नियति ने रविवार को गोवा के सबसे प्रसिद्ध राजनीतिक चेहरों में से एक मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर को इससे छिन लिया। वह एक ऐसे नेता थे जिनकी 25 वर्षों से ज़्यादा की लंबी राजनीतिक पारी ने इस राज्य को उतना प्रभावित किया है जितना किसी और ने नहीं। इसीलिए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि अब आगे क्या होगा?
राजनीतिक विश्लेषक, पत्रकार और राजनेता इस बात पर एकमत हैं कि पर्रीकर के गुज़र जाने के बाद गोवा की राजनीति में खालीपन आ गया है। फ़िलहाल गोवा विधानसभा में किसी भी पार्टी के पास पूर्ण बहुमत नहीं है, इसीलिए इस खालीपन से राज्य की राजनीति में अस्थिरता आयेगी।
2017 के चुनाव का परिणाम त्रिशंकु विधानसभा के रूप में आया था जिसमें 17 सीटों के साथ कांग्रेस अकेली सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी और बीजेपी सिर्फ 13 सीटें ही जीत पायी थी। बाक़ी की 10 सीटों में से तीन-तीन महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी और गोवा फ़ॉरवर्ड पार्टी को, एक एनसीपी को और तीन निर्दलीयों को मिली थीं।
चुनाव नतीजे की ऐसी अस्थिर दिखने वाली संख्या की तोड़ पर्रीकर में निकाली गयी। यही कारण है कि उन्हें देश के रक्षा मंत्री के पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा और राज्य की राजनीति में मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें वापस लौटना पड़ा था।
ऐसी अस्थिर राजनीतिक स्थिति में अब गोवा में दो दशकों तक बीजेपी की नाव को सफलतापूर्वक खेवने वाले पर्रीकर जैसा नेता ढूंढने में पार्टी के पसीने छूट रहे हैं। जबकि पर्रीकर एक साल से ज़्यादा समय से एक योद्धा की तरह पैन्क्रियटिक कैंसर से लड़ रहे थे तब भी बीजेपी उनकी जगह पर किसी नये नेता को समय रहते नहीं ढूँढ पायी।
मुख्यमंत्री ढूँढने में गडकरी को पापड़ बेलने पड़े
पर्रीकर की मौत की ख़बर सुनते ही केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी भागे-भागे गोवा पहुँचे। काफ़ी पापड़ बेलने के बाद विधानसभा अध्यक्ष डॉ. प्रमोद सावंत के नाम पर वह सहमति बनाने में कामयाब रहे। लेकिन इसके लिये उन्हें नाकों चने चबाने पड़े। तमाम विधायकों और गठबंधन के दलों को इसके लिए मनाने में उन्हें काफ़ी संघर्ष करना पड़ा।
- गडकरी यह बात जानते हैं कि गोवा में ‘गॉडफ़ादर’ की भूमिका वाले पर्रीकर जैसा नेता ढूँढना मुश्किल है जिन्होंने पार्टी कैडर और नेताओं के लिए एक समान भूमिका निभाई। दूसरा पर्रीकर मिलना नामुमकिन है।
संघ से निकाले गये नेता बीजेपी के लिए परेशानी
1990 के दशक में गोवा की राजनीति में बीजेपी को खड़ा करने में पर्रीकर के गुरु सुभाष वेलिंगकर की बड़ी भूमिका थी। पर तीन साल पहले सुभाष और पर्रीकर में अनबन हो गयी। दोनों ने एक-दूसरे से सारे संबंध उस समय तोड़ लिए। यह अनबन हिंदुत्व के मुद्दे को लेकर हुआ था। इसके बाद वेलिंगकर को आरएसएस से निकाल दिया गया। उनके साथ संघ का एक बड़ा कैडर भी बाहर चला गया। बाद में वेलिंगकर ने गोवा सुरक्षा मंच (जीएसएम) नाम से एक नया संगठन बना लिया।
2017 के चुनाव की पूर्व संध्या पर वेलिंगकर के संगठन जीएसएम ने राजनीतिक अवतार लिया और दर्ज़न भर से ज़्यादा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। इसका नतीजा यह हुआ कि 40 सीटों वाली विधानसभा की 6 सीटों पर बीजेपी को बड़ा नुक़सान हुआ। यही वह प्रमुख कारण था जिसकी वजह से बीजेपी की सीटें 21 से घटकर 13 रह गयीं थीं।
कांग्रेस फ़ायदा नहीं उठा पायी
फ़िलहाल बीजेपी ने पर्रीकर को तो खो दिया है पर विपक्षी पार्टी कांग्रेस को कोई ख़ास फ़ायदा होता नहीं दिखता। ऐसा इसलिए है क्योंकि कांग्रेस के नेताओं के बीच सिर फुटौव्वल है। कांग्रेस में फ़िलहाल ठीक वैसी ही स्थिति है जैसी कि 2017 के चुनाव के दौरान थी। तब 40 सदस्यों वाली विधानसभा में 17 सीटें लाकर अकेली सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस सरकार नहीं बना पायी थी।
पर्रीकर के निधन के बाद गोवा के गवर्नर के सामने कांग्रेस ने एक बार फिर से सरकार बनाने का दावा पेश किया लेकिन कांग्रेस बीजेपी के सहयोगी दलों में से किसी को भी अपने पाले में करने में कामयाब नहीं हुई।
- पिछले साल अक्टूबर में दो कांग्रेसी सदस्य इस्तीफ़ा देकर बीजेपी में शामिल हुये थे जिसके बाद 40 सदस्यों वाली गोवा विधानसभा में 38 सदस्य ही रह गये थे। पिछले महीने पूर्व उप-मुख्यमंत्री और बीजेपी विधायक फ्रांसिस डिसूजा के निधन के बाद सदस्यों की संख्या घटकर 37 हो गयी थी। अब मनोहर पर्रीकर के निधन के बाद फ़िलहाल यह संख्या 36 रह गयी है।
विधानसभा में क्या है स्थिति?
मौजूदा समय में कांग्रेस के पास 14 विधायक हैं। बीजेपी के पास 12 हैं, लेकिन बीजेपी के साथ सहयोगी पार्टियाँ हैं और फ़िलहाल ऐसे कोई संकेत नहीं हैं जिससे लगे कि वैचारिक मतभेद के बावजूद वे पाला बदलने को तैयार हैं। बीजेपी ने फ़िलहाल गोवा फ़ॉरवर्ड और महाराष्ट्रावादी गोमांतक पार्टी, दोनों को उपमुख्यमंत्री पद देकर अपने साथ गठबंधन में बनाये रखा है और इन दलों के नौ विधायक बीजेपी सरकार के साथ जुड़े हुये हैं।
अब सवाल है कि क्या खाली हुए तीन विधानसभा सीटों पर 23 अप्रैल को होने वाले उप-चुनाव के नतीजे से कोई समाधान हो पाएगा। ये उप-चुनाव राज्य में लोकसभा की दो सीटों के चुनाव के साथ ही होंगे। इस उप-चुनाव के परिणाम ही यह तय करेंगे कि क्या पर्रीकर के जाने के बाद आघात की स्थिति में आयी गोवा की राजनीति सामान्य स्थिति में लौट पाएगी या नहीं? इस सवाल के जवाब के लिए गोवा को 23 मई को उप-चुनाव के परिणाम तक इंतज़ार करना होगा।
अपनी राय बतायें