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बच्चों की मौतें: सरकारी लापरवाही को लीची से ढकने की कोशिश?

क्या बिहार में 145 से ज़्यादा बच्चों की मौत के लिए लीची ज़िम्मेदार है? कहीं इस सवाल के पीछे सरकार और इसके स्वास्थ्य महकमे की बड़ी लापरवाही को छुपाने की कोशिश तो नहीं? यह सवाल इसलिए कि बीजेपी के नेता राजीव प्रताप रूड़ी ने लोकसभा में यह मुद्दा उठाया है कि बच्चों की मौत के लिए लीची को ज़िम्मेदार बताकर इसको ‘बदनाम’ करने की साज़िश है और इसकी जाँच कराई जाए। तो कौन हैं जो बच्चों की मौत के लिए लीची को ज़िम्मेदार बता रहे हैं? डॉक्टर क्या मानते हैं? क्या डॉक्टर भी लीची को ही मौत का कारण मानते हैं?

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वायरल या बैक्टीरिया संक्रमण से इंसेफेलाइटिस बीमारी होती है। इसमें संक्रमण के कारण मस्तिष्क की कोशिकाओं में सूजन आ जाती है। लेकिन इस बीमारी से मौत के जो मामले सामने आ रहे हैं उसमें एक सच यह भी है कि इस बीमारी की चपेट में सबसे ज़्यादा ग़रीब बच्चे ही आ रहे हैं। अगर दिमागी बुखार से होने वाली मौतों की रिपोर्ट को देखें तो पता चलता है कि ज़्यादातर बच्चे कुपोषण या खाली पेट रहने की वजह से इसकी चपेट में आए थे। डॉक्टर भी कुपोषण को सबसे बड़ा कारण मानते हैं। हालाँकि वे यह भी कहते हैं कि लीची के कारण ऐसे मामले बढ़ गए हैं।

लीची पर ‘द लांसेट ग्लोबल’ की रिपोर्ट

द लैंसेट ग्लोबल हेल्थ ने 2016 में लीची पर एक शोध प्रकाशित की थी। भारत के द नेशनल सेंटर फ़ॉर डिज़ीज़ कंट्रोल और अमेरिका के सेंटर्स फ़ॉर डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन द्वारा कराए गए इस शोध में इसकी ‘पुष्टि’ हुई थी कि लीची में मेथिलीन साइक्लोप्रोपाइल ग्लाइसीन (एमसीपीजी) रसायन होता है। इसमें यह भी कहा गया था कि जब एक बच्चा कुपोषित होता है तो उसके शरीर, पाचन तंत्र और लीवर से ग्लूकोज़ ख़त्म हो चुका होता है। तब आमतौर पर मस्तिष्क को ब्लड शूगर की आपूर्ति करने के लिए फ़ैटी एसिड की जैव रासायनिक प्रक्रिया शुरू हो जाती है। ऐसी स्थिति में लीची खाने पर इसमें मौजूद एमसीपीजी ब्लड शूगर बनाने की प्रक्रिया को रोक देती है। इससे मस्तिष्क को हाइपोग्लाइकेमिक आघात लगता है और कन्वल्सन यानी ऐंठन होती है। इससे मौत भी हो सकती है। यही कारण है कि कई रिपोर्टों में लीची को ही इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया है। लेकिन डॉक्टरों की मानें तो इस बीमारी के लिए बड़ा कारण कुछ और है।

'लीची को दोष न दें'

1984 से मुज़फ़्फ़रपुर में काम कर रहे बाल रोग विशेषज्ञ और निजी चिकित्सक डॉ. अरुण शाह कहते हैं कि कृपया लीची को दोष न दें। क्योंकि कई ऐसे बच्चे भी आए हैं जिन्होंने लीची खाई ही नहीं है। ऐसे मामले कुपोषित बच्चों के ही आ रहे हैं। ‘द हिंदू’ ने डॉक्टरों से बातचीत के आधार पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। डॉ. शाह के हवाले से रिपोर्ट में कहा गया है कि लीची सिर्फ़ एक कारण हो सकता है, लेकिन बड़ा कारण कुपोषण और ख़राब स्वास्थ्य व्यवस्था है।

एक तर्क यह भी है कि जब उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में इंसेफेलाइटिस का प्रकोप था तो वहाँ लीची कारण नहीं थी। देश के कई राज्यों में भी इंसेफेलाइटिस के मामले आते रहे हैं। उन राज्यों में लीची का चलन उतना नहीं है और आसानी से उपलब्ध भी नहीं होती है।

मुज़फ़्फ़रपुर के एसकेएमसीएच में बीमार बच्चों के कई माता-पिता साफ़ तौर पर कहते हैं कि उनके बच्चों ने लीची नहीं खाई थी। द लांसेट अध्ययन के लेखकों ने भी पाया था कि बीमार बच्चों में से दो-तिहाई बच्चे ही थे जिन्होंने लीची खाई थी। 

कुपोषित बच्चों में लीची से बढ़ जाता है ख़तरा 

रिपोर्ट के अनुसार चिकित्सक अरुण शाह ज़ोर देकर कहते हैं कि ब्रेन डैमेज यानी मस्तिष्क क्षति वाले कुपोषित बच्चों के लीची, विशेषकर अधपकी और ज़्यादा पकी लीची खाने से इंसेफेलाइटिस के मामले और मृतकों की संख्या बढ़ी है। द लांसेट की रिपोर्ट में भी कहा गया था कि इंसेफेलाइटिस का ख़तरा तब और बढ़ जाता है जब इन कुपोषित बच्चों को रात में भोजन नहीं मिला होता है और दूसरे दिन सुबह अपनी भूख मिटाने के लिए वे बाग़ानों में गिरी हुई अधपकी और ज़्यादा पकी लीची उठाकर खा लेते हैं।

‘द हिंदू’ की रिपोर्ट में ज़िक्र है कि 2014 के एक शोध में शाह और वायरोलॉजिस्ट टी. जैकब जॉन ने तर्क दिया था कि मुज़फ़्फ़रपुर में बच्चों में ब्लड शूगर बहुत ही कम पाई गई थी जिसमें ब्रेन डैमेज के संकेत पाए गए थे। ऐसे में लीची खाने से सिर्फ़ ख़तरा बढ़ जाता है और इसका बड़ा कारण कुपोषण ही है। 

लीची में एमसीपीजी होने पर भी विवाद

हालाँकि लीची में एमसीपीजी के होने पर भी अलग-अलग तर्क हैं। द लांसेट ग्लोबल हेल्थ के अनुसार, लीची में एमसीपीजी रसायन होता है। हालाँकि, मुज़फ़्फ़रपुर स्थित लीची अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. विशाल नाथ की अलग राय है। 'अमर उजाला' ने डॉ. विशाल नाथ की प्रतिक्रिया छापी है। इसमें डॉ. नाथ कहते हैं,  'लीची के पल्प को कई बार जाँच के लिए भेजा जा चुका है। पल्प में एमसीपीजी की मात्रा नहीं है। ऐसे में यह कहना कि लीची के सेवन से बच्चों में यह बीमारी हो रही है, ग़लत है।'

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स्वास्थ्य व्यवस्था ज़्यादा ही ख़राब

इंसेफेलाइटिस से बच्चों की मौतों के लिए कुपोषण को सबसे बड़ा कारण मानने वाले डॉक्टरों का कहना है कि बिहार में स्वास्थ्य व्यवस्था बहुत ही ख़राब है। बता दें कि सरकारी अस्पतालों में बदइंतज़ामी है। बेड कम हैं। डॉक्टरों और स्टाफ़ की कमी है। दवाइयों की उपलब्धता भी ठीक नहीं है। यही कारण है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य सूचकांक में बिहार निचले पायदान पर है। 2015-2016 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएचएफएस) के अनुसार, बिहार में 48% बच्चों की मौत हुई, जबकि राष्ट्रीय औसत 38% था। बिहार ने बच्चों और गर्भवती महिलाओं को पौष्टिक भोजन प्रदान करने वाली योजनाओं को लागू करने के मामले में भी ख़राब प्रदर्शन किया। एनएचएफएस की रिपोर्ट में कहा गया है कि दो-तिहाई पात्र बच्चों को स्वस्थ भोजन नहीं मिला।

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क़मर वहीद नक़वी

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