नौशाद, हिंदी सिनेमा के ऐसे जगमगाते सितारे हैं जो अपने संगीत से आज भी दिलों को मुनव्वर करते हैं। अपने नाम के ही मुताबिक़ नौशाद का संगीत सुनकर, उनके चाहने वालों को एक अजीब सी खुशी, मसर्रत मिलती है। दिल झूम उठता है। हिंदी सिनेमा की शुरुआत को हुए एक सदी से ज्यादा गुजर गया, लेकिन कोई दूसरा नौशाद नहीं आया। नगमा-ओ-शेर की जो सौगात उन्होंने पेश की, कोई दूसरा उसे दोहरा नहीं पाया। फिल्मी दुनिया के अंदर थोड़े से ही वक्फे में नौशाद ने बड़े-बड़े नामवरों के बीच नामवरी हासिल कर ली थी। लेकिन इस कामयाबी की कहानी मुख्तसर नहीं है, बल्कि इसके पीछे उनका एक लंबा संघर्ष और फिल्म-संगीत के प्रति उनकी हद दर्जे की दीवानगी थी। जिसने उन्हें फिल्मी संगीत का बेताज बादशाह बना दिया।
25 दिसम्बर, 1919 को उत्तर भारत के नवाबों की नगरी लखनऊ में जन्मे नौशाद अली को संगीत से शुरुआत से ही लगाव था। संगीत की स्वर लहरी उन्हें अपनी ओर खींचती थी। शहर के अमीनाबाद इलाक़े में उस वक़्त एक रॉयल टॉकीज था जिसमें हिन्दी फ़िल्मों का प्रदर्शन होता रहता था। होने को वह दौर साइलेंट फिल्मों का था, लेकिन जनता के मनोरंजन की खातिर बीच-बीच में पर्दे के पीछे से स्थानीय आर्टिस्ट, ऑर्केस्टा के मार्फत गीत-संगीत पेश करते थे। जिसे जनता ख़ूब पसंद करती थी। नौशाद भी जब इस इलाक़े से गुजरते, तो इस गीत-संगीत की गिरफ्त में आ जाते। वह वहीं खड़े-खड़े यह संगीत सुना करते और यह उनका रोज का दस्तूर हो गया था।
बहरहाल, संगीत सुनते-सुनते, अब उन्हें साज बजाने की चाहत जागी। मगर साज, तो उनके पास था नहीं। संगीत के जानिब उनकी यह चाहत, उन्हें एक वाद्य यंत्रों की दुकान की ओर ले गई। वह वहाँ नौकरी करने लगे। खाली वक़्त में वे चोरी छिपे हारमोनियम बजाने की कसरत करते, उस पर सुर साधने की कोशिश करते। एक दिन उनकी ये ‘चोरी’ पकड़ी गई। संगीत के प्रति नौशाद का जुनून देखकर, दुकान मालिक गुरबत अली ने न सिर्फ उन्हें वह हारमोनियम तोहफे में दे दिया, बल्कि गज्नफर हुसैन उर्फ लड्डन साहब से भी मिलवाया। लड्डन साहब वही थे, जो रॉयल टॉकीज में ऑर्केस्टा बजाते थे। लड्डन साहब ने उन्हें अपना शागिर्द बना लिया। लड्डन साहब से उन्हें संगीत की बाकायदा तालीम मिली। इसके अलावा उस्ताद बब्बन, यूसुफ अली खान ने भी उन्हें मौसीकी का ककहरा सिखाया।
ऑर्केस्टा में संगीत सीखने-बजाने के बाद, नौशाद ने नाटकों में संगीत देना शुरू कर दिया। हीरोज एसोसिएशन के अलावा पारसी रंगमंच के आला ड्रामा निगार आगा हश्र काश्मीरी के कुछ नाटकों को भी उन्होंने अपना संगीत दिया।
नाटक कंपनियों और स्टेज प्रोग्रामों में हिस्सेदारी की वजह से वे देर से अपने घर लौटते। नौशाद के वालिद वाहिद अली, जो कचहरी में मोहर्रिर थे, वे इन सब चीजों के सख्त खिलाफ थे। उन्हें यह बिल्कुल पसंद नहीं था कि उनका बेटा गाने-बजाने जैसा नामाकूल काम करे। लिहाजा संगीत की वजह से बाप-बेटे के बीच तनाव बढ़ता चला गया और एक दिन ऐसा भी आया कि उनके अब्बा ने उन्हें यह कहकर घर से निकाल दिया कि ‘घर चुनो या संगीत?’ अठारह साल के नौजवान नौशाद ने संगीत में अपनी बेहतरी देखी और घर को हमेशा के लिए अलविदा कर दिया।
लखनऊ से वह सीधे मायानगरी मुंबई पहुँचे। थोड़े से अरसे के संघर्ष के बाद ही उन्हें फिल्म ‘समंदर’ मिल गई। इस फिल्म के संगीत में बतौर साजिंदे उन्होंने काम किया। फिल्म के संगीतकार मुश्ताक हुसैन ने उनसे अपनी ऑर्केस्टा में पियानो बजवाया। संगीत का गहरा इल्म और कई वाद्य यंत्रों को कामयाबी से बजाने के अपने हुनर से वे जल्द ही संगीतकार के असिस्टेंट के ओहदे तक पहुंच गए। ‘निराला हिंदुस्तान’ और ‘पति-पत्नी’ फिल्मों में नौशाद ने संगीतकार मुश्ताक हुसैन, ‘सुनहरी मकड़ी’-उस्ताद झंडे खां, ‘मेरी आँखें’-खेमचंद प्रकाश, ‘मिर्जा साहेबान’-डी. एन. मधोक के साथ असिस्टेंट के तौर पर काम किया। उनकी मेहनत रंग लाई और तीन साल के अंदर ही उन्हें फिल्म ‘कंचन’ में संगीतकार की हैसियत से काम मिल गया। अलबत्ता यह बात अलग है कि साल 1940 में आई, ‘रंजीत मूवीटोन’ बैनर की इस फिल्म में उन्होंने सिर्फ़ एक गाना ही रिकॉर्ड करवाया था।
साल 1940 में आई ‘प्रेम नगर’ वह फिल्म थी, जिसमें नौशाद ने सफलता का पहली बार स्वाद चखा। इस फिल्म के ज़्यादातर गाने हिट हुए। ख़ास तौर पर फ़िल्म के हीरो रामानंद कथावाचक जो मुजफ्फरनगर के रहने वाले थे, के द्वारा गाया गीत ‘फन के तार मिला जा, अपने हाथों को’। ‘प्रेम नगर’ की कामयाबी ने फिल्म इंडस्ट्री में नौशाद को स्थापित कर दिया। फिर आई उनकी फिल्म ‘स्टेशन मास्टर’, जो टिकट खिड़की पर बेहद कामयाब साबित हुई। नौशाद की यह पहली फिल्म थी, जिसने सिनेमाघरों में सिल्वर जुबली मनाई। ‘स्टेशन मास्टर’ की सफलता ने नौशाद के लिए बड़े बैनर की फिल्मों का रास्ता खोल दिया। वे ए. आर. कारदार जिन्होंने नौशाद को यह कहकर, ‘तुम अभी बच्चे हो, पहले तजुर्बा हासिल करो’ स्टुडियो से बाहर निकाल दिया था, खुद उन्होंने अपनी फिल्म ‘नई दुनिया’ के संगीत के लिए नौशाद को बुलाया। उम्मीद के मुताबिक़ फ़िल्म ‘नई दुनिया’ और उसका संगीत दोनों ही कामयाब रहे। इसके बाद नौशाद ने कारदार प्रोडक्शन की ज़्यादातर फिल्मों ‘शारदा’, ‘दुलारी’, ‘नमस्ते’, ‘कानून’, ‘संजोग’, ‘जीवन’, ‘सन्यासी’, ‘नाटक’, आदि में अपना संगीत दिया। उनके लाजवाब संगीत की वजह से ये फिल्में सुपरहिट रहीं। इस दरमियान उनकी फिल्म ‘रतन’ (साल 1944, निर्देशक-एम. सादिक), ‘मेला’ (साल 1949, निर्देशक-एस.यू. सन्नी) और ‘बैजू बावरा’ (साल 1952, निर्देशक विजय भट्ट) आयी, जिनके गानों ने पूरे मुल्क में धूम मचा दी। यह तीनों ही फिल्में म्यूजिकल हिट थीं।
‘रतन’ की कामयाबी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह फिल्म सिर्फ पचहत्तर हजार रुपए में बनी थी। लेकिन इसके निर्माता जैमिनी दीवान को इस फिल्म के रिकॉर्डों की बिक्री से सिर्फ एक साल में साढ़े तीन लाख रुपए मिले थे।
गाने भी एक से बढ़कर एक दिलफरेब ‘अंखियां मिलाके जिया भरमाके’, ‘अंगड़ाई तेरी है बहाना’, ‘मिलके बिछड़ गईं अंखियां’, ‘परदेशी बालमा’। वहीं ‘बैजू बावरा’ के गीत आज भी जब बजते हैं, तो सुनने वाले मदहोश हो जाते हैं। उन पर एक नशा सा तारी हो जाता है। ‘अकेली मत जइयो राधे’, ‘बचपन की मोहब्बत को दिल’, ‘ओ दुनिया के रखवाले’, ‘मोहे भूल गए सांवरिया’ आदि गानों के कम्पोज में नौशाद ने कमाल कर दिखाया है।
एक के बाद एक मिली इन कामयाबियों ने नौशाद को हिन्दी सिनेमा का सिरमौर बना दिया। एक दौर था, जब बड़े बैनर और बड़े निर्देशकों की फिल्में उन्हीं के पास थीं। महान निर्देशक महबूब की फिल्म ‘अनमोल घड़ी’, ‘अंदाज’, ‘अनोखी अदा’, ‘आन’, ‘अमर’ एवं ‘मदर इंडिया’ और के. आसिफ की शाहकार फिल्म ‘मुगल-ए-आजम का संगीत नौशाद ने ही दिया था। इन फिल्मों की कामयाबी में उनके संगीत का बड़ा योगदान है। आज भी इन फिल्मों के गाने एक अलग ही जादू जगाते हैं। ‘उड़नखटोला’, ‘कोहिनूर’, ‘गंगा जमुना’, ‘मेरे महबूब’, ‘लीडर’, ‘राम और श्याम’, ‘आदमी’, ‘संघर्ष’ और ‘पाकीजा’ फिल्मों के गाने भी पूरे देश में मकबूल हुए। उनके गाने गली-गली में बजते थे। फिल्म ‘रतन’ (साल-1944) से लेकर ‘पाकीजा’ (साल-1971) तक यानी पूरे सत्ताइस साल नौशाद का हिन्दी सिनेमा में सिक्का चला। जिसके लिए उन्हें कई सम्मानों और पुरस्कारों से नवाजा गया। फिल्मों में नौशाद के अनमोल, बेमिसाल योगदान के लिए उन्हें भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’, ‘पद्मभूषण’ सम्मान और ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ से सम्मानित किया।
नौशाद ने अपने संगीत में न सिर्फ भारतीय वाद्य यंत्रों ढोलक, तबला, बांसुरी, शहनाई, जलतरंग, सितार, का बखूबी इस्तेमाल किया, बल्कि पश्चिम के वाद्य यंत्रों पियानो, एकार्डियन, स्पेनिश गिटार, कोंगा और लोंगा आदि को भी उसी महारत से अपनाया। उनकी फिल्म ‘जादू’, ‘आन’ आदि में इन वाद्य यंत्रों के जादू का एहसास किया जा सकता है।
नौशाद ऐसे पहले भारतीय संगीतकार थे, जो अपनी फिल्म के बैकग्राउंड म्यूजिक के सिलसिले में विलायत गए। यह फिल्म थी, महान निर्देशक महबूब की ‘आन’। इस फिल्म के संगीत की एक खासियत और थी, जिसका कि जिक्र बेहद जरूरी है, इस फिल्म के संगीत में उन्होंने सौ वाद्य यंत्रों के ऑर्केस्टा का इस्तेमाल किया था। आज फिल्मों के म्यूजिक और बैकग्राउंड म्यूजिक में साउंड मिक्सिंग का चलन आम है। लेकिन एक जमाना था, जब हिंदी सिनेमा इस हुनर से वाकिफ नहीं था। वे नौशाद ही थे, जिन्होंने अपने संगीत में पहली बार साउंड मिक्सिंग का इस्तेमाल किया। नौशाद को लिखने का भी शौक था। उन्होंने कई फिल्मों की कहानियां लिखीं, लेकिन उनमें अपना नाम नहीं दिया। स्टोरी राइटर के तौर पर फिल्म में अज्म वाजिदपुरी का नाम जाता था। फिल्म ‘उड़नखटोला’, ‘मेला’, ‘बाबुल’, ‘पालकी’, ‘दीदार’, ‘शबाब’ और ‘तेरी पायल मेरे गीत’ की कहानी या कहानी आइडिया नौशाद का ही था।
नौशाद कहानीकार के साथ-साथ एक बेहतरीन शायर भी थे। ‘आठवां सुर’ नाम से उनका एक दीवान है, जिसमें उनकी गज़लें और नज़्में संकलित हैं। नौशाद ने 1937 में लखनऊ को अलविदा कह दिया था, लेकिन यह शहर उनकी यादों में हमेशा ज़िंदा रहा। अपनी एक गजल में वे लखनऊ को याद करते हुए कहते हैं,
‘वह गलियां वह मुहल्ले, सब बन गए कहानी
मैं भी था लखनऊ का, यह बात है पुरानी।
इसमें वह दिल कहां है, वह जुस्तुजू कहां है
कोई मुझे बता दे, वह लखनऊ कहां है।’
नौशाद निहायत पारखी इंसान थे। होनहार लोगों को वे जल्द ही परख लेते थे। मोहम्मद रफी, महेन्द्र कपूर, श्याम कुमार, सुरैया, उमा देवी ‘टुनटुन’ आदि अनेक महान गायक-गायिकाओं का हिंदी फिल्मों में आगाज कराने वाले नौशाद ही थे। फिल्म ‘पहले आप’ के एक गाने की सिर्फ एक लाइन गवा कर, उन्होंने फिल्मी दुनिया में मोहम्मद रफी की इब्तिदा कराई थी। उसके बाद, तो रफी ने उनके लिए अनेक नायाब गाने गाये। ‘ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द’, ‘मन तरपत हरि दर्शन को आज’ इन गानों में नौशाद और मोहम्मद रफी की जुगलबंदी देखते ही बनती है।
नौशाद को इस बात का भी श्रेय हासिल है कि क्लासिकल म्यूजिक के अजीम फनकार डी. वी. पलुस्कर और अमीर खान ने उनके लिए ‘बैजू बावरा’ और बड़े गुलाम अली साहब ने ‘मुगल-ए-आजम’ में गाने गाए थे।
“
हमारे संगीत की अपनी परंपराएं हैं। ये परंपराएं सैकड़ों वर्षों की तपस्या, रियाज से बनी हैं। इसमें हमारी मिट्टी की सुगंध है, हमारी जिंदगी की शक्ल है।
नौशाद
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