क्या झामुमो ने झारखंड विधानसभा चुनावों में वोटों के ध्रुवीकरण के लिए एससी, एसटी, ओबीसी आरक्षण का कार्ड खेला है? क्या एससी, एसटी, ओबीसी को अपने पाले में लाने और अगड़ों-पिछड़ों के बीच के विभाजन को और तीखा करने के मक़सद से झारखंड मुक्ति मोर्चा ने घोषणा की है कि वह सत्ता में आई तो इन वर्गों के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में 67 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की जाएगी?
झामुमो ने मंगलवार को जारी अपने घोषणापत्र में कहा है कि उसकी सरकार बनी तो अनुसूचित जनजातियों के लिए 28 प्रतिशत, दूसरे पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए 12 प्रतिशत आरक्षण लागू करेगी।
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झारखंड विधानसभा चुनाव के लिए झामुमो ने कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के साथ गठबंधन बनाया है।
आदिवासी वोट बैंक को तोड़ने की कोशिश?
साल 2011 की जनगणना के अनुसार, झारखंड में अनुसूचित जनजातियों के लोगों की जनसंख्या 86, 45,042 है, जो पूरी जनसंख्या 3.19 करोड़ का लगभग 28 प्रतिशत है। इसी तरह राज्य में अनूसूचित जातियों की आबादी 11.8 प्रतिशत या 37 लाख के आसपास है। झारखंड में दूसरे पिछड़े वर्ग यानी ओबीसी की जनसंख्या 27 प्रतिशत यानी लगभग 85 लाख है।यानी यह साफ़ है कि राज्य की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा इस फ़ैसले से लाभान्वित होगा। अब तक राज्य में इन तीनों श्रेणियों को कुल मिल कर लगभग 50 प्रतिशत आरक्षण मिलता है। यानी यह साफ़ है कि राज्य सरकार को बिल ला कर महत्वपूर्ण बदलाव करने होंगे।
इसके साथ ही यह सवाल उठता है कि क्या इसके पीछे सोच बीजेपी को चुनौती देना है? या झामुमो बीजेपी के साथ मिल कर ध्रुवीकरण करना चाहती है ताकि उसका सीधा फ़ायदा उसे मिले?
क्या कहते हैं 2014 के नतीजे?
इसे समझने के लिए 2014 के राज्य विधानसभा चुनावों पर एक नज़र डालते हैं। उस चुनाव में बीजेपी और ऑल इंडिया झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) को 81 में से 42 सीटों पर जीत हासिल हुई थी, यानी उसे बहुमत मिल गया था। उसके बाद इस बार के लोकसभा चुनावों में राज्य में बीजेपी-आजसू को 14 में से 13 सीटें मिलीं। इन दोनों ही नतीजों को ज़बरदस्त जीत माना जा सकता है।लोकनीति-सीएसडीएस ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत की मुख्य वजह उसे अगड़ी जातियों और ओबीसी से बड़े पैमाने पर वोट मिलना है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अगड़ों में 50 प्रतिशत से ज़्यादा मतदाताओं ने बीजेपी को वोट दिया तो 40 प्रतिशत ओबीसी मतदाताओं की पसंद भी बीजेपी ही थी।
इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अनुसूचित जनजाति यानी एसटी के वोटों का बँटवारा हुआ। एसटी वोट मुख्य रूप से बीजेपी और झामुमो में बँटा। बीजेपी को लगभग 30 प्रतिशत एसटी वोट मिले तो तक़रीबन 29 प्रतिशत एसटी वोट शिबू सोरेने की पार्टी की झोली में जा गिरे।
आदिवासी वोटों का बँटवारा
राज्य में 25 सीटें ऐसी हैंं, जहाँ एसटी वोट ज़ोरदार बहुमत में हैं और वे ही जीत-हार का फ़ैसला करते हैं। इन 25 में से बीजेपी को 11 और झामुमो को 12 सीटों पर जीत हासिल हुई। कांग्रेस को 10.8 प्रतिशत वोट तो मिले, पर इन 25 आदिवासी-बहुल सीटों में से एक पर भी जीतने में कामयाब नहीं हुई।ओबीसी और अनुसूचित जाति के लोगों को अपनी ओर खींचने की झामुमो की कोशिश की एक बड़ी वजह साफ़ हो जाती है जब हम 2014 के वोटिंग पैटर्न पर थोड़ी और गहराई से नज़र डालते हैं। मोटे तौर पर बीजेपी की छवि ग़ैर-आदिवासियों और दिकू (बाहरी) लोगों की पार्टी के रूप में रही है। उसे ग़ैर-आदिवासियों के वोट का बड़ा हिस्सा मिला।नीति-सीएसडीएस ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि 2014 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने इस ग़ैर-आदिवासी वोट बैंक को और मजबूत किया।
बीजेपी का बढ़ता प्रभाव
सेज पब्लिकेशन ने अपने एक अध्ययन में पाया गया है कि ओरांव, संथाल और सरना समुदायों में बीजेपी की पैठ गहरी हुई है। मंगलवार को टाना भगत समुदाय के प्रमुख ने भी बीजेपी के पक्ष में मतदान करने की अपील कर दी। इसका असर भी पड़ सकता है।पर्यवेक्षकों का कहना है कि मिशनरियों का विरोध करने के नाम पर आरएसएस और विश्व हिन्दू परिषद से जुड़े लोग जिस तरह आदिवासियों के बीच जा रहे हैं, उससे उस समुदाय का भी हिन्दूकरण हो रहा है। इसका सीधा फ़ायदा बीजेपी को मिलने लगा है।
इसके साथ ही पार्टी ने यह भी कहा है कि निजी कंपनियों की नौकरियों का कम से कम 75 प्रतिशत हिस्सा स्थानीय लोगों को मिले, यह व्यवस्था भी की जाएगी। क्या झामुमो आरक्षण की बात कह कर आदिवासियों और ओबीसी को अपनी ओर खींचना चाहती है, यह सवाल लाज़िमी है। सवाल यह भी है कि इस रणनीति का क्या और कितना असर पड़ेगा।
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