loader

कश्मीर की विशेष स्थिति बहाल करने की मांग कर रहे नेताओं की कितनी साख?

सवाल यह उठता है कि ज़मीनी स्तर पर इन नेताओं की क्या स्थिति है, ग्रास रूट स्तर पर इन दलों के कितने कार्यकर्ता सक्रिय हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि जनता के बीच उनकी कैसी पकड़ है, उनका क्या आधार है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि इन दलों की कश्मीरी जनता के बीच विश्वसनीयता लगभग ख़त्म हो चुकी है। 
प्रमोद मल्लिक
जम्मू-कश्मीर की मुख्यधारा के सभी राजनीतिक दल एक बार फिर एकजुट हो रहे हैं ताकि वे राज्य की विशेष स्थिति की बहाली और स्वायत्तता की माँग को लेकर केंद्र सरकार पर दबाव बना सकें और इसके लिए संघर्ष को ज़मीनी स्तर पर उतार सकें। लेकिन राज्य की बदली हुई सियासी स्थिति, जनता के बीच इन दलों की विश्वसनीयता ख़त्म होने से उपजे संकट, इन दलों में आपसी मतभेद और स्पष्ट मक़सद की कमी के कारण इसके शुरू होने से पहले ही कई सवाल खड़े होते हैं।
जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नैशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फ़ारूक़ अब्दुल्ला बुधवार को स्वयं चल कर महबूबा मुफ़्ती के घर उनसे मिलने गए। उनके साथ उनके बेटे और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी थे। दोनों ने मिल कर महबबूा को अपने घर पर होने वाली बैठक में भाग लेने का न्योता दिया है। इस बैठक में गुपकार घोषणा पर बात होगी।
ख़ास ख़बरें
उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट कर इसकी जानकारी दी। उन्होंने कहा, 'मैं और मेरे पिता महबूबा मुफ़्ती साहिबा की रिहाई के बाद उनका हाल-चाल पूछने उनके घर गए थे। उन्होंने कल दोपहर बाद गुपकार घोषणा पत्र पर दस्तख़त करने वाले नेताओं की बैठक में भाग लेने के फ़ारूक साहब के निमंत्रण को स्वीकार कर लिया है।'
महबूबा मुफ़्ती ने अलग से ट्वीट कर इसकी पुष्टि की। उन्होंने कहा, 'यह अच्छा लगा कि आप और फ़ारूक साहब मेरे घर आए। उनकी बातें सुन कर मेरा साहस बढ़ा। हम सब मिल कर निश्चित रूप से कुछ बेहतर कर सकेंगे।'
यह तो साफ है कि गुरुवार को श्रीनगर स्थित फ़ारूक़ अब्दुल्ला के घर पर उन 6 दलों के नेताओं की बैठक एक बार फिर होगी, जिन्होंने गुपकार घोषणा पत्र पर दस्तख़त किए थे।

क्या है गुपकार घोषणा पत्र?

श्रीनगर के गुपकार इलाक़े में स्थित फ़ारूक़ अब्दुल्ला के घर पर 4 अगस्त 2019 को सात राजनीतिक दलों की बैठक हुई थी, जिसमें जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति की गांरटी देने वाले अनुच्छेद 370 और 35 'ए' को बरक़रार रखने और राज्य को स्वायत्ता देने की मांग की गई थी। इसके बाद एक घोषणापत्र पढ़ा गया। इस पर नैशनल कॉन्फ्रेंस, पीपल्स डेमेक्रेटिक पार्टी, जम्मू-कश्मीर पीपल्स कॉन्फ्रेंस, आवामी नैशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस, सीपीआईएम और पूर्व ब्यूरोक्रेट शाह फ़ैसल के जम्मू-कश्मीर पीपल्स मूवमेंट के प्रतिनिधियों ने दस्तख़त किए थे।
इसके अगले ही दिन केंद्र सरकार ने संसद में प्रस्ताव पारित कर अनुच्छेद 370 में संशोधन कर दिया, अनुच्छेद 35 'ए' को ख़त्म कर जम्मू-कश्मीर की संविधान से मिली विशेष स्थिति को ख़त्म कर दिया। पूरे राज्य को सुरक्षा बलों के हवाले कर दिया गया, लॉकडाउन लागू कर दिया गया, इंटरनेट और फ़ोन कनेक्शन काट दिए गए और स्थानीय स्तर से लेकर राज्य स्तर तक के नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया या उन्हें नज़रबंद कर दिया गया। इसमें उमर अब्दुल्ला, फ़ारूक़ अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती भी थीं।

गुपकार घोषणा पत्र 2

केंद्र सरकार ने 13 मार्च 2020 को फ़ारूक़ अब्दुल्ला और 24 मार्च को उमर अब्दुल्ला को रिहा कर दिया। गुपकार घोषणा के एक साल पूरा होने के मौके पर उसी जगह एक बार फिर बैठक हुई। उस बैठक में गुपकार घोषणा पत्र को दुहराया गया और यह एलान किया गया कि उसे हर हाल में लागू करना है। केंद्र सरकार से मांग की गई कि वह अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35 'ए' को बहाल करे, राज्य की विशेष स्थिति को फिर से लागू करे, सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करे, इंटरनेट सेवा बहाल करे और राजनीतिक बातचीत शुरू करे। इसमें यह भी कहा गया था कि जम्मू-कश्मीर को स्वायत्तता दी जाए।
अब 13 अक्टूबर 2020 को महबूबा मुफ़्ती को रिहा कर दिया है। एक बार फिर गुपकार घोषणा पत्र पर दस्तख़त करने वाले नेता बैठक कर रहे हैं। इसमें सिर्फ शाह फ़ैसल नहीं होंगे, क्योंकि उन्होंने राजनीति छोड़ने का एलान कर दिया है।

ज़मीनी हक़ीक़त

लेकिन सवाल यह उठता है कि ज़मीनी स्तर पर इन नेताओं की क्या स्थिति है, ग्रास रूट स्तर पर इन दलों के कितने कार्यकर्ता सक्रिय हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि जनता के बीच उनकी कैसी पकड़ है, उनका क्या आधार है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि इन दलों की कश्मीरी जनता के बीच विश्वसनीयता लगभग ख़त्म हो चुकी है। 
एक साल के लॉकडाउन के बाद आम जनता में इतनी कटुता घुल चुकी है कि वह इन दलों को 'भारत का एजेंट' समझ रहे हैं, भले ही यह सच न हो। आम जनता का मानना है कि ये दल केंद्र सरकार का कोई विरोध न कर सके, बस किसी तरह अपनी खाल बचाने में लगे रहे।

उमर का विवादास्पद विवाद

इसके पीछे कुछ नेताओं का बयान और व्यवहार भी है। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि उमर अब्दुल्ला ने जब यह एलान किया कि वह तब तक चुनाव नहीं लड़ेंगे जब तक जम्मू-कश्मीर फिर से राज्य नहीं बन जाता तो लोगों में गुस्सा बढ़ा था। लोगों का कहना था कि उमर ने राज्य की विशेष स्थिति बहाल करने की बात क्यों नहीं की। इसे इस रूप में देखा गया कि उमर और उनकी पार्टी ने मौजूदा स्थिति को स्वीकार कर लिया है और वे अब अनुच्छेद 370 या 35 ए की बहाली की मांग पर ज़ोर नहीं देंगे। लोगों ने उन पर तंज किए थे।
इसके बाद उमर अब्दुल्ला ने 'इंडियन एक्सप्रेस' में एक लंबा लेख लिख कर सफाई दी थी और कहा था कि जम्मू-कश्मीर के साथ जो कुछ हुआ है, उसे वे और उनकी पार्टी कभी स्वीकार नहीं कर सकती है और वे इसका विरोध करते रहेंगे।

'स्थिति उलटने को नहीं कहेंगे'

इसी तरह राज्य के इस पूर्व मुख्यमंत्री ने एनडीटीवी से बात करते हुए कहा था कि वह नरेंद्र मोदी से यह नहीं कहेंगे कि जम्मू-कश्मीर के साथ जो कुछ हुआ है, उसे उलट दिया जाए। फ़ारूक़ ने इस पर भी बाद में सफाई दी थी और कहा था कि उनकी बात को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं लिया गया। पर लोगों ने सवाल किया था कि आखिर आप केंद्र सरकार से ऐसा करने को क्यों नहीं कहेंगे। 
यह माना गया कि फ़ारूक़ अब्दुल्ला की दिलचस्पी 5 अगस्त 2019 के पहले की स्थिति बहाल करने में नहीं है और उन्होंने मौजूदा स्थिति को स्वीकार कर लिया है।

कांग्रेस पर सवाल

गुपकार घोषणा पर दस्तख़त करने वाली कांग्रेस पर और गंभीर सवाल उठते हैं। कांग्रेस ने कहा था कि वह अनुच्छेद 370 में हुए संशोधन के ख़िलाफ़ नहीं है, पर यह जिस तरह किया गया, उसके ख़िलाफ़ है।
कश्मीर केंद्रीय विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर शौकत हुसैन ने 'द स्क्रॉल' से कहा कि यदि गुपकार घोषणा पत्र के लोग राज्य के लिए वाकई काम करना चाहते हैं तो इसमें राज्य के दल ही होने चाहिए, दूसरे दलों से लोगों में ग़लत संकेत जाएगा। यानी कांग्रेस और सीपीआईएम को कश्मीर के लोग बाहरी पार्टी मानते हैं, उन पर यकीन नहीं करेंगे।

विश्वसनीयता की कमी

इसी तरह लोगों का मानना है कि आम जनता के बीच जाकर उनका विश्वास हासिल करना मुश्किल काम है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि अब नैशनल कॉन्फ्रेंस यदि आम जनता के बीच जाती है तो उसे सबसे पहले राज्य की विशेष स्थिति बहाल करने के लिए संघर्ष करने की बात करनी होगी, वर्ना उसे कोई नहीं सुनेगा।
गुपकार घोषणा पत्र के दलों की असल समस्या इस विश्वास की कमी ही है। गुरुवार की बैठक में एक बार फिर वे गुपकार को दुहराएंगे, उससे कुछ हासिल नहीं होगा। उन्हें बताना होगा कि वे राज्य की विशेष स्थिति बहाल करने के लिए क्या करेंगे। सिर्फ बताना ही नहीं होगा, बल्कि जनता को उस पर यकीन भी कराना होगा।

क्या है केंद्र की योजना?

लेकिन इसके पीछे एक सवाल यह भी है कि क्या केंद्र सरकार कुछ पहल करने की तैयारी में है। 
जिस तरह केंद्र ने जम्मू-कश्मीर से सुरक्षा बलों के कुछ जवानों को वापस बुलाने का एलान किया और एक के बाद एक लगभग सारे नेता छोड़ दिए गए, उससे यह संकेत मिलता है कि केंद्र कुछ सोच रहा है। इसके साथ ही राज्य में नए राज्यपाल की नियुक्ति को भी इसी दिशा में उठा कदम समझा जा सकता है।

कश्मीर पर बातचीत?

इस बीच मशहूर पत्रकार करण थापर ने 'द वायर' में एक लेख लिख कर दावा किया है कि पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने उनसे कहा कि नई दिल्ली पाकिस्तान से बात करना चाहता है।  भारत सरकार ने अब तक इसका खंडन नहीं किया है। तो क्या केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने जा रही है? पर इससे बड़ा सवाल तो यह है कि कश्मीरी नेता आगे क्या करते हैं और अपनी प्रासंगिकता कैसे स्थापित करते हैं।
जम्मू-कश्मीर में गुपकार घोषणा पर दस्तख़त करने वालों पर ही सवाल उठाया जा रहा है। 'वॉट हैपन्ड टू गवर्नेंस इन कश्मीर' के लेखक एजाज अशरफ़ वानी ने कुछ दिन पहले 'द स्क्रॉल' से बात करते हुए दो महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए। उन्होंने कहा कि नैशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी एक दूसरे के ख़िलाफ़ रहे हैं, नैशनल आवामी कॉन्फ्रेंस की स्थापना फ़ारूक़ के बहनोई ग़ुलाम मुहम्मद शाह ने की थी और दिल्ली की मदद से फ़ारूक की सरकार गिरा दी थी, कांग्रेस की मदद से कुछ दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने थे। पीपल्स डेमोक्रेकिट पार्टी ने इसके पहले कांग्रेस से मिल कर चुनाव लड़ा था। पीपल्स कॉन्फ्रेंस के सज्जाद लोन तो बीजेपी तक से हाथ मिला चुके हैं। इन लोगों की क्या विश्सनीयता है, वह सवाल करते हैं।
लेखक एजाज अशरफ़ वानी कहते हैं कि इन लोगों ने दिल्ली की खींची लाल रेखा को कभी पार नहीं किया, उसके अंदर ही उसका विरोध भी करते रहे। ये लोग एक बार फिर उसके ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए हैं।
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
प्रमोद मल्लिक

अपनी राय बतायें

विश्लेषण से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें