दरभंगा में 200 एकड़ ज़मीन में 1264 करोड़ रुपए की लागत से 750 बेड का एम्स यानी ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज बनाये जाने की घोषणा कितनी सुखद लगती है। यह प्रस्ताव केन्द्रीय कैबिनेट ने 15 सितंबर को मंजूर किया तो किसी को भी आने वाले चुनाव का ख्याल आ सकता है। चूँकि इसके बनने में लगने वाला समय चार साल बताया गया है, इसलिए यह भी संभव है कि अगले चुनाव में भी इसका इस्तेमाल हो। ध्यान रहे कि बिहार के लिए यह दूसरा एम्स होगा, पहला पटना में है जो पटना हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद आठ साल में बनकर तैयार हुआ था।
उद्घाटन के आठ साल के बाद इससे पटना के दोनों बड़े सरकारी अस्पतालों आईजीआईएमएस और पीएमसीएच का भार तो कम हुआ लेकिन हैरत की बात यह है कि अब भी एम्स, पटना से मरीज़ इन्हीं दोनों अस्पतालों में रेफर किये जाते हैं। चाहे दाँत की गंभीर बीमारी हो या दिल के इलाज का मामला हो, एम्स, पटना आत्मनिर्भर नहीं बन पाया है। एम्स के सूत्रों के अनुसार हृदय रोग और कैंसर रोग समेत कम से कम आधा दर्जन विभाग ऐसे हैं जिसकी शुरुआत यहाँ अब तक नहीं हुई है।
बिहार की सेहत पर चर्चा एम्स से शुरू करने की एक वजह यह है कि इससे यह पता चलता है कि अस्पताल बनाने और चलाने के लिए सरकार पैसे दे रही है। यह योजना नेशनल हेल्थ मिशन के तहत होना है। इसी तरह 2005 में नेशनल रूरल हेल्थ मिशन या एनएचआरएम के बाद से बिहार में स्वास्थ्य सेवाओं का ढाँचा खड़ा करने के लिए फंड की अच्छी व्यवस्था हो गयी थी।
सन 2005 से पहले बिहार में सरकारी अस्पतालों की हालत विपक्षी नेताओं के शब्दों में खंडहर जैसी थी। अस्पतालों की बिल्डिंग जर्जर थी, बिजली नहीं रहती थी, दवाएँ नहीं मिलती थीं और डॉक्टर-नर्स भी नहीं रहते थे। बड़े अस्पतालों को छोड़ दें तो ज़िला और प्रखंड के अस्पताल किसी काम के लायक नहीं थे। दिलचस्प बात यह है कि बिहार में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव भी अब इसी तरह की आलोचना करते हुए कहते हैं कि बिहार के अस्पतालों में रूई और सूई के अलावा कुछ नहीं मिलता।
नीति आयोग की पिछले वर्ष जारी रिपोर्ट में बिहार की सेहत की रैंकिंग 19वीं थी। नीति आयोग की इस रैंकिंग के लिए आधार वर्ष 2015-16 लिया गया है लेकिन बिहार की रैंकिंग इसके बाद टीकाकरण जैसे अपवादों को छोड़कर ख़राब ही हुई है।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और विश्व बैंक द्वारा संयुक्त रूप से तैयार इस रैंकिंग में बिहार को आधार वर्ष में 33 दशमलव 69 अंक मिले थे मगर अगले वर्ष यह 32 दशलव 11 अंक हो गये।
नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार बिहार की ख़राब रैंकिंग का कारण कुल प्रजनन दर, जन्म के समय नवजात का कम वजन, ख़राब लैंगिक अनुपात, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन से मिले पैसे के स्थानांतरण में लिया गया समय और सार्वजनिक स्वास्थ्य केन्द्रों के मानकीकरण में कोताही है।
अख़बार द हिन्दू बिजनेस लाइन की रिपोर्ट के अनुसार बिहार ने नेशनल हेल्थ मिशन से 3300 करोड़ रुपये केन्द्र से माँगे लेकिन पिछले वर्ष तक इसकी आधी राशि ही इस्तेमाल कर पायी थी। वैसे, बिहार का अपना स्वास्थ्य बजट 10 हज़ार 937 करोड़ रुपए से अधिक है। इसके बावजूद बिहार में डाॅक्टरों और अन्य चिकित्साकर्मियों के पद बड़े पैमाने पर खाली हैं। स्वास्थ्य कर्मियों के सगंठनों के अनुसार बिहार में साढ़े ग्यारह हज़ार डाॅक्टरों के पद में से आधे खाली थे, इनमें से क़रीब तीन हज़ार पद हाल ही में भरे गये हैं। एएनएम के 60 फ़ीसदी से अधिक पद खाली हैं यानी किसी अस्पताल में अगर दस एएनएम की ज़रूरत है तो वहाँ महज चार ही उपलब्ध हैं। इसी तरह स्टाफ़ नर्सों की संख्या भी दस में छह ही है।
क्या स्टाफ़ की स्थिति सुधरी
बिहार में लंबे समय से जन स्वास्थ्य से जुड़े डॉक्टर शकील कहते हैं कि सेहत के लिए जो स्टाफ़ और साजो सामान होना चाहिए, उसमें 2005 और 2020 के लिहाज़ से बहुत फर्क नहीं है।
उनके अनुसार बिहार में इस समय 72 सीएचसी यानी कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर हैं, जो मानक के अनुसार 1100 होने चाहिए। इसी तरह वह आईसीयू के लिए एनेस्थेसिस्ट की कमी का उदाहरण देते हैं। कई जगह भाड़े के एनेस्थेसिस्ट से काम चलाया जा रहा है।
बिहार राज्य स्वास्थ्य सेवा संघ के महासचिव डॉक्टर रंजीत कहते हैं कि एनआरएचएम और एनएचएम से जो पैसे सरकार को मिले, उनका सही इस्तेमाल होता तो बिहार में स्वास्थ्य क्षेत्र की हालत काफ़ी बेहतर होती। वह कहते हैं कि नये डाॅक्टरों की बहाली की जगह सरकार ने डाॅक्टरों की रिटायरमेंट की उम्र 60 से बढ़ाते-बढ़ाते 67 कर दी और अब ऐसे डाॅक्टर अपने जूनियर से कहते हैं- ‘बउआ देख लेना, तीस साल से मरीज देख रहे हैं, अब कितना देखें’। उनके अनुसार सरकार को स्टाफ़ की बहाली और इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास पर पैसे लगाने चाहिए थे मगर पता नहीं पैसे कहाँ गये। वह ठेके पर डाॅक्टरों की बहाली को भी स्वास्थ्य सेवा में गिरावट का बड़ा कारण मानते हैं। उनका कहना है कि ठेके पर बहाल डाॅक्टर के पास कोई जाॅब सिक्योरिटी नहीं होती है तो मौक़ा मिलते ही वे नौकरी छोड़ देते हैं।
डाॅक्टर रंजीत कहते हैं कि मेडिकल जाँच में पीपी यानी पब्लिक-प्राइवेट मोड भी बहुत कामयाब नहीं हुआ है। इसी कारण सदर अस्पतालों और कुछ मेडिकल काॅलेजों में भी बुनियादी जाँच की सुविधा अक्सर किसी न किसी वजह से बंद मिलती है। कई अस्पतालों में अल्ट्रासाउंड और ब्लड शुगर तक जाँचने की सही व्यवस्था नहीं है।
भाजपा के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के उस दौर को छोड़ दें जब उन्होंने राजद के साथ सरकार बनायी और लालू प्रसाद के बड़े पुत्र तेज प्रताप स्वास्थ्य मंत्री बने, तो बाक़ी सभी स्वास्थ्य मंत्री बीजेपी के कोटे से थे। उनके पहले स्वास्थ्य मंत्री चंद्रमोहन राय के काम की अब भी तारीफ़ होती है लेकिन उन्हें क्यों हटाया गया, यह सबके लिए रहस्य है।
कोरोना क्राइसिस
कोरोना संक्रमण की शुरुआत में जब कोविड 19 बीमारी से अधिक बदनामी का कारण था और लाॅकडाउन में लोगों का सफर मुहाल था तो बेहद दर्दभरे मामले सामने आये। पीएमसीएच के एक डाॅक्टर अपनी पत्नी को लेकर एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भागते रहे लेकिन आख़िरकार उनकी बिना इलाज के मौत हो गयी। जहानाबाद में अस्पताल द्वारा एंबुलेंस न देने की वजह से अपने मरे बच्चे को पैदल ले जा रही एक माँ का वीडियो वायरल हुआ था। उस समय कुछ मेडिकल काॅलेजों को कोविड अस्पताल बना दिया गया था और बाक़ी जगह ओपीडी सेवा बंद कर दी गयी थी। ऐसी हालत में अस्पतालों में प्रसव बंद हो गये और गंभीर बीमारी वाले लोगों को बिना दवा या कामचलाउ दवा के सहारे जीना पड़ा।
इसके बाद बिहार सरकार ने कोरोना जाँच की संख्या तो बढ़ाई लेकिन ज़्यादा प्रामाणिक माने जाने वाली आरटी पीसीआर के बजाय रैपिड एंटीजन और ट्रूनैट से जाँच को प्राथमिकता दी। कई जगह आइसोलेशन वार्ड भी बनवाये मगर उन जगहों के लिए डाॅक्टरों और अन्य चिकित्साकर्मियों की व्यवस्था नहीं हो सकी। बिहार में एक कहावत है, ‘ई कोठी का धान उ कोठी में’ यानी एक ही डाॅक्टर की तैनाती अलग-अलग ज़रूरत के तहत की जाती रही।
हाल ही में रिटायर हुए एक सिविल सर्जन का कहना है कि बिहार में कितने लोगों को कोरोना हुआ और कितने लोग इससे अनजान रहकर ठीक हो गये, इसका कोई हिसाब किसी के पास नहीं है।
कोरोना से पहले कालाजार और चमकी बुखार
बिहार के स्वास्थ्य अधिकारी और नेता कोरोना को वैश्विक बीमारी कहकर अपनी मजबूरी जाहिर कर सकते हैं लेकिन इससे पहले उत्तर बिहार को बारी-बारी से कालाजार और चमकी बुखार का सामना करना पड़ा। चमकी बुखार से इस साल तो बच्चों की मौत कम हुई लेकिन कुल मिलकार स्थिति अच्छी नहीं रही। इसी तरह 2012 में मुजफ्फरपुर के अलावा गया ज़िले में भी चमकी बुखर से काफ़ी बच्चों की जान गयी थी।
स्वास्थ्य घोटाले
बिहार की सेहत की चर्चा में पिछले पंद्रह सालों में हुए घोटाले का उल्लेख भी ज़रूरी मालूम होता है। पिछले माह अगस्त में मुजफ्फरपुर से एक ख़बर आयी कि अस्पतालों में प्रसव के नाम पर बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़ा किया गया है। इसमें अस्पताल और बैंक के लोगों की मिलीभगत से ऐसी एक हज़ार से अधिक महिलाओं के नाम पर संस्थागत प्रसव प्रोत्साहन की राशि निकाल ली गयी जिनकी प्रजनन क्षमता कब की ख़त्म मानी गयी है। इससे पहले बच्चेदानी निकालने का घोटाला भी काफी चर्चित रहा जो हाईकोर्ट तक पहुँचा था।
चुनाव के समय बिहार में स्वास्थ्य के क्षेत्र में उपलब्धि गिनाने के लिए सरकार के पास शायद उतनी बातें नहीं हों जितनी कि उन्हें समस्याओं का सामना है। ऐसे में अगर 2005 की बातें फिर दोहरायी जाती हैं तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए।
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