दो सितंबर को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने अचानक एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई तो पटना के पत्रकार यही समझते हुए उनके घर पहुंचे कि एक दिन बाद नीतीश कुमार के साथ जाने के उनके इरादे में कोई तब्दीली तो नहीं हो गयी। मांझी की पार्टी हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) के प्रवक्ता ने एलान कर रखा था कि उनकी पार्टी तीन सितंबर को एनडीए में शामिल होगी। मांझी ने इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक दिन पहले ही नीतीश कुमार के साथ जाने की घोषणा कर दी।
आम तौर पर समझा यह गया कि मांझी ने एनडीए में शामिल होने का एलान किया है लेकिन उनकी बात ध्यान से सुनने पर मालूम होता है कि उन्होंने अपने मोर्चे का गठबंधन जेडीयू से होने की बात कही है। मांझी ने उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि वे जेडीयू के साथ मिल-जुलकर चुनाव लड़ेंगे।
मांझी की बात में यहां से राजनीतिक चतुराई शुरू होती है। वे कहते हैं, ‘चूंकि नीतीश कुमार एनडीए के अंग हैं, इसलिए हम भी एनडीए के पार्टनर हैं लेकिन हम जेडीयू के साथी व नीतीश कुमार के नजदीकी बने रहेंगे।’
जीतन राम मांझी 2014 में नीतीश कुमार की राजनीतिक नैतिकता की बेबसी में बिहार के मुख्यमंत्री बन तो गए लेकिन वे लालू प्रसाद की पत्नी राबड़ी देवी की तरह नहीं बन सके। वे एक तरह से नीतीश कुमार के मेहमान मुख्यमंत्री थे मगर अपनी चलाना चाहते थे। हालात ‘अतिथि देवो भवः’ से 'अतिथि तुम कब जाओगे' तक पहुंचने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। मुख्यमंत्री पद का उनका यह स्वप्निल सफर नौ माह में ही मंज़िल से पहले समाप्त हो गया था।
मांझी की सफाई
प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जेडीयू से गठबंधन में जल्दबाजी को लेकर मांझी ने बहुत दिलचस्प जवाब दिया। मांझी ने कहा, ‘हमने 20 अगस्त को गठबंधन से अलग होने का फ़ैसला कर लिया था। उसके बाद आप लोगों यानी पत्रकारों की जिज्ञासा थी कि अगला कदम क्या रहेगा। हमने कहा कि हम जल्दबाजी में ऐसा कोई निर्णय नहीं लेंगे।’
मांझी ने कहा, ‘हमने तीन सितंबर को निर्णय लेने का मन बनाया था लेकिन हम अपने क्षेत्र का दौरा कर पटना लौटे तो लगा कि जल्दबाजी में तो नहीं लेकिन जो अच्छा काम होता है वह शीघ्र हो जाए, इसीलिए हमने आज यानी एक दिन पहले दो सितंबर को ही यह एलान कर दिया।’
बिन बुलाये मेहमान हैं मांझी?
मांझी ने महागठबंधन से अलग होने का एक कारण यह भी बताया था कि महागठबंधन में को- ऑर्डिनेशन कमेटी नहीं बनी लेकिन जब वे खुद वाया नीतीश कुमार एनडीए के पार्टनर बने तो ऐसी किसी कमेटी ने इसका नोटिस नहीं लिया। आमतौर पर किसी पार्टी या गठबंधन में शामिल होने के समय जो माहौल होता है, वह उनकी घोषणा के वक्त तो बिल्कुल नहीं था। एनडीए की कोई कमेटी या उसका कोई घटक दल उनके इस एलान के वक्त वहां मौजूद नहीं था।
ऐसे में क्या यह कहना सही नहीं होगा कि मांझी एनडीए में बिन बुलाये मेहमान हैं!
वरिष्ठ पत्रकार अब्दुल कादिर की राय है कि एनडीए में शामिल राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) मांझी के एनडीए में शामिल होने को लेकर तो असहज होगी ही, इसकी सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी में भी एक जैसी राय नहीं है।
कादिर ने कहा, ‘पहली बात तो यह है कि एनडीए की ओर से मांझी के बारे में कोई बयान नहीं आया है और मांझी खुद नीतीश कुमार की जेडीयू के साथ गठबंधन की बात कह रहे हैं, वह भी जेडीयू के किसी आधिकारिक बयान के बिना। इससे एनडीए में उनकी स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है।’
विलय की भी चर्चा
जीतन राम मांझी ने कांग्रेस से राजनीति शुरू की और करीब एक दशक बाद जनता दल में शामिल हो गये। लगभग पांच साल यहां रहने के बाद लालू प्रसाद के राष्ट्रीय जनता दल का दामन थाम लिया। इन तीनों दलों की सरकार में मंत्री बने और 2005 में जेडीयू को अपना आश्रय बनाया। यहां उन्होंने मंत्री से मुख्यमंत्री तक का सफर तय किया मगर दस साल बाद पहली बार उन्हें किसी दल ने निकाल दिया तो उन्होंने जेडीयू के दो प्रमुख नेताओं और पूर्व मंत्रियों- शाहिद अली खान और अनिल कुमार के साथ मिलकर अलग मोर्चा बनाया और उसका नाम रखा हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर)।
जब मांझी महागठबंधन से अलग हुए तो इस बात की जोरदार चर्चा थी कि उनकी पार्टी का जेडीयू में विलय होगा हालांकि पार्टी प्रवक्ता इससे इनकार करते रहे। खुद मांझी ने कहा कि विलय जैसी कोई बात नहीं है और उनकी कोई शर्त भी नहीं है।
चुनाव चिह्न की समस्या
सवाल यह है कि पांच साल तक एक पार्टी का अध्यक्ष रहने के बाद आखिर इस पार्टी की जेडीयू में विलय की चर्चा क्यों हुई। मांझी 75 साल की उम्र में ऐसा क्यों चाहेंगे? जानकार बताते हैं कि मांझी की पार्टी में शामिल लोगों के लिए चुनाव चिह्न का संकट होने वाला है। पहले उनका चुनाव चिह्न टेलीफोन था मगर अब अगर इसके सदस्य चुनाव लड़ते हैं तो उन्हें निर्दलीय लड़ना होगा और अगर पार्टी सिंबल चाहिए तो जेडीयू में विलय करना होगा। हालांकि मांझी अबतक जेडीयू में विलय से इनकार करते रहे हैं लेकिन चुनावी ज़रूरत के तहत उन्हें ऐसा करने पर विचार करना पड़ सकता है।
चुनाव लड़ेंगे मांझी?
गैर राजनैतिक लोग हमेशा यह शिकायत करते हैं कि राजनेता रिटायर क्यों नहीं होते। मांझी ने इसके लिए 75 साल की उम्र तय की है और चूंकि वे खुद 75 के हो गये हैं, इसलिए अब चुनाव नहीं लड़ना चाहते। उनका कहना है कि उनकी 80 प्रतिशत सोच है कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे। लेकिन इस बाकी 20 प्रतिशत में ही एक पेच है।
मांझी कहते हैं कि अगर उनके कार्यकर्ता-नेता और जेडीयू के लोग कहेंगे तो वे चुनाव लड़ेंगे। 2015 में मांझी दो जगह- मखदूमपुर और इमामगंज से चुनाव लड़े थे और मखदूमपुर से ही जीत सके थे। इस बार इमामगंज में उन्हें आरजेडी के उम्मीदवार और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी से फिर जोरदार टक्कर मिलने का अंदाजा होगा।
बिहार की चुनावी राजनीति पर नजर रखने वाले जानकार बताते हैं कि मांझी का बार-बार इस बात पर जोर डालना कि उनका गठबंधन जेडीयू से होगा, वास्तव में एलजेपी की उस बात का जवाब है जिसमें वह कहती है कि उसका गठबंधन बीजेपी के साथ है।
जेडीयू के सूत्रों का कहना है कि यह समझना मुश्किल नहीं कि एलजेपी के चिराग पासवान आखिर क्यों नीतीश सरकार के ख़िलाफ़ बयान दे रहे हैं। उनके अनुसार अगर बीजेपी चिराग पासवान की खातिरदारी इस वजह से कर रही है तो नीतीश कुमार भी इसी वजह से मांझी की मेहमान नवाजी कर रहे हैं।
नीतीश को मांझी की ज़रूरत इसलिए भी थी क्योंकि फुलवारी शरीफ से जेडीयू के टिकट पर विधायक बने पूर्व मंत्री श्याम रजक आरजेडी में शामिल हो गये थे तो उनके पास एक दलित चेहरे की कमी हो गयी थी। मांझी के जरिए नीतीश कुमार उस कमी को पूरी करने की नीति पर चल रहे हैं।
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