loader

थोथा निकला 'सबका साथ, सबका विकास' का मोदी का वादा

'सबका साथ, सबका विकास' एक बहुत सही नारा और उद्देश्य है। नारों और प्रचार द्वारा तालियाँ बजवाई जा सकती हैं और जयकारे लगवाये जा सकते हैं। किन्तु इसे जनजीवन और राजकाज या गवर्नेन्स में लागू किये बिना यह नारा धोखा और यह उद्देश्य एक छलावा बन जाता है।  

काला धन, उसका और उसके साथ जुड़े ग़ैर क़ानूनी धन का मिलाजुला राखनुमा सलेटी या ग्रे रूप में अभूतपूर्व सुरसा सा बढ़ता प्रसार, इस अनैतिक गतिविधि में सामान्य जन की प्रलोभनों द्वारा प्रेरित, उकसायी भागीदारी, आतंकवादियों की बढ़ी हरक़तों में दिखती उनकी अवैध धन-दौलत तक पहुँच, दिहाड़ी काम और अस्थाई रोजगार में गिरावट आदि साफ़ प्रमाण हैं कि राजकीय आर्थिक-वित्तीय आतंकवादनुमा 2016 की नोटबन्दी पूरी तरह नकारा निकली। दरअसल, घोषित मंशा से पूरी तरह उलटे काले-ग्रे धन को नवजीवन मिला।

कहने का मक़सद साफ़ है कि कमज़ोर तथा पिछड़े तबक़ों को नीतियों-कार्यक्रमों द्वारा ज़्यादा तरजीह, ज़्यादा भागीदारी और ज़्यादा लाभ दिये बिना सबका विकास नहीं हो सकता है।
नोटबन्दी की असफलता का वाक़या हमने पेश किया है। काले धन के अकू़त जख़ीरे के मालिक, कम्पनियों और राज्य शक्ति के अधिपति हैं। दोनों ने मिलकर क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी और मिले-जुले तरीक़ों द्वारा क़ानून, नैतिकता और मानवीय मूल्यों को ताक़ पर रख दिया। 
विश्लेषण से और ख़बरें

लाखों-हज़ारों कागजी नकली कम्पनियों जैसे हथकंडों के सहारे घोषित-अघोषित रूप से राष्ट्रीय सम्पदा के विशालतर होते भाग पर ये सफेदपोश सत्ता-सम्पदा स्वामी अपना अनैतिक कब्जा जमाते जा रहे हैं।

इस तरह सरकारी सोच के ठीक उलट इस क़दम की भारी घातक चोट दैनिक नक़दी लेनदेन और छोटे असंगठित क्षेत्र में लगे आम आदमी पर ज़्यादा लगी। काले, राख रंगी ग्रे धन का बिरवा (छोटा पौधा) जम कर फलफूल रहा है। इसी तरह हाल ही में आर्थिक कामों में भागीदारी यानी रोज़गार के देशव्यापी आँकड़ों को देखें। बढ़ती राष्ट्रीय आय में बहुत भारी-भरकम पूंजी निवेश और आयातित माल की मात्रा और अनुपात बढ़ते जा रहे हैं। नतीजतन रोज़गार वृद्धि पर ग्रहण लग रहा है।  उत्पादन और उपभोग दोनों में आदमी का हिस्सा घट रहा है। जीडीपी वृद्धि, विषमता वृद्धि का दूसरा नाम रह गया है। 

इस तरह बढ़ती राष्ट्रीय आय वास्तविकता में गहराती असमानता का दूसरा रूप है। यही नहीं, अर्थव्यवस्था को पटरी पर रखने के कई घिसे-पिटे क़दमों के साथ आम आदमी तथा किसान की मोटी तकलीफ़ों से बचाव की नीतियों का अच्छी जिन्दगी देने वाला असर दूर-दूर तक नज़र नहीं आता है। 

ना भागीदारी, ना विकास

सबका साथ (यानी सबकी भागीदारी), सबका विकास (यानी आमतौर पर वंचित-उपेक्षित लोगों के लाभ के सटीक कामों का ज़्यादा व्यापक और गहरा असर) किन्हीं भी अर्थों में नहीं दिखता है। इनके विपरीत बाजार का चरित्र धन्ना सेठों, विशाल कम्पनियों, विदेशी पूंजी तथा शहरी सम्पन्न लोगों से वाहवाही बटोरने के सरकारी कामों का असर शहरों, महंगे माल से अटे-पटे शाॅपिंग मॉलों तथा भव्य अट्टालिकाओं के रूप में त्रासद ग़ैर-बराबरी, ग़रीबी और अभावों की कहानी कहता है। इसे बेहतर हालात वाले लोगों की ज़्यादा बेहतरी और बदतर हालात में जिन्दा रहने को मज़बूर लोगों की पीठ पर ज़्यादा बोझ बढ़ाने के रूप में भी देखा जा सकता है। इस तरह की नीतियों, निर्णयों का एक ताज़ा और शर्मसार करने वाला नमूना अरबों-रूपयों के निवेश द्वारा संचालित हवाई-यात्रा कम्पनी जेट-एयरवेज को दिवालियेपन से बचाने के लिये सरकारी बैंकों द्वारा इस कम्पनी के गहरे गड्ढे में जनता का और ज़्यादा धन लगाने का सरकारी फरमान है। इसी तरह देश की एक सबसे बड़ी वित्तीय कम्पनी को भी आम जन के धन से बचाने की मुहिम चल रही है।

संबंधित ख़बरें
जेट एयरवेज नाम की एक हवाई जहाज़ कम्पनी अपने कर्मचारियों को वेतन नहीं दे पाती है। जहाज़ों की कीमत या उनके किराये की किश्त नहीं भर पाती है। वह जहाज़ों की दर्जनों उड़ानें रद्द करने को विवश है। अमीर-परस्त सरकार को इस स्थिति से बेहद चिन्ता होती है। कम्पनी के नियंत्रकों, मालिकों पर इस पतन का कोई बोझ नहीं पड़ रहा है। वह दंश तो शेष देश भुगत रहा है। 
कम्पनी को दिवालिया होने और कारोबार बन्द करने की नौबत से बचाने के लिये आनन-फानन में बैंकों को आज्ञा दी जाती है कि इस कम्पनी को डूबने से बचाने के लिये 1500 करोड़ रूपये का कर्ज दें।

कुल मिलाकर बिना पुराने कर्ज का एक भी पैसा चुकाये नये विशाल कर्ज की इस एयर कम्पनी को दी गई ‘भेंट’ हज़ारों करोड़ का अंक छू रही है। 

महंगे हवाई जहाज़ों को हैंगर्स में खड़ा कर दिया गया है। इन सम्पत्तियों को बेचकर बकायेदारों का भुगतान करना तो दूर, डूबते को और बढ़ाने के लिये, इसमें नया पैसा डालकर मानो एक जहाज कम्पनी को बचाना बड़ा राष्ट्रीय दायित्व है।

कम्पनी मालिकों की अकुशलता और उसके पीछे छिपे कारनामों की कोई तहक़ीक़ात किये बिना नये निवेश की सौगात बख्शी जा रही है। यह राष्ट्रप्रद है या एक व्यक्ति या परिवार की आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा?
यह कोई अकेली कहानी नहीं है। यह राज्य और उसकी नीतियों की जानबूझ कर चुनी गई राह का दुष्परिणाम है। याद कीजिये किस तरह 1991 में विशाल देसी-परदेशी कम्पनियों और पश्चिम के धनी देशों द्वारा भारत पर लादी गयी कर्जदारी के बोझ तले दबी भारतीय अर्थ-व्यवस्था को संसार भर की मोटी पूंजी का अभयारण्य (उनको अक़ूत मुनाफ़े का शिकार करने की आज़ादी देने वाला इलाक़ा) बना दिया गया था। हवाई जहाज से संबंधित निजी कम्पनियों को भारत के आकाश पर छा जाने की आज़ादी का निमंत्रण दे दिया गया था। 
जेट एयरवेज़ एक भारतवंशी की छत्रछाया में देश की एक विशाल निजी कम्पनी बन गया। एक व्यवसायी परिवार के पास इनकी पूंजी का बहुमत था। देश के कोने-कोने में ‘जेट’ का जाल फैल गया। अनेक नये रुट खोज दिये गये। क्या कम्पनियों को दिवालिया बनाने वालों की शान-शौकत में रत्ती भर भी कमी आती है?
ताज़ा ख़बरें

दूसरी ओर, चाहे गाँव-कस्बों में बसों की भीड़ बदस्तूर बढ़ती रहे, लोग बसों का इंतजार करते रहें और बस चालक और सवारियों को ठूंस-ठूंस कर, छतों पर बैठाकर बस चलायें। असुरक्षित और कष्टप्रद अपर्याप्त परिवहन सेवा दें। ऐसी ग्रामीण और शहरी बस सेवा को ज़रूरत के मुताबिक़, बढ़ाने के लिये ठीक और पर्याप्त व्यवस्था नहीं की गयी। संसाधनों का अभाव और घाटे का रोना रोया गया। किन्तु धनी-मनी लोगों को हवाई-यात्रा की सुख-सुविधा बदस्तूर जारी रहे, इस हेतु अरबों रूपये का निवेश होता रहा, यह कोशिश हुई कि एयर इंडिया में हज़ारों करोड़ रूपये फूंकने के बाद भी लाखों का वेतन पाने वालों को पगार नियमित मिलती रहे। दूसरी ओर चाहे करोड़ों युवक-युवतियाँ पहले रोज़गार तक की प्रतीक्षा में, असमय बुढ़ापे की ओर बढ़ते रहें।

मौसम की मार और बाज़ार की नादिरशाही तथा सरकारी नीतियों के नकारेपन के कारण उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में लाखों किसान निराश-हताश होकर अपने जीवन की डोर अपने ही हाथों काट चुके हैं। उनके बचाव और विकास की बात तो दूर, उनकी इज्जत और जिन्दगी बचाने की कोशिशें मात्र थोथे वादे भर रह गये। अब आप ही सोचें, क्या ऐसा ही होता है “सबका साथ, सबका विकास”?   
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
कमलनयन काबरा

अपनी राय बतायें

विश्लेषण से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें