प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर जब देश के आर्थिक विकास की बात की तो ऐसा लगा मानो सब कुछ ठीक है, अर्थव्यवस्था में कुछ भी गड़बड़ नहीं है। पर सच यह है कि पहले से चल रही मंदी बहुत ही तेज़ी से पूरे देश में फैल रही है और अर्थव्यवस्था का हर अंग इसकी चपेट में आ रहा है। रिज़र्व बैंक ने अपने एक सर्वे में यह पाया है कि सिर्फ़ एक तिहाई कंपनियों को पहले से बेहतर कामकाज की उम्मीद है और वह भी उम्मीद से कम।
सिर्फ़ एक तिहाई कंपनियों को उम्मीद
इंडियन एक्सप्रेस की एक ख़बर के मुताबिक़, केंद्रीय बैंक ने 1,231 कंपनियों के इस साल के अप्रैल-जून के कामकाज की समीक्षा की तो पाया कि सिर्फ़ 31.6 प्रतिशत कंपनियों को यह उम्मीद थी कि उन्हें ज़्यादा ऑर्डर मिलेंगे। लेकिन ऑर्डर में यह बढोतरी भी पहले की बढोतरी से कम होगी।
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नई परियोजनाएँ शुरू नहीं हो रही हैं, पहले से चल रही परियोजनाएँ अटकी पड़ी हैं। स्टैटिस्टिक्स और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय ने पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत जिन 65 परियोजनाओं का अध्ययन किया, उनमें से 37 बीच में लटकी पड़ी हैं, समय पर पूरी नहीं हुईं।
खरबों का बकाया
कंपनियाँ जो उत्पाद बेच रही हैं या जो सेवाएँ दे रही हैं, उनका भी भुगतान समय पर नहीं हो रहा है और खरबों रुपये का बकाया पड़ा है, जो लगातार बढ़ता जा रहा है। इनमें सरकारी कंपनियाँ भी शामिल हैं। इसे एक उदाहरण भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड यानी भेल की स्थिति से समझा जा सकता है।सरकारी कंपनी भेल का बाज़ार में बकाया सितंबर 2018 में 38,993 करोड़ रुपये था, यह दिसंबर 2018 में 39,700 करोड़ रुपये हो गया। ऐसे में यह कंपनी नया कारोबार कैसे करे, सवाल यह है।
इससे निपटने के लिए मजबूरन 'भेल' ने एक नई नीति अपनाई है। जिनके पास बकाया है, उनसे कंपनी बात कर परियोजना से बाहर निकल रही है और बकाए का निपटारा कर रही है। उसने इसके लिए बक़ायदा 'प्रोजेक्ट क्लोज़र सिनर्जी ग्रुप' का गठन किया है। ज़ाहिर है, इसमें उसे अच्छा ख़ाना नुक़सान होगा।
बड़ी कंपनियाँ बदहाल, छोटी बेदम!
बड़ी कंपनियों की बदहाली के कारण उनसे जुड़ी छोटी कंपनियों का भी बुरा हाल है। उन्हें पूँजी नहीं मिल रहा है, वे उपकरण नहीं खरीद पा रही हैं, उनके उत्पाद नहीं बिक रहे हैं। यही वजह है कि लार्सन एंड टूब्रो जैसी कुछ बड़ी कंपनियाँ छोटी कंपनियों की मदद करने सामने आई हैं।कहाँ हैं नई परियोजनाएँ
सेंटर फ़ॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआई) ने पाया है कि नई परियोजनाओं के मामले में इस साल जून में ख़त्म होने वाली तिमाही बहुत ही बुरी रही है। इस दौरान सिर्फ़ 71,300 करोड़ रुपए की परियोजनाओं का एलान हुआ। वित्तीय वर्ष 2018-19 के दौरान हर तिमाही में औसतन 2.7 लाख करोड़ रुपये की नई परियोजनाओं की घोषणा की गई थी।सीएमआई का यह भी कहना है कि 2014-15 के दौरान 21 लाख करोड़ रुपये की नई परियोजनाओं का एलान हुआ था, लेकिन 2018-19 में यानी पिछले साल उसके आधे यानी 10.7 लाख करोड़ रुपए की परियोजनाओं का ही एलान किया गया।
औद्योगिक उत्पादन 2 प्रतिशत!
इनडेक्स ऑफ़ इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन यानी आईआईपी के 23 में से 15 सब-सेक्टरों में मंदी छाई है। कारखाना उत्पादन 2 प्रतिशत पर आ गया है।इसी तरह कार्गो यानी मालवाहक जहाज़ से सामान लाने- ले जाने के व्यवसाय में भी ज़बरदस्त कमी देखी गई है। केअर रेटिंग के आँकड़े बताते हैं कि कार्गो हैंडलिंग गिर कर 1.1 प्रतिशत पर आ गया। यह न्यूनतम स्तर पर है।
रिज़र्व बैंक के अध्ययन में दूसरी बातें अधिक चिंताजनक है। केंद्रीय बैंक ने कहा है कि जिन कंपनियों का अध्ययन इसने किया है, उनमें से 57.3 प्रतिशत यानी आधे से अधिक को यह उम्मीद नही है कि अगली तिमाही यानी जुलाई-सितंबर के दौरान कामकाज बेहतर होगा।
ऐसा नहीं है कि सरकार इससे चिंतित नहीं है। प्रधानमंत्री ने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के साथ बीते शुक्रवार को एक बैठक की और अर्थव्यवस्था पर काफी विस्तार से चर्चा की। कॉरपोरेट जगत को कुछ उम्मीद हुई कि शायद कुछ हो जाए। पर अब तक तो कुछ नहीं हुआ है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले की प्राचीर से जो भाषण दिया, उसमें दिलचस्प आर्थिक विकास की बातें कहीं। उन्होंने 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था, 100 लाख करोड़ रुपए की नई परियोजनाओं, गैस आधारित अर्थव्यवस्था वगैरह की बात की। पर जिस हाल में अर्थव्यवस्था है, उससे निकल कर वहाँ तक पहुँचने के लिए कार्य योजना और नीतियों के एलान की ज़रूरत है, वह अब तक नदारद है।
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