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क्या दिल्ली जैसा जनादेश देंगे बिहार के मतदाता?

महात्मा बुद्ध से लेकर महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषों की कर्मस्थली रहा देश का सबसे प्राचीन और समृद्ध राज्य बिहार गत 15 वर्षों में हुए अनेक मूलभूत विकास कार्यों के बावजूद अभी भी देश के पिछड़े राज्यों में ही गिना जाता है। आज भी बिहार के शिक्षित व अशिक्षित युवा रोज़ी-रोटी की तलाश में देश के अन्य राज्यों में जाने के लिए मजबूर हैं। महाराष्ट्र जैसे राज्य में तो बिहार के लोगों की संख्या इतनी अधिक हो चुकी है कि क्षेत्रीय मराठा राजनीति करने वाले नेता उत्तर भारतीयों (विशेषकर बिहार के लोग) के विरोध के नाम पर ही मराठा मतों के ध्रुवीकरण की राजनीति करते हैं। 

यह भी सच है कि डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद से लेकर जय प्रकाश नारायण व कर्पूरी ठाकुर जैसे नेता इसी राज्य का प्रतिनिधित्व करते थे परन्तु इसके बावजूद अन्य राज्यों की तुलना में बिहार का विकास होना तो दूर उल्टा बिहार तेज़ी से पिछड़ता ही चला गया। लगभग 3 दशकों तक बिहार भ्रष्टाचार, पिछड़ेपन,अपराध, जातिवाद व बेरोज़गारी का दंश झेलता रहा। 

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बहरहाल, यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं कि जहाँ राज्य के शिक्षित युवाओं ने देश-विदेश में ऊँचे से ऊँचे पदों पर बैठकर राज्य का नाम रोशन किया तथा राज्य के मेहनतकश युवाओं, श्रमिक व खेती-किसानी करने वाले कामगारों ने भी अपने ख़ून-पसीने से राष्ट्र निर्माण में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की लेकिन राजनेताओं ने राज्य के विकास को लेकर गंभीरता नहीं दिखाई। 

बिहार में दशकों तक भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, राजनीतिक व प्रशासनिक लापरवाही व ढुलमुलपन का माहौल ज़रूर बना रहा। धर्म व जाति के नाम पर बिहार की भोली-भाली जनता को ठगा जाता रहा।

धीमी है विकास की गति 

निःसंदेह बिहार ने गत 15 वर्षों में तरक़्क़ी तो ज़रूर की है परन्तु अभी भी राज्य के विकास की गति अत्यंत धीमी है। स्कूल में जाने वाले बच्चों की संख्या ज़रूर बढ़ी है परन्तु शिक्षा के स्तर में सुधार नहीं हुआ है। विद्यालय भवन तथा अध्यापकों की कमी अभी भी राज्य में महसूस की जा रही है। इत्तेफ़ाक़ से अपनी राजनीतिक 'सूझ बूझ' की वजह से आज भी नीतीश कुमार ही राज्य के मुख्यमंत्री हैं परन्तु उनके मुख्यमंत्री बनने के इस सत्र में यही देखा जा रहा है कि उनका बिहार के विकास से भी ज़्यादा ध्यान व समय अपनी कुर्सी को 'येन केन प्रकारेण' बरक़रार रखने में लगा रहा। कभी कांग्रेस व राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिलकर महागठबंधन बनाया और बीजेपी के विरुद्ध चुनाव लड़कर जीत हासिल की। फिर इन्हीं सहयोगी दलों को ठेंगा दिखाकर बीजेपी के समर्थन की मिली-जुली सरकार बना डाली।

अब राज्य एक बार फिर इसी वर्ष अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव का सामना करने जा रहा है। राज्य के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में सबसे बड़े जनाधार वाले राजनीतिक दल राष्ट्रीय जनता दल की नैय्या डगमगा रही है। अपने जादुई व लोकलुभावन अंदाज़ के लिए अपनी अलग पहचान रखने वाले नेता लालू यादव इस समय जेल में हैं। उनकी राजनीतिक विरासत को उनके पुत्रगण ठीक ढंग से संभालते नहीं दिखते। 

क्या ‘पीके’ बनेंगे विकल्प?

कांग्रेस पार्टी कमोबेश उत्तर प्रदेश जैसी स्थिति में ही यहाँ भी है। और सबसे बड़ी बात यह कि स्वयं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी अब राज्य में विकास बाबू के नाम के बजाए 'पलटीमार' के नाम से जाना जाने लगा है। उधर, बीजेपी भी स्वभावतयः धर्मनिरपेक्ष विचारधारा रखने वाले इस राज्य में पूरी तरह से अपने पैर नहीं फैला सकी है। संभवतः इसी चतुष्कोणीय राजनीतिक द्वंद्व में से ही इस बार राज्य की जनता एक नया विकल्प प्रशांत किशोर के रूप में भी देख सकती है। पटना में संवाददाता सम्मलेन में 'पीके' ने अपने इरादों की झलक दिखा दी। उन्होंने जेडी (यू) से नाता तोड़ने के बाद पहली बार नीतीश कुमार पर उनकी राजनीतिक विचारधारा को लेकर हमला बोला। 

नीतीश कुमार हमेशा ही स्वयं को समाजवाद, गांधीवाद तथा राम मनोहर लोहिया व जय प्रकाश से प्रेरित मानते रहे हैं। परन्तु यह भी सच है कि उन्हें सत्ता के लिए बीजेपी जैसे दक्षिणपंथी संगठन से भी हाथ मिलाने में कभी कोई एतराज़ नहीं हुआ।

इस बार ‘पीके’ ने नीतीश से सीधे तौर पर यही सवाल पूछा है कि- “आप कहते थे कि महात्मा गाँधी, लोहिया व जय प्रकाश की बताई हुई बातों को आप नहीं छोड़ सकते। ऐसे में जब पूरे बिहार में आप गाँधी जी के विचारों को लेकर शिलापट लगा  रहे हैं और यहाँ के बच्चों को गाँधी की बातों से अवगत करा रहे हैं, उसी समय गोडसे के साथ खड़े हुए लोग अथवा उसकी विचारधारा को सहमति देने वालों के साथ आप कैसे खड़े हो सकते हैं?” प्रशांत किशोर का नीतीश पर किया गया यह हमला निश्चित रूप से उनके उस तथाकथित 'धर्मनिरपेक्ष आवरण' पर सवाल खड़ा करेगा जोकि नीतीश कुमार की असली पूँजी है।

'पीके' ने नीतीश कुमार के विकास के दावों पर भी यह कहते हुए सवाल उठाए हैं कि नीतीश जी को बिहार के विकास की तुलना अपने ही राज्य की पिछली स्थिति या लालू राज वाले बिहार से नहीं बल्कि महाराष्ट्र, पंजाब व कर्नाटक जैसे राज्यों से करनी चाहिए।

'पीके' ने राज्य में विकास की गति से लेकर प्रतिभाओं व कामगारों के पलायन पर भी सवाल उठाए। उन्होंने 20 फ़रवरी से ‘बात बिहार की’ नाम से एक अभियान की शुरुआत करने का निर्णय लिया है। उन्होंने कहा है कि इस अभियान के माध्यम से वह आगामी सौ दिनों में राज्य के एक करोड़ युवाओं से संपर्क साधेंगे। 

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माना जा रहा है कि केजरीवाल की ही तरह ‘पीके’ की भी पूरी राजनीति साफ़-सुथरी तथा बिहार के तेज़ी से समग्र विकास पर आधारित होगी। और  यदि राज्य की धर्मनिरपेक्ष जनता को कांग्रेस, आरजेडी व जेडी (यू) के बाद 'पीके' के नेतृत्व में इस पारम्परिक परन्तु पुराने व कमज़ोर पड़ चुके नेतृत्व के रिक्त स्थान को भरने की क्षमता नज़र आई तो कहा जा सकता है कि बिहार भी वैसा ही जनादेश देगा जैसा दिल्ली के मतदाताओं ने दिया है।
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निर्मल रानी

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