रिज़र्व बैंक के ख़ज़ाने की चाबी सरकार के लिए खुलेगी या नहीं, यह शायद बहुत कुछ इस पर निर्भर हो कि इस काम के लिए बनने वाले पैनल का अध्यक्ष कौन होगा। बात हो रही है इकनॉमिक कैपिटल फ़्रेमवर्क बनाने की, जिसके तहत यह तय होगा कि रिज़र्व बैंक अपने ख़ज़ाने से सरकार को कुछ पैसा दे या न दे।सरकार ने इस पैनल के लिए रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर बिमल जालान का नाम सुझाया है जबकि रिज़र्व बैंक की तरफ़ से बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर राकेश मोहन का नाम आगे बढ़ाया गया है। पेच यहीं पर है।जालान साहब का कहना है कि रिज़र्व बैंक सरकार के प्रति जवाबदेह है, जबकि राकेश मोहन रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता के प्रबल समर्थक हैं। रिज़र्व बैंक को सरकार को अपने फ़ालतू ख़ज़ाने से पैसा देना चाहिए या नहीं देना चाहिए और अगर देना चाहिए तो उसका हिसाब कैसे लगाया जाए, यही बातें इकनॉमिक कैपिटल फ़्रेमवर्क के तहत तय की जानी हैं। इस पैनल में अध्यक्ष के अलावा रिज़र्व बैंक का एक डिप्टी गवर्नर और सरकार का एक प्रतिनिधि शामिल हो सकता है।यह भी पढ़ें - ख़ज़ाने को लेकर उर्जित अड़े, सरकार से तनातनी जारीपिछले दिनों बिमल जालान ने एक अख़बार को दिए इंटरव्यू में इस सवाल पर सीधे कुछ बोलने से तो इनकार कर दिया था कि सरकार रिज़र्व बैंक के ख़ज़ाने से कुछ ले सकती है या नहीं, लेकिन यह ज़रूर कहा था कि बहुत-कुछ इस पर भी निर्भर है कि रिज़र्व बैंक के अपना ख़ज़ाना भरा रखने का क्या असर अार्थिक क्षेत्र पर पड़ रहा है और दूसरे यह कि बैंक के ख़ज़ाने से पैसा निकालने की ज़रूरत कितनी बड़ी है।सरकार की तरफ़ से यह बात बार-बार कही जा रही है कि अर्थव्यवस्था को हो सकने वाले जोखिमों का अन्दाज़ा लगा कर बैंक उतना ही पैसा अपने पास रखे, जितना उसके लिए ज़रूरी हो। बाक़ी पैसा वह सरकार को दे ताकि उसका इस्तेमाल दूसरे ज़रूरी ख़र्चों के लिए किया जाए, जिससे अर्थव्यवस्था और गतिशील होगी और विकास भी तेज़ होगा।सरकार का कहना है कि दुनिया के दूसरे केन्द्रीय बैंक इस मामले में क्या नीतियाँ और कार्यप्रणाली अपनाते हैं, उसका अध्ययन करने के बाद एक सीमा तय कर दी जानी चाहिए कि रिज़र्व बैंक इतनी सीमा तक धन अपने पास 'रिज़र्व' रूप में रखेगा ताकि भविष्य में आ सकने वाले आर्थिक जोखिमों से निबटने के लिए बैंक के हाथ में पैसा रहे और बाक़ी का पैसा सरकार इस्तेमाल करे।बिमल जालान ने उस इंटरव्यू में कमोबेश इसी तरह की बात कही थी कि संकटकालीन कोष से अर्थ यही है कि इतना पर्याप्त पैसा हो कि कोई अप्रत्याशित आर्थिक परिस्थिति पैदा होने पर बैंक का हाथ तंग न हो।यानी जालान की राय सरकार की राय के निकट प्रतीत होती है। जबकि राकेश मोहन ने हाल में अपने तीन लेखों की शृंखला में इस पर बहुत ज़ोर दिया था कि रिज़र्व बैंक की बैलेन्स शीट क्यों बहुत मज़बूत होनी चाहिए। मोहन ने लिखा था कि रिज़र्व बैंक से सरकार के पैसे लेने से सरकार के लिए नियमित राजस्व का कोई नया स्रोत तो खुलेगा नहीं। उलटे इससे सरकार के लिए एक आसान शार्ट कट खुल जाएगा। राकेश मोहन की चेतावनी बड़ी साफ़ है। यह वाक़ई शॉर्ट कट ही होगा। सरकारें अपने वित्तीय प्रबन्धन को चुस्त-दुरुस्त करने और अनावश्यक ख़र्चों पर लगाम लगाने के बजाय जब-तब रिज़र्व बैंक का ख़ज़ाना खंगालने लगेंगी। और रिज़र्व बैंक से यह पैसा किस-किस काम से, किस-किस उद्देश्य से माँगा जाएगा, इसकी कोई सीमा नहीं है। तब क्या गारंटी है कि आए दिन सरकारें अपने राजनीतिक हितों के लिए इस पैसे का इस्तेमाल करने नहीं करने लगेंगी।
अपनी राय बतायें