राँची में जब सर्दी के धुंधलके के बीच सूरज डूब रहा था, झारखंड की राजनीति में हेमंत सोरेन का सूरज फिर रोशन हो गया और महागठबंधन ने बीजेपी को क़रारी हार देकर सरकार बनाने का रास्ता निकाल लिया। लेकिन ना जाने क्यों मुझे आज शाम फिर बीजेपी की वरिष्ठ नेता और दिल्ली की मुख्यमंत्री रही सुषमा स्वराज याद आ गईं जब दिल्ली विधानसभा के चुनाव हारने के बाद उन्होंनें कहा था, ‘घर को आग लग गई घर के चिराग़ से।’
झारखंड बीजेपी में यह घर का चिराग़ जमशेदपुर में बैठा था या फिर लुटियंस ज़ोन वाली दिल्ली में, इस पर तो बीजेपी को आत्मचिंतन करना होगा।
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रघुबर की तानाशाही
झारखंड के इतिहास में पहली बार पूरे 5 साल स्थायी सरकार चलाने के बाद भी बीजेपी के रघुबर दास पार्टी को ले डूबे, लेकिन ये नतीजे ना तो बीजेपी के केन्द्रीय नेतृत्व के लिए चौंकाने वाले रहे होंगे और ना ही झारखंड बीजेपी के लिए, बल्कि प्रदेश में बीजेपी के बहुत से नेता तो शायद इन नतीजों का इंतज़ार कर रहे थे।पार्टी के कुछ नेताओं ने मुझसे कहा कि 70 के दशक में टाटा स्टील प्लांट के रोलिंग मिल में मजदूर रहे रघुबर दास का मुख्यमंत्री बनने के बाद का बर्ताव शंहशाह या तानाशाह जैसा रहा। उन्होंने किसी की परवाह नहीं की, ना तो पार्टी में अपने साथी नेताओं की और ना ही सहयोगी दलों की।
चुनावों में अगर वह अपने पुराने सहयोगी दल आजसू को साथ ले लेते या फिर केन्द्र के कुछ नेताओं की कोशिश के बाद पार्टी के और झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी को राज़ी कर लेते, साथ ले लेते तो चुनाव नतीजों की शाम यूँ सुनसान नहीं होती।
सरयू राय के कारण!
अपनी ही सरकार में मंत्री और पार्टी के वरिष्ठ नेता रहे सरयू राय को अगर वह इस तरह नज़रअंदाज़ नहीं करते और केन्द्रीय नेतृत्व भी सरयू राय की सुनवाई कर लेता तो जमशेदपुर पूर्व की सीट की नतीजे में उसे खुद के मुख्यमंत्री की शर्मनाक हार नहीं देखनी पड़ती। वैसे राजनीतिक तौर पर शायद थोड़ी ग़लती सरयू राय की भी रही होगी, भला कोई अपने ही नेता, अपने ही मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार और गड़बड़ियों की शिकायत करता है? हो सकता है सरयू राय ने कवि राजेश जोशी की वो कविता नहीं पढ़ी होगी, ‘जो सच बोलेंगे, वे मारे जाएंगे।’'फ़ुल सर्कल!'
मुझे नहीं पता कि ज़िंदगी में क्या इसे ही फुल सर्किल कहते हैं कि 1995 में रघुबर दास को जब बीजेपी के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने इसी जमशेदपुर पूर्व की सीट से उम्मीदवार बनाया था, तो उन्हें पार्टी के दिग्गज नेता दीनानाथ पांडे का टिकट काटकर चुनाव लड़ाया गया था। फिर दीनानाथ पांडे उस चुनाव में बाग़ी उम्मीदवार हो गए और उन्हें हरा कर रघुबर दास ने अपना पहला चुनाव जीता था। इस बार बीजेपी के ही एक और दिग्गज नेता सरयू राय ने बाग़ी उम्मीदवार बन कर उनके राजनीतिक रथ को रोक दिय।मुंडा की राजनीति?
इन चुनावों में एक और रोचक तथ्य है, रघुबर दास और हेमंत सोरेन दोनों ही बीजेपी के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा की सरकार में उप मुख्यमंत्री रहे और दोनों ने ही मुंडा की जगह ली। सोरेन 2010 में बनी अर्जुन मुंडा सरकार में उप मुख्यमंत्री बने थे। तब बीजेपी और जेएमएम ने ढाई-ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री बनाने का फॉर्मूला स्वीकार किया था।लेकिन साझा सरकार दो साल और चार महीने ही चल पाई, फिर राष्ट्रपति शासन लगा। इसके बाद जुलाई 2013 में कांग्रेस और आरजेडी ने हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री बनवा दिया, लेकिन वह सरकार भी नहीं चल पाई और उसके बाद विधानसभा चुनाव हुए। 2014 का चुनाव बीजेपी ने अर्जुन मुंडा की अगुवाई में लड़ा था, लेकिन मुंडा चुनाव हार गए और फिर रघुबर दास मुख्यमंत्री बने।
मुंडा के गले में उस हार की फाँस इन चुनावों तक अटकी हुई रही ,भले ही वह 2019 के लोकसभा चुनावों किसी तरह जीत कर केन्द्र सरकार में मंत्री बन गए हैं।
रघुबर दास की ख़राब छवि
बीजेपी के स्थानीय नेताओं की बात मानें तो इन चुनाव में हार की बड़ी वजह मुख्यमंत्री रघुबरदास की व्यक्तिगत छवि का ख़राब होना है। इसकी जानकारी कई बार केन्द्रीय नेतृत्व को भी दी गई। बीजेपी शासन में काश्तकारी अधिनियम में बदलाव का असर भी आदिवासी समाज पर पड़ा। इसके साथ ही भूमि अधिग्रहण संशोधन की नाराज़गी भी झेलनी पड़ी।जेएमएम के सोरेन ने आदिवासियों के इन मसलों को उठाते हुए जल-जंगल-ज़मीन के मुद्दों से आदिवासियों के साथ रिश्ते को गहरा कर लिया।
एंटी इनकम्बेन्सी
बीजेपी में घर में अंदरूनी नाराज़गी का नुक़सान यह हुआ कि जो अच्छे काम भी रघुबर दास की सरकार ने किए थे, उनको भी पार्टी ठीक से वोटर तक नहीं पहुँचा पाई। मुख्यमंत्री ने महिलाओं के लिए रजिस्ट्री पूरी तरह मुफ्त करने जैसे ऐतिहासिक निर्णय भी किए थे।मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ एंटी इनकम्बेंसी से ध्यान हटाने के लिए केन्द्रीय नेतृत्व ने राष्ट्रीय मसलों खासतौर से धारा 370 हटाने की बात, राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला और नागरिकता संशोधन कानून की बात की।
प्रधानमंत्री की 9 और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की करीब एक दर्ज चुनावी रैलियाँ इस नाराज़गी़ को दूर नहीं कर पाईं। ना ही खुद रघुबर दास की 50 से ज़्यादा रैलियों का कोई पॉजिटिव असर वोटर पर पड़ा। पार्टी अपनी करीब पचास फ़ीसदी सीटें हार गई। खुद मुख्यमंत्री समेत कई मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा।
हरियाणा का प्रयोग झारखंड में
साल 2014 के विधानसभा चुनावों के बाद बीजेपी केन्द्रीय नेतृत्व ने एक और प्रयोग महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में किया था कि वहाँ एक ख़ास वर्ग के मुख्यमंत्री बनाने के दबाव की राजनीति को बदलने की कोशिश। इसके लिए महाराष्ट्र में ग़ैर-मराठा देवेन्द्र फडनवीस को, हरियाणा में ग़ैर-जाट मनोहर लाल खट्टर को और झारखंड में ग़ैर-आदिवासी रघुबर दास को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपी।तीनों राज्यों में पूरे 5 साल सरकार चली, लेकिन महाराष्ट्र और झारखंड में दोनों नेता अपनी सरकार फिर से नहीं ला पाए और हरियाणा में बड़ी मुश्किल से सरकार बनी। इस सोशल इंजीनियरिंग पर भी हो सकता है कि फिर से सोचना पड़े।
पिछले एक साल में बीजेपी 5 राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और झारखंड में चुनाव हार गई है। पुरानी कहावत है कि बूंद-बूंद से घड़ा भरता है तो बूंद-बूंद रिसने से घड़ा खाली भी हो सकता है, इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।
जेएमएम के हेमंत सोरेन ने इन चुनावों में चुपके से ग़ैर आदिवासी और आदिवासी के मुद्दे को हवा दी,लेकिन अब मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें हर तबके का ध्यान रखना होगा। एक ज़माने में इच्छा के बावजूद पटना में मैकेनिकल इंजीनियरिंग नहीं कर पाने वाले हेमंत को अब राजनीति में सोशल इंजीनियरिंग पर ध्यान देना पड़ेगा। मोटर साइकिल चलाने के शौकीन हेमंत अब सरकार की ड्राइविंग सीट पर हैं और झारखंड की राजनीतिक मिट्टी फिसलन भरी है, यहां संभल कर चलना होता है।
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