देश की अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं है। अगर जल्दी ही इलाज नही किया गया तो देश मंदी का शिकार हो जायेगा। ऐसे में सबकी नज़र इस ओर लगी थी कि कौन बनता है वित्त मंत्री। कुछ लोग यह भी कह रहे थे कि अर्थव्यवस्था को उबारने के लिये किसी विशेषज्ञ अर्थशास्त्री को यह पद सौंपना चाहिये जैसे नरसिम्हाराव ने मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया था और देश ने आर्थिक तरक़्क़ी का नया अध्याय लिखा। मोदी ने ऐसा कुछ नहीं किया। अपेक्षाकृत जूनियर निर्मला सीतारमण को ये जिम्मा दिया गया। उनकी नियुक्ति ने कई लोगों को चौंकाया। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की पढ़ी हुई निर्मला इसके पहले वाणिज्य मंत्रालय का कामकाज संभाल चुकी हैं। उन्होंने रक्षा मंत्री के रूप में रफ़ाल मुद्दे पर मजबूती के साथ सरकार का बचाव किया। वित्त जैसे अहम मंत्रालय की ज़िम्मेदारी देकर नरेंद्र मोदी ने उनमें अपना विश्वास जताया है, यह साफ़ है।
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पाँच साल में न्यूनतम जीडीपी दर
सीतारमण के सामने अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने और इसे पटरी पर वापस लाने की बड़ी ज़िम्मेदारी होगी। वह वित्त मंत्री ऐसे समय बन रही हैं जब कुछ दिन पहले ही सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि यानी जीडीपी की दर पाँच साल के न्यूनतम स्तर पर पहुँच गई है। जीडीपी वृद्धि की दर 6.9 प्रतिशत हो गई है और एक अनुमान के मुताबिक़ यह 6.3 प्रतिशत तक जा सकती है।निर्मला सीतारमण की दूसरी दिक्क़त गुड्स एंड सर्विस टैक्स से होगी। जीएसटी की राजस्व उगाही अपने लक्ष्य से काफ़ी पीछे है। हालाँकि यह ठीक है कि धीरे-धीरे स्थिति सुधरेगी और राजस्व उगाही में इजाफ़ा होगा, पर उसमें समय लगेगा।
इसके अलावा जीएसटी के अलग-अलग स्लैब को दुरुस्त करने का काम भी उन्हें ही करना है। फ़िलहाल जीएसटी के चार स्लैब हैं और दरें भी मोटे तौर पर ठीक ही हैं। पर व्यापारियों की माँग रही है कि कुछ चीजों को कम दर वाले स्लैब में रखा जाए।
संकट राजस्व घाटे का
नए वित्त मंत्री को इस साल का बजट पेश करना होगा। पिछला बजट वोट ऑन अकाउंट था, हालाँकि पीयूष गोयल ने उसे सामान्य बजट जैसा ही बना डाला था और तमाम नीतिपरक घोषणाएँ की थीं। निर्मला सीतारमण के लिए यह चुनौती होगी कि जो घोषणाएँ पहले की गई, बजट में उसके आगे की बात हो, यानी और अधिक पैसे का आबंटन किया जाए।
यह इसलिए भी मुश्किल होगा कि वोट ऑन अकाउंट में ही राजस्व घाटा यानी फिस्कल डेफ़ीसिट 3 प्रतिशत था, जबकि लक्ष्य 2.5 प्रतिशत पर रोकना था। अनुमान है कि राजस्व घाटा इस साल के बजट में 3.4 प्रतिशत तक जा सकता है। ऐसे में उनके लिए यह बेहद मुश्किल होगा कि वह पैसे का बड़ा आवंटन करें या कोई बड़ी घोषणा करें। चुनाव हो चुका है, सत्तारूढ़ दल के पास अकेले बहुमत है, उस पर किसी तरह का दबाव नहीं है। इसलिए वह अप्रिय और कड़े फैसले ले, इसकी गुंजाइश है।
ब्याज दर
भारतीय रिज़र्व बैंक बहुत ज़ल्द ही अगली तिमाही के लिए ब्याज दरों का एलान करने वाला है। समझा जाता है कि यह इस बार इसमें कटौती कर सकता है ताकि कॉरपोरेट जगत के पास ज़्यादा पैसे हों। इससे उद्योग जगत तो खुश होगा कि उसे पैसे आसानी से मिल सकेंगे, पर महंगाई की दर भी बढ़ सकती है।निवेश की स्थिति ज़्यादा नाज़ुक है। पिछले वित्तीय वर्ष में प्रत्यक्ष विदेश निवेश में कमी आई थी। आज स्थिति यह है कि पूरी दुनिया में भारतीय अर्थव्यवस्था को लोग संदेह की नज़र से देख रहे हैं। भारत में उत्पादन, खपत, निवेश, बचत, आयात-निर्यात, मुद्रा की क़ीमत, सब कुछ गिरा है।
उपभोक्ता वस्तु, वाहन, इंजीनियरिंग के सामान, बिजली उपकरण, तमाम तीजों की खपत में कमी आई है। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी में चल रही है, वहाँ निवेश करना जोखिम भरा है। इस स्थिति में यहाँ निवेश करने लोग आएँगे, इस पर संदेह स्वाभाविक है। बीजेपी की जीत के बाद जिस तरह अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने प्रतिक्रिया जताई, इसे एक कदम पीछे की ओर क़रार दिया, उससे चिंता होती है।
रोज़गार सृजन पर मोदी सरकार की काफ़ी फ़जीहत पहले ही हो चुकी है। साल 2014 के चुनाव के समय सालाना दो करोड़ नौकरियों के मौके बनाने का वायदा करने वाले मोदी पहले के पारंपरिक नौकरियों को भी नहीं बचा सके। एनएसएसओ ने बताया था कि बेरोज़गारी 45 साल के सबस ऊँचे स्तर पर है।
सरकार का रवैया यह है कि दो दिन पहले इसने एनएसएसओ को ख़त्म ही करने का फ़ैसला कर लिया है। अब एनएसएसओ को स्टैटिस्टिकल सर्वे में मिला दिया जाएगा।
रफ़ाल के मुद्दे पर सरकार का बचाव करना या संसद में ज़ोरदार भाषण देकर विपक्ष को चुप कर देना एक बात है, वित्तीय फ़ैसले ले कर अर्थव्यवस्था दुरुस्त करना बिल्कुल दूसरी बात है। निर्मला सीतारमण के सामने बहुत कठिन काम है, वह इसमें कितना कामयाब होंगी, इसका पहला संकेत जल्द मिलने वाला है। ब्याज़ दरों पर रिज़र्व बैंक का फ़ैसला और अगल बजट। पहला संकेत जून और दूसरा जुलाई में मिल जाएगा। इससे सीतारमण की कार्यशैली का अनुमान लगाया जा सकेगा।
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