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फ़ारूक़ी : जिन्हें भारत और पाकिस्तान दोनों ने इज़्ज़त बख़्शी

शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी 25 दिसम्बर को इस फानी दुनिया से जुदा हो गए। वे काफी लंबे समय से बीमार चल रहे थे। 30 सितंबर 1935 को उत्तर प्रदेश में जन्मे फ़ारुक़ी ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से एमए की डिग्री हासिल की थी। बुनियादी तौर पर अंग्रेज़ी साहित्य के छात्र रहे फ़ारूक़ी को 'सरस्वती सम्मान, 'पद्म श्री' समेत कई बड़े पुरस्कारों से नवाजा गया था। समालोचना तनकीदी अफकार के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। 'कई चांद थे सरे आसमां' उनका चर्चित उपन्यास है। यह उपन्यास कई जबानों में अनुवाद हुआ। 

समूचे दक्षिण एशिया में आलोचक शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी का नाम किसी परिचय के मोहताज नहीं है। उर्दू-हिंदी अदबी दुनिया में उनका नाम इज्ज़तो-एहतराम के साथ लिया जाता है। आधुनिक उर्दू आलोचना में किया गया उनका काम संगे मील है। उर्दू में जदीदयत के अदबी रवैये को बढ़ावा देने में जिन शख़्सियों के नाम आते हैं, उनमें शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी का नाम सबसे अव्वल नंबर पर शुमार किया जाता है। ‘कई चाँद थे सरे आसमां’ उनका पहला उपन्यास है। 

ख़ास ख़बरें

पहले उपन्यास से ही मशहूर

अपने पहले ही उपन्यास में उन्होंने जिस रंग-ओ-ज़मीन का इस्तेमाल किया है, वह बेमिसाल है। 18वीं-19वीं सदी यानी इन दो सदियों में हमारे मुल्क़ में हिंद-इसलामी दुनिया क्या थी? उस दौर की तहजीब, अदबी समाज कैसा था? अंग्रेजी साम्राज्य और उसकी वजह से समाज में क्या-क्या तब्दीलियाँ आ रही थीं? मुग़लिया सल्तनत की मिटती हुई बादशाहत और अंग्रेजी हुकूमत का हिंदुस्तान पर बढ़ता शिकंजा, वगैरह-वगैरह इस एक किताब में पूरी तरह समा गया है।

यह बिल्कुल अलहदा और जुदा अंदाज में लिखा गया है। अलबत्ता खुद लेखक इसे तारीखी उपन्यास नहीं मानता। बकौल शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी, ‘‘हालांकि किताब में दर्ज़ अहम तारीख़ी वाकेआत की प्रमाणिकता का हर मुमकिन हद तक लिहाज रखा गया है, लेकिन यह तारीखी उपन्यास नहीं है। इसे 18 वी-19 वी सदी की हिंद-इसलामी तहजीब और इंसानी और सांस्कृतिक, साहित्यिक सरोकारों का चित्रण समझकर पढ़ा जाए तो बेहतर होगा।’’

तारीख़ी उपन्यास नहीं!

यूं तो किताब 18 वीं सदी के राजपूताने से शुरू होकर साल 1856 यानी डेढ़ सदी का लंबा सफर तय करती है, जिसमें कई तवारीखें, घटनाएँ और सैकड़ों किरदार आवाजाही करते हैं। लेकिन यह उपन्यास ख़ास तौर पर छोटी बेग़म उर्फ वज़ीर बेग़म उर्फ वज़ीर ख़ानम उर्फ शौकत महल की ज़िंदगी पर है। जिसमें कई और दास्तानें, उपकथाएँ जुड़ती चली जाती हैं। इन दास्तानों में ग़जब की किस्सागोई है।

लेखक ने उपन्यास में उस दौर की ऐसी मंजरकशी की है कि पूरा माहौल जिंदा हो गया है। तिस पर उर्दू जुबान की लज्ज़त, मुहावरेदार बोलते संवाद और फारसी-रेख़्ता शायरी का दिलकश अंदाजे बयां। पूरी किताब पढ़कर, दिल-ओ-दिमाग पर एक अजब सी कैफियत तारी हो जाती है।

हिंद इसलामी तहजीब

कहने को बाहरी तौर पर उपन्यास ‘कई चाँद थे सरे आसमां’ हिंद इसलामी तहजीब और उस दौर के अदबी समाज के कई पैकर पेश करता है, लेकिन अपनी रूह में यह स्त्री मुक्ति का उपन्यास है। उपन्यास के अहम किरदार वज़ीर ख़ानम के मार्फत उपन्यासकार शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने जो स्त्री विमर्श की तजवीज पेश की है, वह लाजवाब है।

हमारे मुल्क में कोई सोच भी नहीं सकता कि उस सामंती दौर में जब औरत को खानगी (बिना शादी के बीबी की तरह रखना) बनाकर रखना और मुताअ (सीमित अवधि की शादी) करना आम था, औरत को नाम लेवा की आजादी थी, मर्द औरत के साथ अपने संबधों को लेकर कोई बंधन या ज़िम्मेदारी मंजूर करने से बचता था, तब औरत के अंदर ऐसी चेतना या आग होगी। वजीर खानम अपने पहले ही तआरूफ में पाठकों के सामने यह जाहिर कर देती है कि वह अलग ही मिट्टी की बनी हुई है।

स्त्री मुक्ति का उपन्यास

बड़ी बाजी उम्दा खानम के साथ अपने पहले ही संवाद में वज़ीर ख़ानम के तेवर उसकी आगे की ज़िंदगी की राह तय कर देते हैं- 

‘‘सुनिए, मैं शादी-वादी नहीं करूंगी,’’ वज़ीर ने समझाने वाले लहजे में कहा। 

‘‘क्यों? क्यों नहीं करेगी शादी? और न करेगी तो क्या करेगी ? लड़कियाँ इसलिए तो होती हैं कि शादी-ब्याह हो, घर बसे.....’’

‘‘...........बच्चे पैदा करें, शौहर और सास की जूतियाँ खाएँ, चूल्हे-चक्की में जल-पिसकर वक़्त से पहले बूढ़ी हो जाएँ,’’ वजीर ने मखौल उड़ाने के अंदाज में कहा।

‘‘और नहीं तो क्या कोठे आबाद करें लड़कियाँ? दीन-दुनिया दोनों खराब करें? अम्मा-बाबा के नाम पर कलंक लगाएं?’’

‘‘बाजी!,’’ उसने समझाने के अंदाज में कहा, ‘‘क्या लड़कियों के लिए बस यही दो रास्ते हैं? क्या अल्लाह मियां का यही इंसाफ़ है?’’

‘‘इंसाफ-मेहरबानी तो मैं जानती नहीं, ख़ुदा की बात ख़ुदा ही जाने। लेकिन जब से दुनिया बनी है, औरतें इन्हीं कामों में लगाई गईं हैं। एक शरीफ़ाना राह है, एक कमीनों की राह है।’’

‘‘बस भी करो ये शरीफ़ों, कमीनों की बातें। मर्द कुछ भी करते फिरें, उन्हें कुछ भी न कहें, और हम औरतें जरा ऊँचे सुर में भी बोल दें तो खैला छत्तीसी कहलाएँ। अल्लाह! यह कहाँ का इंसाफ है।’’

‘‘बस यही दस्तूर है, यही इंसाफ़ है। औरत जात को अल्लाह ने शर्म, हया, ममता, रहमदिली और क़ुर्बानी का पुतला बनाया है।’’

‘‘मैं नहीं बनती किसी की पुतला-पुतली। मेरी सूरत अच्छी है, मेरा ज़हन तेज है, मेरे हाथ-पाँव सही हैं। मैं किसी मर्द से कम हूँ? जिस अल्लाह ने मुझमें ये सब बातें जमा कीं, उसको कब गवारा होगा कि मैं अपनी क़ाबिलियत से कुछ काम न लूं, बस चुपचाप मर्दों की हवस पर भेंट चढ़ा दी जाऊँ?’’

‘‘ए लो बीबी, तुझे भेंट कौन चढ़ावे है? तेरा तो मियां घोड़े पर बिठाकर ले जावेगा। लाड़-प्यार से रखेगा।’’

‘‘हां, और जब जी चाहेगा दो जूती मारकर अलग कर देगा। या मुझे काल कोठरी में बंद कर देगा, और खुद अकड़ता हुआ जहाँ चाहेगा, चार आंखें बल्कि उससे भी बदतर करता फिरेगा।’’

‘‘तू तो हवा से लड़ रही है, तुझसे कोई क्या बात करे।”

‘‘देखो बाजीजान। शादी करके मैं चाहे-अनचाहे खुद को जिंदगानी भर के लिए क्यो फंसाऊं ? ताल्लुक वही अच्छा जिसको तोड़ सकूं।’’

‘‘हाय अल्लाह, यह तू क्या बक रही है। यह तो सरासर कुफ़्र है।’’

‘‘कुफ़्र सही, लेकिन अल्लाह मियां से मैं यह ज़रूर पूछंगी कि औरत पैदा होकर, मैंने कौन सा कुफ़्र किया था कि उसकी सजा मैं जीते जी दोजख़ मैं डाल दी जाऊं..........आख़िर तूने ही मुझे औरत बनाया, मैं आपी आप तो नहीं बनी।’’

‘‘औरत के लिए मर्द ज़रूरी है। मर्द के लिए औरत इज्जत़ है, और औरत के लिए मर्द वारिस।’’

‘‘चलिए, वारिस ही सही, लेकिन निकाह तो ज़रूरी नहीं।’’

‘‘तो क्या हरामकारी करेगी? लड़की, खुदा से डर।’’

‘‘बस दो बोल पढ़ देने से जो हराम था, वह हलाल हो गया? और आपकी बेटी इन कसाइयों की छुरी से हलाल हो गई, तो कुछ न हुआ? बाजीजान, सुन रखो। मैं शादी न करूंगी, लेकिन करती भी हूँ, तो इन चपड़कनाती, खोमचेवालों, टुकड़ों पे पलने वाले कुलाऊजी मौलवियों, भिखमंगे वजीफ़ाखोर नुमाइशी शरीफ़जादों से तो हर्गिज न करती।’’

‘‘और नहीं तो क्या तेरे लिए कोई नवाब, कोई शहजादा आएगा? बेटी, इतना गुरूर नहीं करते। अल्लाह को गुरूर पसंद नहीं।’’

‘‘शहजादा तकदीर में लिखा होगा तो आएगा ही। नहीं तो न सही। मुझे जो मर्द चाहेगा उसे चखूंगी, पसंद आया तो रखूंगी। नहीं तो निकाल बाहर करूंगी।’’ (पेज 143-144)

अपनी शर्तों पर ज़िंदगी

वज़ीर ख़ानम के यह तेवर उसकी ताजिंदगी रहते हैं। वह अपनी शर्तों पर जीती है। अंग्रेज फ़ौजी अफ़सर मार्स्टन ब्लैक से लेकर मुगल शहजादा मिर्ज़ा फत्हुलमुल्क से वह शादी अपनी शर्तों पर करती है। वह टूट जाती है, मगर किसी के आगे झुकती नहीं।

वज़ीर ख़ानम की जिंदगी में बारी-बारी से चार मर्द आते हैं मार्स्टन ब्लैक, नबाव शम्सुद्दीन अहमद, आग़ा मिर्ज़ा मौलवी तुराब अली और आख़िर में मिर्ज़ा फत्हुलमुल्क।

हर चुनाव खुद उसका होता है। मार्स्टन ब्लैक हो या फिर नबाव शम्सुद्दीन अहमद उर्फ दिलवारुमुल्क, वज़ीर ख़ानम ने अपनी स्त्री अस्मिता से आखिर तक किसी से समझौता नहीं किया। अपनी पहचान उसके लिए हमेशा अहम रही।

ख़ानम की जिंदगी में बार-बार बहार आती और कुछ पल ठहरकर रूठ जाती। लेकिन उसका हौसला नहीं टूटता।

मुसीबतों से मजबूत

हर बार वह इन मुसीबतों के लिए अपने आप को पहले से ज़्यादा मजबूत कर लेती। यहाँ तक की मार्स्टन ब्लैक, नबाव शम्सुद्दीन अहमद और आगा मिर्जा मौलवी तुराब अली की असमय मौत उसे आखिर तक तोड़ नहीं पाई। तमाम आँधी-तूफान में भी उसका किरदार बावकार रहा। 

‘‘उसे अपने मुक़म्मी होने के लिए मर्द की ज़रूरत न थी। अलबत्ता मर्द के ज़रिए वह अपनी शख़्सियत और वज़ूद की पुष्टि चाहती थी। उसका गुमान था कि दुनिया में अगर मुहब्बत कहीं है, तो वह औरत के लिए है। यानी औरत चाहे, और अपनी मर्ज़ी के अलावा किसी की पाबंद न हो। वह कहती थी कि मर्द चाहते नहीं हैं, वो चाहे जाने के अहसास के दीवाने हैं। अगर उनको चाहे जाने में लुत्फ़ आने लगे तो यही उनका चाहना है। असल चाह तो औरत की होती है। लेकिन औरत सोच-समझकर न चाहे, फरेब में आ जाए, तो उसे अपनी भूल की बहुत भारी कीमत भी अदा करनी पड़ सकती है। मगर यह कीमत भी गवारा है अगर वह मर्द में चाहे जाने का अहसास पैदा कर सके और इस तरह मर्द की छब में अपनी छब देख सके।’’ (पेज 500) 

मुहब्बत की तलाश

मुहब्बत की तलाश में मारा-मारा फिरना ही ख़ानम का मुक़द्दर था। और यह मुक़द्दर ही उसे उड़ाए लिए जा रहा था। उपन्यास में उसकी शख्सियत का एक और अहम पहलू सामने आता है, जब उसके बेटे नबाव मिर्जा से उसकी गुफ़्तगू होती है। 

‘‘आप मेरे जिगर के टुकड़े हैं लेकिन आप अव्वल और आख़िर मर्द हैं। मर्द जात समझती है कि सारी दुनिया के भेद और तमाम दिलों के छुपे कोने उस पर जाहिर हैं, या अगर नहीं भी हैं तो न सही लेकिन वह सबके लिए फैसला करने का हकदार है। मर्द ख्याल करता है कि औरतें उसी ढंग और मिजाज की होती हैं, जैसा उसने अपने दिल में, अपनी बेहतर अक्ल और समझ के बल पर गुमान कर रखा है.........।” 

वह एक पल चुप रहकर फिर बोली- 

‘‘और अगर औरतें उस ढंग और मिजाज की नहीं भी हैं तो कुसूर मर्द जात का नहीं, औरत जात का है कि वह ऐसी क्यों न हुई जैसी कि मर्द चाहता या समझता है।’’ 

वजीर का चेहरा तमतमाया हुआ था और उसकी आवाज ऊँची हो गई थी- 

 ‘‘अल्लाह आगा मिर्ज़ा साहब शहीद को करवट-करवट जन्नत बख्शे, मगर उनको गुमान था कि मर्द का दर्जा औरत से ऊपर है। औरत महकूम है, मर्द हाकिम.......।’’

‘‘लेकिन.......लेकिन.......शरियत भी तो कहती है कि मर्द औरत से बरतर है,’’नवाब मिर्जा ने कुछ गड़बड़ाकर कहा। 

‘‘हमारी किताबें तो यही कहती हैं, हमारे बुजुर्ग तो यही सिखाते हैं।’’

‘‘आपकी किताबों के लेखक सब मर्द, आपके काजी, मुफ़्ती-बुजुर्ग भी कौन, सबके सब मर्द हैं। मैं शरई हैसियत नहीं जानती, लेकिन मुझे बाबा फ़रीद साहब की बात याद है कि जब जंगल में शेर सामने आता है, तो कोई यह नहीं पूछता कि शेर है या शेरनी। आखिर हज़रत राबिया बसरी भी तो औरत थीं।’’

‘‘वह तो वली अल्लाह थीं।’’

‘‘जी हाँ। और मैं एक बेखुदा, दुनियादार बंदी जिसका बाल-बाल गुनाहों से पिरोया हुआ है।’ ’(पेज 549-561) 

माँ-बेटे का यह संवाद जाहिर करता है कि वज़ीर ख़ानम मर्दों की दुनिया में सिर्फ बराबरी की तलबगार थी।

हिंद में ऐसा क़िरदार है?

आज हिंदी-उर्दू साहित्य में भले ही हमें स्त्री विमर्श की गूँज साफ सुनाई देती हो, लेकिन उस दौर में जब औरत की हैसियत मर्द की नज़र में अपने माल या जूती से ज्यादा नहीं थी, वज़ीर ख़ानम की आज़ाद ख्याल सोच और बेसाख्ता दलीलों से ताज्ज़ुब होता है कि हिंद में ऐसी भी कोई ख़ातून गुजरी है। 

‘‘उसे यह बात हमेशा अजीब लगती थी। रखवाली का काम तो मर्द का था कि औरत के बदन में उसका बीज था, लेकिन मर्द अपने माल को और माल ढोने वाली को ग़ैर-महफ़ूज छोड़कर सो जाता था। ख़ुदा जाने इसमें मिजाजों का कौन सा फर्क काम कर रहा था या शायद मर्द लोग समझते हों कि औरत को हमारी हिफ़ाजत बहरहाल हासिल है। जब तक हम उसके पहलू में हैं, सोये हुए ही सही, उसे कोई ख़तरा नहीं। लेकिन शायद असल बात यह है, वह कभी-कभी जरा कढ़वी होकर खुद से कहती कि मर्द को सिर्फ अपनी गरज से काम है। मतलब पूरा होने के बाद वह इस बात से बेताल्लुक हो जाता था कि मेरी शरीके-बिस्तर किस हाल में है? या फिर मर्द अपना जिस्म खाली कर देने के बाद एक छोटी सी मौत से दो-चार हो जाता था, जैसा कि कुछ बड़ी-बूढ़ियां कहती थीं, और उसे दोबारा जिंदगी हासिल करने के लिए कुछ मोहलत और कुछ राहत की जरूरत रहती है। राहत की भी अच्छी रही, वजीर अपने दिल में कहती, गोया जो कुछ बिस्तर पर लूटमार की, वह राहत न थी। खूब! या फिर इस तरह पीठ फेरकर सो जाना किसी किस्म के भरोसे की निशानी था, कि हमें अपनी हमख्वाबा के बारे में पूरा इत्मीनान है, वह हमारी हमबगल होकर पूरी तरह महफूज है, और हर तरह हमसे वफादार भी है.......लेकिन यह कुछ बनावट सी बात लगती थी। असल बात तो शायद यही थी कि मतलब पूरा होने के बाद लगावट कम हो जाती थी।’’ (पेज 697-698)

मिर्ज़ा ग़ालिब पर सवाल

अपनी जिंदगी में चार शौहर खोने के बाद भी वज़ीर ख़ानम ने आख़िर तक शिकस्त नहीं मानी। और यही जज्बा उपन्यास में उसके किरदार को मर्तबा प्रदान करता है। हालांकि, उपन्यास में और भी कई ऐसे किरदार हैं, जो पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं। मसलन-वसीम ज़ाफर, हकीम अहसनुल्लाह, क़रीम खाँ उर्फ भरमारू, इमामबख्स सहबाई, मिर्ज़ा ग़ालिब, जौक और नबाव मिर्जा दाग़। 

उपन्यास जहाँ उस दौर में मिर्ज़ा ग़ालिब की मक़बूलियत को दर्शाता है, वहीं नबाव शम्सुद्दीन अहमद खाँ के जानिब ग़ालिब के ग़लत बर्ताव को भी दिखलाता है। आखिर तमाम अच्छाइयों और बुराईयों के बावजूद ग़ालिब भी इंसान थे।

उपन्यास में आख्यान के अलावा जब-जब अहम किरदारों का टकराव हुआ है और उनमें आपस में जो संवाद की अदायगी होती है, वह लाजबाव है। 

1857 की क्रांति पर क्यों नहीं लिखा?

उपन्यास हालाँकि मुग़लिया सल्तनत के पतन की वजह और अंग्रेजी हुकूमत के हिंदुस्तान पर बढ़ते साये की खुर्दबीन करता है। लेकिन 1857 की क्रांति पर जरा सी भी रोशनी नहीं डालता। लेखक ने उपन्यास का काल साल 1856 तक महदूद किया है। और यह वह दौर था, जब हिंदुस्तानी अवाम में अंग्रेजों के जानिब चारों और असंतोष व नफ़रत बढ़ती जा रही थी। हाँ, लेखक एक हल्का इशारा जरूर करता है कि अंग्रेजों के बढ़ते ज़ुल्म-ओ-सितम से दिन-पे-दिन मुल्क़ की फिजा का रंग बदल रहा है। 1856 का साल शुरू होते-होते सबसे बड़ी घटना सल्तनत अवध के खात्मे की थी। 7 फरवरी, 1856 को अंग्रेज फौजें लखनऊ में दाखिल हो गईं। बादशाह को हथियारबंद मुहाफिजों के घेरे में और बड़ी तकलीफों के साथ पहले इलाहाबाद, फिर कलकत्ता ले जाया गया।

‘कई चाँद थे सरे आसमां’ लेखक शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी का अजीम शाहकार है। इस किताब को समूचे उपमहाद्वीप के पाठकों ने ठीक उसी तरह से हाथों-हाथ लिया है, जिस तरह से कभी मिर्जा हादी रुसवा के उपन्यास ‘उमराव जान’, काजी अब्दुस्सत्तार के ‘दारा शिकोह’ और कुर्रतुल-ऐन-हैदर के उपन्यास ‘आग का दरिया’ को लिया था। जाहिर है इसकी एक बड़ी वजह उपमहाद्वीप का सांझा इतिहास भी है। जिसे चाह कर भी कोई हुकूमत आज तलक बदल नहीं पाई है। अलबत्ता जब-तब इसकी कोशिशें जरूर चलती रहतीH हैं। 

शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने ऐतिहासिक तथ्यों के सहारे न सिर्फ उस दौर के किरदारों को पुनर्जीवित किया है, बल्कि उन्हें पुनर्व्याख्यायित भी किया है। इसके पीछे फ़ारूक़ी का गहन अनुसंधान साफ झलकता है।
‘कई चाँद थे सरे आसमां’ सबसे पहले उर्दू में प्रकाशित हुआ। जिसका पहला संस्करण ‘पेंगुईन बुक्स, इंडिया’ ने साल 2006 में निकाला और पाकिस्तान में भी यह उपन्यास ‘शहरजाद प्रकाशन’ से प्रकाशित हो मकबूल हो चुका है। उर्दू अदब में ‘कई चाँद थे सरे आसमां’ की अहमियत और मक़बूलियत को देखते हुए, पाकिस्तानी हुकूमत ने शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी को उर्दू सेवा के लिए अपने यहाँ के सबसे बड़े अदबी सम्मान ‘सितारा-ए-इम्तियाज’ से नवाजा। हिंदी में यह उपन्यास अलबत्ता कुछ देरी से आया। 
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