असीमानंद बंगाल से थे। उनके बड़े भाई संघ से जुड़े थे। असीमानंद ने आदिवासी कल्याण संघ के झंडे तले आदिवासियों के बीच काम किया। उनका मुख्य काम ईसाई आदिवासियों को हिंदू बनाना था।
पहले असीमानंद का कार्यक्षेत्र अंडमान-निकोबार था लेकिन बाद में उन्होंने गुजरात के डांग ज़िले में डेरा डाला और दोनों जगह धर्मांतरण का काम किया। 1998 में असीमानंद ने डांग में कई हज़ार ईसाइयों को हिंदू बनाया जिसकी देश-दुनिया में काफ़ी चर्चा हुई।
उसके बाद संघ के नेता उनसे मिलने लगे जिनमें प्रज्ञा ठाकुर भी थीं और सुनील जोशी भी। आइए, असीमानंद के ही शब्दों में जानते हैं कि सुनील जोशी और प्रज्ञा ठाकुर में क्या रिश्ते थे और दोनों कैसे उनके संपर्क में आए।
असीमानंद : हमने वहाँ (डांग में) एक मंदिर बनाया और जहाँ भी गए, वहाँ मंदिर बनाया। उसके बाद लोगों का धर्मांतरण करना आसान हो गया। थोड़ा-सा ही ज़ोर डालकर मैं उनको हिंदू बना देता था। मेरी पहचान ही बन गई थी कि एक ऐसे स्वामी के रूप में जो धर्मांतरण करवाकर हिंदू बनाता है। (जब यह बात फैली तो) आरएसएस के लोग वहाँ मुझसे मिलने आने लगे। प्रज्ञा ठाकुर भी आई और सुनील जोशी भी आया। प्रज्ञा इंदौर से थी। उसके पिता सूरत में डॉक्टर थे, सो जब भी वह उनसे मिलने सूरत आती थी तो डांग में मुझसे भी मिलने आती थी। साथ में सुनील जोशी भी आता था।
लीना : प्रज्ञा के पिता, जो सूरत में रहते थे, वे डॉक्टर थे?
असीमानंद : हाँ। सुनील जोशी और इंदौर से दूसरे लोग भी मुझसे मिलने आते थे। वे बोलते थे कि मैं ईसाइयों के बीच अच्छा काम कर रहा हूँ। उनसे बात करते समय मैं भी अपने विचार बोल देता था। सबसे बड़ा मसला मुसलमान हैं। ईसाइयों के मामले में हम एक होकर उनको धमका सकते हैं। मुसलमानों से निपटने के लिए अभी से तैयार होना पड़ेगा। वे अपनी तादाद तेज़ी से बढ़ा रहे हैं। अगर वे बहुमत में आ गए तो हमारी स्थिति बहुत ही ख़राब हो जाएगी। कुछ करना चाहिए। इसी के लिए इंदौर से प्रज्ञा, सुनील और दूसरे लोग आते थे कि इसके लिए क्या किया जाए।
असीमानंद ने आगे बताया कि इस काम को आगे बढ़ाने के लिए वह पुणे में नाथूराम गोडसे के घर में गए और वहाँ हिमानी सावरकर से मिले जो नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे की बेटी हैं और वीर सावरकर के बेटे से ब्याही थीं। इन सबने एक ग्रुप बनाया कि कैसे कुछ नया किया जाए।
असीमानंद : मेरे एक मित्र हैं कोलकाता में, तपन घोष। संघ के प्रचारक हैं। वह भी हमारे काम में मदद कर रहे थे कि कैसे अलग तरीक़े से काम किया जाए। भोपाल में एक मीटिंग में, मैं एक बार बहुत उत्तेजित हो गया और बहुत अग्रेसिवली बताया कि अभी आक्रमण न होने पर हम ख़त्म हो जाएँगे। पता नहीं, यह बात एनआईए और सीबीआई तक कैसे पहुँच गई!
असीमानंद : ऐसा नहीं। मैं आपको असली बातें बताऊँगा। इसके बाद में फ़िल्टर करना, कैसे करना, यह आप देख लेना। 2006 में मालेगाँव में पहला धमाका हुआ। फ़रवरी 2007 में समझौता, मई 2007 में मक्का मस्जिद, सितंबर 2007 में अजमेर। 2007 में जो कुछ भी हुआ, उन्होंने मुसलमानों को गिरफ़्तार किया। फिर 2008 में उनको पहली बार मोटरसाइकल मिली - प्रज्ञा की। तब उन्होंने सोचा, हिंदू भी उतने ही सक्रिय हैं। प्रज्ञा ने वह मोटरसाइकिल चार साल पहले किसी को दी थी। किसको? सुनील जोशी को।
सभी अभियुक्तों को बरी करने का फ़ैसला सुनाते हुए जज राजीव मधुसूदन आप्टे ने कहा था कि एनआईए और पुलिस ने इस मामले की बहुत ही ग़ैर-संजीदा तरीक़े से जाँच की।
सुनील जोशी की हत्या पर दस साल तक जाँच चलती रही। पहले उसे सामान्य मर्डर मानते हुए मध्य प्रदेश पुलिस ने जाँच शुरू की और तीन साल बाद इस मामले में पहली गिरफ़्तारी हुई जब सुनील जोशी के साथ रह रहा एक फ़रार अभियुक्त हर्षद (उर्फ़ राज) सोलंकी पकड़ा गया। उसके दो महीने बाद पुलिस ने चार्जशीट दायर की जिसमें प्रज्ञा ठाुकर समेत चार और लोगों के नाम थे।
एनआईए, जोशी की हत्या के मामले में जिस निष्कर्ष पर पहुँचा था, वह वही था जो असीमानंद ने लीना को बताया।
असीमानंद : सबसे पहले सुनील जोशी मर्डर केस में प्रज्ञा मेन पार्टी थी। हर्षद (उर्फ़ राज) सोलंकी भी उसमें शामिल था। हर्षद और मेहुल, सुनील जोशी के घर में रहते थे। दोनों बेस्ट बेकरी वाले मामले में फ़रार थे। चूँकि मध्य प्रदेश में उनको कोई ख़ास परेशान नहीं करता था, इसलिए सुनील जोशी उनको वहीं रखता था। लेकिन सुनील जोशी की हत्या के बाद हर्षद और मेहुल वहाँ से भाग गए क्योंकि वे वहाँ दूसरे नाम से रह रहे थे। दोनों को डर था कि अगर उनसे पूछताछ हुई तो उनके (दूसरे मामले में) फ़रार होने का भेद खुल जाएगा।
उधर, पुलिस को लगा कि जोशी की हत्या के बाद ही ये फ़रार हुए हैं तो ज़रूर मर्डर में इन्हीं का हाथ है। लेकिन मर्डर का कारण क्या है? क्योंकि प्रज्ञा ने उनको बोला। और राज और मेहुल दोनों पर मर्डर का आरोप लगा। प्रज्ञा को भी मुंबई से लाकर भोपाल जेल में रखा गया। उसके बाद भोपाल पुलिस से मामला एनआईए के हाथ में आ गया।
एनआईए को लगा कि हर्षद ने उसको नहीं मारा है। अपनी जाँच के आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि इसमें लोकेश और राजिंदर का हाथ है। उसके बाद वे लोकेश को मध्य प्रदेश लेकर गए। लोकेश का तक़रीबन सभी मामलों में नाम है और सभी मामलों में उसका टॉर्चर हुआ। मैंने अपने मामले में जैसे टॉर्चर का आरोप लगाया है, लोकेश के साथ उससे भी ज़्यादा हुआ।
सुनील जोशी मर्डर मामले में भी उसको बहुत यातनाएँ दीं और बहुत पीटा। उन्होंने उससे बोला कि तुम्हारी पत्नी ने बताया है कि तुमने उसके सामने माना था कि तुम्हीं ने सुनील जोशी को मारा है। उन्होंने कहा कि अब वे इस मामले में उसकी पत्नी को भी गिरफ़्तार कर लेंगे। जो आदमी इतने दिन तक तमाम तरह की यातनाएँ सहकर भी नहीं टूटा था, वह इस बात से टूट गया। कोई भी होता तो यही करता; जब आपकी पत्नी का मामला हो तो आपको करना ही है। इतना मारा है। अगर तुम नहीं बताओगे तो तुम्हारी पत्नी को भी इसमें ले आएँगे। 2007 में मारा है। 2013 में वे रिवॉल्वर लेकर आए। उसके भाई के घर से उन्होंने वह बरामद किया। जिससे मर्डर हुआ है। (उसका भाई) जितेंद्र शर्मा जो एक वकील है और यहाँ आया करता था। उसको उन्होंने गिरफ़्तार कर लिया।
लीना : यह जो सुनील जोशी के मर्डर का मामला है - क्या मुसलमानों ने किया? मेहुल और दूसरे लोगों ने नहीं किया?
असीमानंद : मैंने आपको मेहुल और राज (हर्षद) के बारे में बताया था। जब सुनील का मर्डर हुआ तो वे जानते थे कि पुलिस उसके साथ रहने वाले सभी लोगों के बारे मे पूछताछ करेगी और तब पुलिस को पता चल जाएगा कि वे दोनों बेस्ट बेकरी मामले में फ़रार चल रहे हैं और उनकी गिरफ़्तारी निश्चित है। इसलिए वे भाग गए और पुलिस ने सोचा कि इन्हीं लोगों ने (मर्डर) किया है। तो जब तक मामला एटीएस के पास था, वे मेहुल और राज को ही इसके लिए दोषी बताते रहे। मेहुल तो पकड़ा नहीं गया था लेकिन राज को गिरफ़्तार कर लिया था। (अस्पष्ट) उन्होंने कहा कि जब तक तुम नहीं क़बूलोगे, हम तुमको टॉर्चर करते रहेंगे। एटीएस की चार्जशीट में यही है।
उसके बाद एनआईए ने मामला अपने हाथ में लिया। वे शुरू से कह रहे थे कि एटीएस जो कर रहा है, वह सही नहीं है। उनको इस बात पर शक था कि मेहुल और राज ने यह किया है। वे तो केवल गिरफ़्तारी से बचने के लिए भागे थे। जब एनआईए के पास केस आया तो मेहुल को अजमेर मामले में पकड़ा। एनआईए की चार्जशीट में उसका (मेहुल का) नाम नहीं है। (ख़ुद को सुधारा)। नहीं, अभी तो चार्जशीट आनी बाक़ी है। जल्दी ही आएगी। और अब केस यह है कि लोकेश शर्मा ने सुनील को मारा। उन्होंने लोकेश को बहुत टॉर्चर किया लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। तब तक वे उसकी पत्नी से मिल चुके थे। उसके बाद लोकेश ने मान लिया।
उसकी पत्नी ने माना कि वह जानती थी कि लोकेश (सुनील का) मर्डर करने वाला है और मर्डर के बाद भी उसने बताया कि मैंने किया। एनआईए ने उसकी पत्नी को गिरफ़्तार नहीं किया था, बस उसको कस्टडी में रखा था। सेक्शन 120 में उसका यह काम एक क्राइम था, क्योंकि वह जानती थी (कि मर्डर होने वाला है) और यह उसने माना भी है कि वह जानती थी। इसलिए जब उसे पता चला कि उसकी पत्नी को गिरफ़्तार करने वाले हैं तो उसने अपराध क़बूल कर लिया - एक ऐसे आदमी ने जिसको इतना मारने के बाद भी नहीं तोड़ पाए थे। उन्होंने उसको बोला कि तुमको उस रिवॉल्वर का पता बताना होगा नहीं तो हम तुम्हारी पत्नी को गिरफ़्तार कर लेंगे। अगर तुम रिवॉल्वर बरामद करने में हमारी मदद नहीं करोगे तो (सेक्शन) 120 के अंदर तुम्हारी पत्नी के ख़िलाफ़ केस कर देंगे - तकनीकी रूप से ऐसा हो सकता है। इसीलिए 6 साल बाद उनको वह रिवॉल्वर मिला - 2007 में उसका मर्डर हुआ था और 2013 में रिवॉल्वर बरामद हुआ। 6 साल बाद भी रिवॉल्वर वहीं रखा हुआ था। और उसका भाई जितेंद्र शर्मा सबकुछ जानता था। अपनी पत्नी को बचाने के लिए उसे यह सब कहना पड़ा।
लेकिन इस सवाल का जवाब असीमानंद ने नहीं दिया कि आख़िर सुनील जोशी को मारा क्यों गया।
‘अश्लील और अभद्र’ व्यवहार रहा कारण!
एनआईए की चार्जशीट के मुताबिक़ प्रज्ञा के साथ ‘अश्लील और अभद्र’ व्यवहार करने के कारण जोशी की हत्या हुई और यह सब प्रज्ञा की जानकारी और रज़ामंदी से हुआ। एनआईए के हिसाब से इस हत्या का सुनील जोशी के आतंकवादी हरकतों में लिप्त होने से कोई संबंध नहीं था। जब एनआईए ने यह निष्कर्ष निकाला तो एनआईए कोर्ट ने कहा कि यह तो सामान्य हत्या का मामला निकला, आतंकवाद का नहीं। इसलिए सितंबर 2014 में यह मामला फिर से देवास पुलिस के हवाले कर दिया गया।
प्रज्ञा समेत सभी अभियुक्त बरी
देवास पुलिस ने उसके बाद क्या जाँच की होगी, इसके बारे में अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि फ़रवरी 2017 में मजिस्ट्रेट ने प्रज्ञा समेत सभी अभियुक्तों को ‘पर्याप्त सबूत न होने’ के आधार पर बरी कर दिया। बरी होने वालों में लोकेश का नाम भी था जिसके बताने पर हत्या में इस्तेमाल किया गया रिवॉल्वर एनआईए को मिला था।
मजिस्ट्रेट ने कहा कि मध्य प्रदेश पुलिस और एनआईए ने इस मामले की जाँच पूरी संजीदगी से नहीं की। कोर्ट के मुताबिक़ दोनों एजेंसियों ने परस्पर विरोधी प्रमाण पेश किए जिसका असर यह हुआ कि अभियोजन पक्ष द्वारा अभियुक्तों पर लगाए गए आरोप शक के घेरे में आ गए। कोर्ट ने कहा कि ये सबूत अभियुक्तों को दोषी साबित करने के लिए अपर्याप्त हैं।
आज की तारीख़ में हमारे पास असीमानंद के हवाले से यह जानकारी है कि लोकेश शर्मा ने सुनील जोशी की हत्या की (हालाँकि ‘सबूतों के अभाव में’ कोर्ट ने उनको बरी कर दिया है)। मगर हम यह नहीं जानते कि हत्या क्यों की।
लीना : प्रज्ञा जी और सुनील जोशी काफ़ी - उनका अच्छा परिचय था…
असीमानंद : परिचय - कोई-कोई बोलते थे उनके बारे में। पर मैंने नहीं देखा। दोनों एक साथ रहते थे। मुझे अच्छा लगता था दोनों को साथ-साथ काम करते देखकर।
दोनों एक साथ रहते थे। फिर एक दिन आख़िर ऐसा क्या हुआ कि जोशी ने प्रज्ञा से ऐसी ‘अश्लील और अभद्र’ हरकत की कि उसको जान से हाथ धोना पड़ा, वह भी ऐसे इंसान को जो ‘हत्यारों’ के हिसाब से हिंदुओं के एक बड़े अभियान में जुटा हुआ था और जिसने 2006 और 2007 में देश के कई मुसलिम बहुल इलाक़ों और धर्मस्थलों में धमाके कर इसलामी आतंकवाद को चुनौती देने का काम किया था।
अफ़सोस यह है कि हम सुनील जोशी की हत्या का कारण कभी नहीं जान पाएँगे। हाँ, अगर किसी दिन प्रज्ञा या बाक़ी अभियुक्तों में से किसी के मन में ग्लानि का भाव जगे या असीमानंद की तरह कोई किसी पत्रकार के सामने कोई सारा सच उजागर करे तो बात और है। मगर तब भी भारतीय अदालत किसी को सज़ा देगी, ऐसा नहीं लगता, ख़ासकर केंद्र में बीजेपी की सरकार के रहते हुए। लेकिन हमें यह तो पता चल पाएगा कि सुनील जोशी को क्यों मारा गया।
सुनील जोशी के बाद इन धमाकों में जो दो और प्रमुख नाम हैं, वे हैं प्रज्ञा ठाकुर और ले. कर्नल पुरोहित के। ये दोनों ही 2008 में हुए मालेगाँव बमकांड में अभियुक्त हैं और एनआईए अदालत में अभी इस मामले की सुनवाई चल रही है। असीमानंद ने अपने इंटरव्यू में प्रज्ञा का कई स्थानों पर ज़िक्र किया है और कहा है कि उनको बचाने की उन्होंने पूरी कोशिश की। इस सीरीज़ की अगली किस्त में हम जानेंगे कि प्रज्ञा, असीमानंद के संपर्क में कैसे आईं और असीमानंद ने उनको बचाने के लिए क्या-क्या किया।
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