण में सिर्फ कर्नाटक में उनकी सरकार है और वह भी कैसे बनी है, यह पूरे देश ने कुछ समय पहले देखा है! पूर्वोत्तर में आज चुनाव हो जायें तो असम सहित शायद ही किसी प्रदेश में उन्हें दोबारा बहुमत मिले! ऐसे में ये 'हिन्दू राष्ट्र' के अपने इच्छित प्रकल्प को कैसे अमलीजामा पहनायेंगे? निश्चय ही ऐसे प्रकल्पों के लिए जनादेश का इन्तज़ार नहीं किया जाता! 

चूंकि हमारे समूचे संवैधानिक तंत्र की दयनीय कमजोरी को इन्होंने बहुत नजदीक से देख लिया है, इसलिए इस प्रकल्प के रास्ते में जनादेश जैसी बाधा की संभावना फिलहाल वे नहीं देखते! लेकिन दूसरा सवाल ऐसे किसी प्रकल्प की निरंतरता और टिकाऊपन को लेकर है! इतनी विशाल आबादी के इस मुल्क़ के सामने आज भयावह सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां हैं! 

चुनौतियों के हल की कोई योजना नहीं

दर्जन भर ऐसी चुनौतियों में भयावह गति से बढ़ती बेरोज़गारी, असमानता और ग़रीबी प्रमुख हैं! सत्ताधीशों के सांप्रदायिक-ध्रुवीकरण की रणनीति से इन चुनौतियों को कुछ समय तक स्थगन की स्थिति में रखा जा सकता है पर लंबे समय तक नहीं! ‘हिन्दू-राष्ट्रवादी विमर्श’ में इस बड़ी चुनौती को संबोधित करने के लिए कुछ भी नहीं है! उसके सारे नारे और वायदे इस मोर्चे पर खोखले नजर आते हैं! वार्षिक बजट को ही देखिए, इसमें सिर्फ़ एक पक्ष को लेकर कोई नई पहलकदमी नजर आती है! और वह है, कॉरपोरेट की 'उदास उम्मीदों' को जिंदा करने की कोशिश! लेकिन अर्थव्यवस्था की ऐसी बेहाली में कॉरपोरेट को मिली कुछ नई सहूलियतों से कोई चमत्कार हो जायेगा, इसकी उम्मीद करना बेमानी है और दूर-दूर तक इसकी संभावना भी नज़र नहीं आती! 

बजट में रोज़गार पर भाषण दिया गया लेकिन रोज़गार-सृजन का रास्ता नहीं बताया! फिर देश के युवाओं को कुलदीप गुर्जर के बहाने कितने समय तक उलझाये रखा जा सकेगा?

लगातार घट रहीं नौकरियां

नोटबंदी के बाद से ही मंदी की मार के चलते निजी क्षेत्र में रोज़गार देने की जगह रोज़गार लेने का सिलसिला आज भी जारी है! सार्वजनिक क्षेत्र की कमासुत कंपनियों में भी विनिवेशीकरण का कुचक्र चलाया जा रहा है! रोज़गार देने के बजाय वहां भी लोगों को बाहर करने का सिलसिला चल रहा है! इस वक्त भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) जैसे बड़े सरकारी उपक्रम सहित सार्वजनिक क्षेत्र की दर्जन भर कंपनियों में कर्मचारियों को 'हायर' करने के बजाय 'फायर' करने का अभियान चल रहा है! 

फिर क्या रास्ता है इनके पास? क्या हमारे मौजूदा सत्ताधीशों की ज़हरीली वैचारिकी और दृष्टिविहीन आर्थिक-नीतियों के चलते मुल्क़ को भयानक बेहाली और तनावपूर्ण स्थितियों की तरफ नहीं मोड़ा जा रहा है? बजटीय दिशाहीनता और राजनीतिक दृष्टिहीनता के मेल से कहीं हमारे राष्ट्र-राज्य के लिए कोई आत्मघाती-रसायन तो नहीं तैयार हो रहा है, जिसे सीएए-एनपीआर-एनआरसी सहित तरह-तरह के विभेदकारी शासकीय फ़ैसलों के बवंडर में ढकने का जुगाड़ हो रहा है? ये सवाल मौजूदा हालात में खड़े हो रहे हैं। 

'हिंदुत्व की राजनीति' के पैरौकार संगठन और उनके बेदिमाग समर्थक आज की आर्थिक बदहाली में जिस तरह के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और आपराधिक आचरण में जुटे हैं, कहीं उससे देश के कुछ सर्वाधिक बदहाल हिस्सों को गृहयुद्ध की तरफ धकेले जाने की साज़िश तो नहीं रची जा रही है?

हाल के घटनाक्रमों से गृहयुद्ध की तरफ धकेले जाने की साज़िश जैसी आशंकाएं तेजी से बढ़ रही हैं। इस वर्ष महात्मा गांधी के शहादत दिवस को राम के नाम पर राजनीति करने वालों ने अशांत और हिंसक बना दिया! मुझे याद नहीं, शहादत दिवस के मौके पर हाल के वर्षों में देश की राजधानी में कभी ऐसा जघन्य माहौल पैदा किया गया हो! 1948 में वह नाथूराम गोडसे था! उसके भाई का नाम गोपाल गोडसे था! उसका भाई भी बापू की नृशंस हत्या के षड्यंत्र में शामिल था! उसे फांसी नहीं हुई, लंबे समय के कारावास की सजा हुई थी! 

कैसे ख़त्म होगा जहरीला माहौल?

इस वर्ष, बापू के शहादत दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में शामिल छात्रों के हुजूम पर एक नाबालिग शख़्स ने गोलियां चलाईं। इसके कुछ ही घंटे बाद एक दूसरा गोलीबाज़ कुलदीप गुर्जर शाहीन बाग़ में नज़र आया। उसे भी पुलिस ने हिरासत में लिया! लेकिन सवाल तो उस जहरीले माहौल को 'हिरासत' में लेने का है, जिसे स्वयं सत्ताधारी खेमे ने भारत को ‘हिन्दू-राष्ट्र’ बनाने के अपने प्रोजेक्ट के तहत पैदा किया है!

नाथूराम गोडसे की ही तरह नाबालिग शख़्स ने भी 30 जनवरी की तारीख़ चुनी। लेकिन दोनों में इससे ज्यादा महत्वपूर्ण एक और समानता है। गोडसे और नाबालिग, ख़ास सोच और कुछ ख़ास तरह के संगठनों द्वारा रचित विद्वेष और विभेद की राजनीति की पैदाइश हैं!

2020 में बीजेपी राज में यह नाबालिग शख़्स अपने आपको रामभक्त, भाजपाई, बजरंग दली और संघी कहता है। उसकी फ़ेसबुक पोस्ट बताती हैं कि वह हिन्दुत्ववादी संगठनों के कई खुराफाती और हिंसक गिरोहबाज़ों के सानिध्य में भी रहा है। इनमें दीपक शर्मा, उपदेश राणा जैसे कुख्यात हिन्दुत्ववादी लोग शामिल हैं। 

राजनीति में इस नाबालिग शख़्स की सबसे अधिक पसंदीदा शख्सियत अमित शाह और मनोज तिवारी हैं। उसका एक ‘प्रेरणास्रोत’ बताया जा रहा दीपक शर्मा पश्चिम यूपी में सांप्रदायिक अपराधों के लिए जेल जा चुका है और उस पर कई मामले लंबित रहे हैं! उपदेश राणा राजस्थान में एक मुसलिम मजदूर के हत्यारे शंभू लाल रैगर जैसों के पक्ष में जुलूस निकालता रहा है। 

गोली चलाने वाला नाबालिग शाहीन बाग़ को जलियांवाला बाग़ बनाने की बात करता है। वह कहता है कि आज उसने जो गोली चलाई है, वह कासगंज में मारे गए चंदन गुप्ता को 'गिफ्ट' है। कासगंज के चंदन गुप्ता की मौत सांप्रदायिक उन्माद के माहौल में रहस्यमय ढंग से गोलियों का शिकार होकर हुई थी! कुलदीप गुर्जर शाहीन बाग़ में कोई वारदात करने गया था! वह भी सत्ताधारी दल, खासकर संघ परिवार के संगठनों और उनकी आईटी सेल द्वारा प्रचारित इस जहरीले विचार का वाहक है कि शाहीन बाग़ का सीएए-एनआरसी विरोधी धरना हिन्दुओं या देश के विरोध में है!  

यह समझना ज्यादा कठिन नहीं है कि गोली चलाने वाला नाबालिग या कुलदीप जैसे लोग किस ज़मीन से पैदा होते हैं। यह वही ज़मीन है, जिसमें 'गुनहगारों को कपड़ों से पहचाने' का जहरीला पानी डाला जाता है, जिसमें तमाम तरह के निरंकुश क़ानूनों की 'क्रोनोलाजी' समझाई जाती है, जिसमें 'देश के गद्दारों को, गोली मारो...को' जैसे नारों की खाद डाली जाती है, जिसमें किसी अन्य धर्मावलंबी के उपासना-स्थल को ढहाने को परम धर्म बताकर हवा दी जाती है। 

यह वही ज़मीन है जिसमें गुजरात, मेरठ, मलियाना, हाशिमपुरा जैसे कत्लेआम होते हैं। 1948 में भी नफ़रत की सियासत बहुत मुखर थी पर समाज में आकार और प्रभाव के संदर्भ में देखें तो वह लगभग हाशिए पर थी! आज उसका आकार और असर बहुत व्यापक हो चुका है! वह 'मुख्य-धारा' बन गई है! देश और संवैधानिक लोकतंत्र के लिए इससे ज्यादा ख़तरनाक और क्या हो सकता है!

कुछ ही दिन पहले दिल्ली की एक सार्वजनिक सभा में खुलेआम 'गोली मारने' के नारे लगवाए गए! पश्चिम यूपी में बीजेपी के एक बड़े नेता ने खुलेआम कहा था, 'पश्चिम यूपी के युवाओं को जेएनयू और जामिया में एडमिशन के लिए 10 फीसदी आरक्षण दे दो तो वहां सारे नारे लगने बंद हो जायेंगे!’ बताते हैं कि नाबालिग शख़्स ने गोली चलाने से पहले कहा था, 'आज़ादी के नारे लगाओगे, फिर ये लो' और गोली चला दी!

सियासत से और ख़बरें

जहरीले माहौल के कारण हुई गांधी की हत्या 

दोस्तों, गांधी जी की हत्या के कुछ समय बाद सरदार पटेल ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के एक पत्र के जवाब में बापू की हत्या के कारणों पर जो बयान दिया था, वह गौरतलब है, उन्होंने कहा था, ‘जहां तक हिन्दू महासभा और आरएसएस का सवाल है, गांधी जी की हत्या का मामला अदालत में है, दोनों संस्थाओं की हिस्सेदारी के बारे में कुछ नहीं कहना चाहता। पर हमारी सूचना के मुताबिक़ इन संस्थाओं ने विशेषतः आरएसएस ने देश में जिस तरह का वातावरण बनाया जिससे ऐसी भयंकर दुखदायी घटना संभव हुई।’ (सरदार पटेल कारेस्पांडेस- संपादक दुर्गादास, पेज 323)!

पुलिस की कार्रवाई पर सवाल 

अब आप 'क्रोनोलाजी' समझिए! शांतिपूर्ण शहीद दिवस मार्च में शामिल होने जा रहे छात्रों के हुजूम में शामिल एक युवक को निशाना बनाकर कथित 'रामभक्त' गोली चलाता है। पीछे पुलिस का बड़ा हुजूम है। सिरफिरा उग्रपंथी कुछ समय पिस्तौल लहराते हुए कुछ बड़बड़ाता रहता है और फिर गोली चला देता है। पुलिस हाथ पर हाथ धरे उसे पिस्तौल चलाते देखती रहती है। जब वह एक छात्र को घायल कर देता है, तब जाकर पुलिस उसे पकड़ती है। क्या पुलिस को इस अपराध को होने देने से पहले रोकने या उस अपराधी को न पकड़ने का हुक्म था? दूसरी तरफ, इस आपराधिक घटना और उस दौरान पुलिस की खामोशी के विरूद्ध जब जामिया के छात्र प्रदर्शन करते हैं तो पुलिस तुंरत आक्रामक होकर छात्रों पर टूट पड़ती है। कई छात्रों को पीटती है, घसीटती है और कुछ को हिरासत में भी लेती है। क्या क़ानून और विधान पर चलने वाले किसी मुल्क़ की पुलिस ऐसा आचरण करती है?

दिल्ली में पुलिस प्रशासन और क़ानून व्यवस्था की जिम्मेदारी केंद्रीय गृह मंत्रालय की है। समझना उतना मुश्किल नहीं कि देश की राजधानी का हाल इतना ख़राब क्यों किया जा रहा है? कुछ समय से सिलसिला सा चल रहा है। जामिया के पुस्तकालय में घुसकर पुलिस छात्रों को पीटती है। क्या भयानक दृश्य था! पर कुछ नहीं होता। किसी तरह की जांच-पड़ताल का पता नहीं चला। किसी दोषी के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं! 

जेएनयू में छात्रों-शिक्षकों पर हमला करने वाले नक़ाबपोश गिरोह का आज तक पता नहीं चला। स्टिंग ऑपरेशन में आरएसएस के छात्र संगठन एबीवीपी के जिन दो युवकों की संलिप्तता का खुलासा हुआ था, उनके ख़िलाफ़ भी कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई!

जनता के ख़िलाफ़ ही कार्रवाई! 

सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव को हिंसा वाले दिन जेएनयू के गेट पर घसीटा गया। कोई कार्रवाई नहीं हुई! जेएनयू छात्रसंघ की अध्यक्ष आइशी घोष पर प्राणघातक हमला हुआ, कोई कार्रवाई नहीं हुई!...तो ये सरकार सिर्फ जनता के ख़िलाफ़ कार्रवाई करती है। जनता पर कहर बरपाने वालों को पालती-पोसती है। उत्तर प्रदेश जैसे बीजेपी-शासित राज्य के हालात तो किसी आधिकारिक निरंकुश तंत्र में तब्दील हो चुके हैं। न्याय के मंचों से भी किसी तरह के कारगर हस्तक्षेप का कोई संकेत नहीं मिल रहा है। ऐसे में अंदाज लगाना कठिन नहीं है कि बेदम होते संवैधानिक लोकतंत्र के साथ यह देश किस ओर लुढ़क रहा है?

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
उर्मिेलेश

अपनी राय बतायें

सियासत से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें