‘तुम आश्रम में आराम से रहो’
अपने दूसरे इंटरव्यू में लीना ने असीमानंद से पूछा कि प्रज्ञा सिंह को उनके बारे में कैसे पता चला और क्यों वे उनसे मिलने उनके आश्रम में आईं।असीमानंद : प्रज्ञा पहले आई मिलने, सुनील जोशी बाद में आया। जब 1998 में मेरे बारे में ख़बरें छपीं (कि मैं ईसाइयों को हिंदू बना रहा हूँ) और उनको लगा कि संघ का कोई बंदा यह काम कर रहा है तो उनको लगा कि उनको मुझसे मिलना चाहिए।
वह (जोशी) मध्य प्रदेश में हुए एक मर्डर के केस में फ़रार चल रहा था। सो मैंने उससे कहा कि मेरे आश्रम में आओ और आराम से रहो। उस समय प्रज्ञा आश्रम के कामकाज़ में हिस्सा बँटा रही थी और अक़सर आया करती थी। सुनील जोशी ने सारी प्लानिंग की। मेन वही है। बाद में तो उसकी हत्या ही हो गई।
असीमानंद : परिचय - कोई-कोई बोलते थे उनके बारे में। पर मैंने नहीं देखा। दोनों साथ रहते थे। उनको साथ में काम करते देखकर अच्छा लगता था।लीना : प्रज्ञा के बारे में कुछ और बताइए।
असीमानंद : प्रज्ञा भोपाल में ABVP की फ़ुलटाइम मेंबर थी, तब वह संन्यासिनी नहीं थी। उसने मेरे बारे में सुना। फिर उसने किसी से संपर्क किया और कहा कि वह मुझसे मिलना चाहती है, और मुझसे मिलने डांग आई। बाद में उसने संन्यास ले लिया।
असीमानंद : उसने मुझसे पूछा था कि क्या वह मुझसे दीक्षा ग्रहण कर सकती है? मैंने कहा, नहीं, मैं नहीं दे सकता। मैं इस योग्य नहीं हूँ। लायक़ नहीं हूँ मैं। कभी लायक़ बनूँ तब तक आप इंतज़ार मत करना।लीना : क्यों? आप लायक़ क्यों नहीं हैं?
असीमानंद : मैं संन्यासियों की परंपरा के अनुसार काम नहीं करता। आश्रम चलाना और संन्यासी की तरह जीना मेरा काम नहीं है। मैं आदिवासियों के बीच रहता हूँ और काम करता हूँ - वही मेरा मिशन है। स्वामीजी की पहचान अलग है।लीना : आपकी तरह के और लोग भी थे वनवासी कल्याण आश्रम में?
असीमानंद : वनवासी कल्याण आश्रम संतों के लिए नहीं है।
‘आप अच्छा काम कर रहे हो’
लेकिन यह असीमानंद और प्रज्ञा की पहली मुलाक़ात नहीं थी। असीमानंद प्रज्ञा से 1995-96 में भोपाल में मिल चुके थे हालाँकि प्रज्ञा को वह मुलाक़ात याद नहीं थी। इसके बारे में असीमानंद ने इसी इंटरव्यू में आगे बताया।असीमानंद : प्रज्ञा की एक पर्सनालिटी है। लड़के जैसी, छोटे-छोटे बाल थे। वह शर्ट और पैंट पहनती थी।लीना : तो आपने उनको क्या कहकर संबोधित किया?
असीमानंद : प्रज्ञाजी।लीना : और उन्होंने आपको क्या कहकर संबोधित किया?
असीमानंद : स्वामीजी। 1995-96 के आसपास की बात है, जब मैं भोपाल गया था और वहाँ वीएचपी की सुशीला जी के घर पर वह भी आई थी उनसे मिलने। जिस तरह की आक्रामकता थी उसमें, जिस तरह के हिंदुत्व की बात करती थी वह और उसका पहनावा, इस सबने मेरे मन में उसकी एक छाप छोड़ दी।
असीमानंद : नहीं, उस समय हममें ज़्यादा बात नहीं हुई। किसी ने हम दोनों का परिचय कराया और उससे कहा कि ये वनवासी आश्रम के असीमानंद हैं। बाद में जब मैंने सुना कि वह मुझसे मिलने डांग आ रही है तो मुझे लगा कि उसको हमारी पहली मुलाक़ात याद होगी। लेकिन उसे याद नहीं था। मैंने उसको याद दिलाया उस पहली मुलाक़ात का और कहा कि मेरा पहनावा ऐसा है कि तुमको याद रहना चाहिए था। लेकिन उस मुलाक़ात के बाद 3-4 साल हो चुके थे और वह उसे भूल चुकी थी।
असीमानंद : जब वह डांग में आई तो वह अकेली ही थी।लीना : यह मुलाक़ात किसने करवाई?
असीमानंद : नवसारी के जयंतीभाई ने यह मीटिंग करवाई थी। वे डांग वाले मंदिर के ट्रस्टी थे।
असीमानंद : इसमें समस्या कोई नहीं है। क्या समस्या? मैंने उनसे कह दिया कि मेरा अपना कार्यक्षेत्र है। मैं कोई और काम नहीं करूँगा। आप वह कर सकते हो। यह काम ग़लत नहीं है, अच्छा है। जो कर रहे हो, वो करना ही चाहिए। मंदिर पर जो आक्रमण हो रहा है, उसका बदला लेना ही चाहिए। आप लोग करो। तो वो लोग करने लगे। आश्रम एक केंद्र बन गया इसके लिए।
इसके बाद जनवरी 2014 में लीना ने असीमानंद से जो तीसरी बार बात की, उसमें भी प्रज्ञा का ज़िक्र आया। इस बातचीत में असीमानंद ने कहा कि उन्होंने अदालत के सामने दिए गए अपने क़बूलनामे में उन्हीं लोगों का नाम लिया जो या तो फ़रार थे या मारे जा चुके थे।
‘प्रज्ञा निर्णायकों में थी’
लीना : क्या मैं आपसे एक सवाल पूछ सकती हूँ? जब आपने वह क़बूलनामा दिया तो उसमें सारी ज़िम्मेदारी आपने सुनील जोशी और ख़ुद पर ले ली।असीमानंद : हाँ, मैंने सोचा, क्यों किसी और को इसमें इन्वॉल्व किया जाए। सबकी सज़ा मैं ही भुगत लूँगा। सुनील की तो मौत ही हो चुकी थी। मैं भी तो जोश में था ना।
असीमानंद : वह जेल में थे। लेकिन सीबीआई वालों की बातचीत से लगा कि वे प्रज्ञा और दूसरों को, यहाँ तक कि भरतभाई को भी गिरफ़्तार नहीं करेंगे। उनकी बातचीत से मुझे ऐसा आभास हुआ। लेकिन जब मैंने सारी बातें बतानी शुरू कीं तो उनका रवैया बदल गया। (उन्होंने कहा कि) अगर आप सबकुछ सही-सही बता दोगे तो हम वचन देते हैं कि हम भरतभाई और प्रज्ञा को गिरफ़्तार नहीं करेंगे। उस समय मुझे इसका भान तक नहीं था कि भरतभाई का ही सब किया-धरा है। (मैंने पूछा) आप उनको गिरफ़्तार नहीं करेंगे? उन्होंने कहा, नहीं।
असीमानंद : (उन्होंने पूछा) यानी भरतभाई ने जो कहा है, वह सब सच है? हाँ, वह सब सच है। प्रज्ञा का इसमें कोई रोल नहीं था? मैंने कहा, कोई रोल नहीं था। लेकिन भरतभाई उनको प्रज्ञा के बारे में पहले ही बता चुके थे - कि प्रज्ञा वहाँ थी।
असीमानंद : मुझे तो उन लोगों के नाम भी नहीं मालूम थे जो वहाँ थे।लीना : ओह, आपको उनके नाम तक नहीं मालूम थे?
असीमानंद : वो (भरतभाई) सबका ट्रैक रखते थे और फोटो से सबको पहचानते थे। मैं केवल सुनील और संदीप डांगे को जानता था। मुझे तो लोकेश का नाम भी नहीं पता था। लेकिन लोकेश मीटिंग में निस्संदेह था।
असीमानंद : नहीं, मैं नहीं जानता था और वैसे भी कभी हमारा असली नाम नहीं बताया जाता था। और बताया भी नहीं जाना चाहिए।
लीना : हाँ, सही कह रहे हैं।
असीमानंद : मैंने कभी पूछा भी नहीं। इतने लोग आए, काफ़ी है। उनके नाम जानकर क्या करना है? लेकिन भरतभाई ने सबके नाम बता दिए। उन्होंने कहा कि लोकेश था वहाँ। मुझे नहीं मालूम था। वे सभी का नाम लेने लगे (अस्पष्ट नाम) भी था, प्रज्ञा थी वहाँ। आप लोग इस जगह बैठकर बात कर रहे थे, सभी बात। कि भरतभाई के घर के (अस्पष्ट) के पीछे मैं, सुनील, प्रज्ञा और भरत बैठे थे और बातचीत की थी। जब वे सबकुछ जानते ही थे तो मुझे (अस्पष्ट) करना ही चाहिए। यह सब कौन किया? मैंने किया। उड़ाने का? मैंने किया। (सुधारकर बोलते हैं) सिर्फ़ ट्रेन के लिए मैंने कहा, सुनील ने किया।
असीमानंद : मैंने सोचा कि सुनील तो वैसे भी इस दुनिया में नहीं है। और तब पुलिस को संदेह हो जाएगा कि क्यों मैं सारी ज़िम्मेदारी ख़ुद पर ले रहा हूँ। उनको लगेगा कि मैं झूठ बोल रहा हूँ, कुछ छुपा रहा हूँ।
असीमानंद : किसको बचाया?लीना : प्रज्ञाजी और दूसरों को।
असीमानंद : जब मुझे पता लगा कि प्रज्ञा कुछ नहीं कहने वाली थी। भरतभाई ने बताकर रखा था। तब मैंने सोचा कि डिसीज़न में प्रज्ञा है, मैं क्यों बताऊँ? हाँ, वो थी। जगह बताया कि यहीं मैं बैठा हूँ। सही निकला। और बोलते कि आप नहीं बोलेंगे ना तो भरतभाई को अरेस्ट नहीं करेंगे, आपके ख़िलाफ़ विटनेस करा देंगे। वो विटनेस देंगे। उसकी पत्नी को विटनेस खड़ा कर देंगे। पत्नी तो थी ही। दो विटनेस खड़ा हो जाएगा। ऐसा सबूत हो जाएगा।
तो… प्रज्ञा डिसीज़न में नहीं थी, मैं बोल रहा हूँ। (उन्होंने बोला) ठीक है, मान लेते हैं। लेकिन आपकी जगह में बैठी थी। बैठी तो थी, लेकिन सुन रही कि नहीं सुन रही, यह मालूम नहीं है (क्योंकि) मैंने तो सुनील को बताया था। ठीक है, प्रज्ञा को अरेस्ट नहीं करेंगे, भरत को भी अरेस्ट नहीं करेंगे। सीबीआई भरत को भी अरेस्ट करना नहीं चाहती थी।
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