दिल्ली दंगों के मुसलमान अभियुक्तों की पैरवी कर रहे महमूद प्राचा के दफ़्तर पर छापा मारने की पुलिस की कार्रवाई किस तरह दोषपूर्ण, एकतरफा और भेदभाव पर आधारित थी, यह अब खुल कर सामने आ रहा है। यह भी साफ हो रहा है उन पर झूठा गवाह पेश करने का आरोप बेबुनियाद है और इस पूरे मामले में दिल्ली पुलिस की कार्रवाई संदेहास्पद है।
झूठ बोल रही है दिल्ली पुलिस
जिस इरशाद अली को बुलाने और अदालत में ग़लत जानकारी देने के लिए कहने के आरोप में प्राचा के यहाँ छापा मारा गया, उनके बयान से साफ है कि पुलिस झूठ बोल रही है।
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, इरशाद अली ने इससे इनकार किया है कि प्राचा ने उन्हें अपने यहाँ बुलाया था। उन्होंने कहा कि वे ख़ुद प्राचा के दफ़्तर गए थे। उनका यह भी कहना है कि पुलिस ने अभियुक्तों को ग़लत तरीके से फँसाया है।
इरशाद अली ने 4 मार्च, 2020 को पुलिस में शिकायत की कि मूंगा नगर स्थित गद्दों की उसकी दुकान पर कुछ लोगों ने हमला किया, तोड़फोड़ की, उन्हें 17-18 लाख रुपए का नुक़सान हुआ, उस स्थान के मालिक को 10 लाख रुपए का नुक़सान हुआ।
ग़लत लोगों को गिरफ़्तार किया पुलिस ने
दिल्ली पुलिस ने इस मामले में पूर्व कौंसिलर ताहिर हुसैन, ग़ुलफ़ाम, मुहम्मद आबिद, अरशद कयूम, शादाब शाह, रियासत अली और राशिद सैफ़ी को गिरफ़्तार कर लिया। लेकिन इरशाद का कहना है कि उसकी दुकान पर हमला करने वाले मुसलमान नहीं थे।
दिल्ली पुलिस ने 22 अगस्त को दाखिल रिपोर्ट में कहा है कि इरशाद अली ने दुकान पर हमला करने वालों के नाम दीपक, नवनीत उर्फ नानू और मिन्टू बताया। पर गोकुलपुरी थाने में अली उन लोगों को पहचानने में नाकाम रहे।
पुलिस का दावा
पुलिस का कहना है कि प्राचा ने इरशाद को अपने दफ़्तर बुला कर कहा कि उनके पास एक प्रत्यक्षदर्शी गवाह शरीफ़ मलिक है और यदि वे उस गवाह की शिकायत को अपनी शिकायत के साथ जोड़ लें तो उनका केस अधिक मजबूत हो जाएगा।
दिल्ली पुलिस को एक दूसरे मामले में मलिक की तलाश थी।
पुलिस ने यह आरोप लगाया कि मलिक 'खुद एक मामला दर्ज कराना चाहते थे', वे दंगे के प्रत्यक्षदर्शी थे और प्राचा की ओर से दायर मामला 'झूठ, मनगढंत और फ़र्जी' है।
पुलिस ने यह आरोप भी लगाया कि जुलाई में इरशाद अली ने हलफ़नामा दायर किया था, उसे पब्लिक नोटरी संजय सक्सेना ने अटेस्ट किया था। लेकिन संजय सक्सेना की मौत तीन साल पहले ही हो गई।
सक्सेना की पत्नी ने पुलिस से कहा कि उन्हें कोई जानकारी नहीं है कि उनके पति के स्टांप से ऐसी किसी चीज को अटेस्ट किया गया है।
अभियुक्त की ज़मानत का विरोध क्यों नहीं?
पुलिस को दंगे और लूटपाट के एक दूसरे मामले में शरीफ़ मलिक की तलाश थी, लेकिन जब मलिक ने गिरफ़्तारी के पहले ही ज़मानत के लिए अदालत में अर्जी दी तो पुलिस ने उसका विरोध नहीं किया और मलिक को ज़मानत मिल जाने दी।
पुलिस ने अदालत से कहा, "आवेदनकर्ता जाँच से जुड़ चुके हैं और अब उन्हें गिरफ़्तार करने की ज़रूरत नहीं है।"
अदालत की टिप्पणी
इसी तरह दंगे के मामले में जिस रियासत अली को पुलिस ने अभियुक्त बनाया था, उन्हें भी 3 दिसंबर को दिल्ली हाई कोर्ट से ज़मानत मिल गई। सीसीटीवी फुटेज में रियासत अली की पहचान नहीं की जा सकी।
इसके बाद 17 दिसंबर को कयूम और आबिद को भी इसी आधार पर ज़मानत मिल गई।
अतिरिक्त सत्र जज यादव ने कहा कि "इन अभियुक्तों को पुलिस ने ग़लत तरीके से झूठ में फँसाया है, "निष्पक्ष और स्वतंत्र रूप से जाँच नहीं की गई है" और "जाँच एजेंसी ने एक ख़ास समुदाय के लोगों को बेवजह और ग़लत तरीके से झूठ-मूठ का फँसाया है।"
अदालत ने कहा, “आवेदनकर्ता के ख़िलाफ़ कोई इलेक्ट्रॉनिक सबूत नहीं है, न तो सीसीटीवी फ़ुटेज के रूप में न ही सीडीआर लोकेशन के रूप में, जिससे वारादात के जगह पर उस समय उनके मौजूद रहने की पुष्टि होती।”
पुलिस की सफाई
दिलचस्प बात यह है कि दिल्ली पुलिस के उत्तर पूर्व के डीसीपी वेद प्रकाश ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से कहा, "हमने शरीफ़ मलिक को गिरफ़्तार नहीं किया था, उन्होंने ज़मानत की याचिका दी और उन्हें वह मिल गई। हमें नहीं लगता है कि प्राचा मामले से उनका कोई रिश्ता है।"
लेकिन महमूद प्राचा के यहाँ छापा मारने के मामले में दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा का कहना है कि प्राचा के खुद तैयार किए हुए या उनकी ओर से उनके किसी आदमी के द्वारा तैयार किए गए काग़ज़ात की तलाश उसे थी।
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