क्या बिहार बीजेपी के प्रभारी भूपेंद्र यादव सुपर सीएम के रोल में आ गये हैं और नीतीश कुमार को लगभग हर फ़ैसले के लिए उनकी ‘हां’ या हरी झंडी का इंतजार करना पड़ रहा है। बिहार में सत्ता के गलियारों में ये सवाल तैरने लगा है। बिहार में सरकार बनने के बाद जो फ़ैसले 28 दिन तक रुके रहे, वे भूपेंद्र यादव के पटना पहुंचने के तुरंत बाद लिये जाने लगे। सवाल ये उठ रहा है कि क्या भूपेंद्र यादव की मंजूरी के बाद ही सारे अहम फ़ैसले लिये जा रहे हैं?
भूपेंद्र यादव नई सरकार के गठन के बाद वापस लौट गये थे। पार्टी ने उन्हें हैदराबाद में नगर निगम चुनाव का प्रभारी बनाया था, वे वहीं कैंप कर रहे थे। हैदराबाद चुनाव खत्म होने के बाद वे किसान आंदोलन में लगे और फिर गुजरात की यात्रा पर निकल गये। भूपेंद्र यादव गुजरात बीजेपी के भी प्रभारी हैं।
रविवार की शाम भूपेंद्र यादव वापस बिहार लौटे और लगा कि पूरी सरकार एक्शन में आ गयी है। कैबिनेट की बैठक हुई और सरकार ने अगले पांच सालों के लिए अपना एजेंडा तय किया।
बिहार में नई विधानसभा का गठन तो हो गया था लेकिन विधानसभा की कमेटियों का गठन नहीं हो पा रहा था। यादव रविवार को पटना पहुंचे और सोमवार को विधानसभा की समितियों का भी एलान हो गया।
नहीं हुई कैबिनेट की बैठक
बिहार में 16 नवंबर को नीतीश कुमार की नयी सरकार बनी थी। अगले दिन यानी 17 नवंबर को कैबिनेट की औपचारिक बैठक हुई जो संवैधानिक बाध्यता थी। उसके बाद से कैबिनेट की बैठक हुई ही नहीं और इसे लेकर सत्ता से जुड़े हुए लोग हैरान थे। नीतीश के राज में ये अजूबा वाक़या था जब हर सप्ताह होने वाली कैबिनेट की बैठक चार सप्ताह तक नहीं हुई।
भूपेंद्र यादव को अहमियत
एक बीजेपी नेता के कहा, उनकी शर्तों के मुताबिक़ सरकार चलाने के लिए नीतीश कुमार ने एजेंडा तैयार करवा लिया था लेकिन इस पर फाइनल मुहर बीजेपी को ही लगानी थी। कहा जा रहा है कि बिहार सरकार में दो डिप्टी सीएम समेत जो भी दूसरे नेता बीजेपी की नुमाइंदगी कर रहे हैं उनकी इतनी हैसियत नहीं थी कि वे इस एजेंडे को हरी झंडी देते, लिहाजा भूपेंद्र यादव के बिहार आने का इंतजार किया गया।
नवंबर के आखिर में कैबिनेट का विस्तार होना था। कहा जा रहा है कि चूंकि भूपेंद्र यादव बिहार से बाहर थे लिहाजा कैबिनेट विस्तार पर बीजेपी फ़ैसला नहीं ले पायी। नतीजा ये हुआ कि नीतीश कैबिनेट का विस्तार नहीं हो पाया।
मंत्रियों की मुश्किल
अब हालात ये हैं कि नीतीश के जिन पांच मंत्रियों ने शपथ ली थी, उनके पास विभागों का अंबार है। लेकिन उनमें से एक मेवालाल चौधरी को इस्तीफा देना पड़ा। विजय चौधरी और अशोक चौधरी जैसे मंत्री एक साथ कई विभाग संभाल रहे हैं। वे जानते हैं कि जिन विभागों का काम वे अभी देख रहे हैं उनमें से कई को दूसरे मंत्री को देना है, लेकिन कौन सा विभाग उनके पास रहेगा या नहीं, उन्हें पता ही नहीं है। लिहाजा मंत्री सिर्फ रस्म अदायगी कर रहे हैं।
बीजेपी का जबरदस्त दख़ल
नयी विधानसभा के गठन के बाद विधानसभा की समितियों का गठन किया जाता है। 22 समितियों के सभापति चुनने के साथ-साथ विधायकों को उसका सदस्य बनाया जाता है। विधानसभा के अस्तित्व में आने के बाद ही समितियों का भी गठन हो जाता है, इन समितियों के आधार पर ही विधायकों को यात्रा भत्ता मिलता है। लेकिन विधानसभा की समितियों का भी गठन तभी हुआ जब भूपेंद्र यादव पटना पहुंचे।
बिहार की राजनीति की नब्ज समझने वाले बताते हैं कि बीजेपी ने इस दफ़ा नीतीश कुमार पर पूरी तरह प्रेशर बना कर रखा है और नीतीश इतनी बेबसी में कभी नहीं रहे। पिछले 15 सालों में सरकार उनकी मर्जी से ही चलती रही लेकिन इस बार बीजेपी उन्हें फ्री हैंड देने को तैयार नहीं है।
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