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प्रेमचंद 140 : सातवीं कड़ी : हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद-युग की चर्चा क्यों नहीं?

आत्मा को उल्लास देना और सत्यदर्शी आँखों के लिए शिक्षा की सामग्री जुटाना, यह साहित्य का दायित्व है। सत्य की परिभाषा भी आसान नहीं। प्रेमचंद उसे सत्य नहीं मानते जो प्रेम और सुंदरता के भाव से ख़ाली हो।...प्रेमचंद के 140 साल पूरे होने पर सत्य हिन्दी की विशेष श्रृंखला की सातवीं कड़ी। 
अपूर्वानंद
‘अज्ञेय की ‘शरणार्थी’ संग्रह की कहानी ‘बदला’ याद है?’ ‘मंदिर और मसजिद’ की चर्चा के बाद आलोक राय ने पूछा। प्रेमचंद को पढ़ते हुए अज्ञेय की याद? जो हिन्दी के पेशेवर पाठक रहे हैं, उनके लिए यह ज़रा अटपटा-सा सवाल मालूम होगा। लेकिन जो साहित्य को ‘ग़ैरविचारधारात्मक’ तरीक़े से पढ़ पाने की सकत रखते हैं वे आलोक राय के सवाल से चौंकेंगे नहीं।
प्रेमचंद और अज्ञेय या प्रेमचंद और जैनेंद्र का रिश्ता तो खुद प्रेमचंद ही तय कर गए हैं। या नेहरू ने गाँधी से अपने रिश्ते के बारे में जो कहा था, वही प्रेमचंद और उनके समय लिखना शुरू करनेवाले लेखकों के बीच के संबंध पर भी लागू हो सकता है।

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प्रेमचंद-युग

नेहरू ने आर. के. करंजिया को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि हम सब गाँधी-युग की संतान हैं। हिन्दी साहित्य में किसी प्रेमचंद-युग की चर्चा नहीं होती, उर्दू साहित्य में भी शायद नहीं। लेकिन यह कहना बहुत ग़लत न होगा कि अज्ञेय हों या जैनेंद्र या और भी लेखक, वे प्रेमचंद-युग की संतान हैं।

संतान पिता या माता की छाया या छवि नहीं होती, अगर हो तो यह माता-पिता की प्रशंसा तो नहीं ही है। उसे उनसे जूझना ही पड़ता है। ऐसे माता-पिता दुर्भाग्यशाली ही हैं, जिनकी संतान उनसे असंपृक्त, बिना उनसे टकराए अपने जीवन की राह चुनती है।
प्रेमचंद के बारे में उर्दू लेखक फ़िदा अली ‘खंजर’ ने एक सादा-सी बात कही है, ‘उन्होंने अपनी अंतर्दृष्टि से मानव स्वभाव की जैसी गहरी तसवीरें खींची हैं उसका जवाब न उर्दू साहित्य पेश कर सकता है और न हिन्दी साहित्य।…उन्होंने बुराइयों का उद्घाटन करने में न किसी के साथ रियायत की है और न किसी से द्वेष दिखलाया है।’
बुराइयाँ नज़रअंदाज़ न करते हुए किसी से द्वेष न दिखलाना, यह कठिन साधना है। गांधी ने इसी को साधने की कोशिश की थी। मानव स्वभाव जैसी एक चीज़ है, उसपर परिस्थिति का असर होता है और वह परिस्थिति से स्वतंत्र भी हो सकता है। वही परिस्थिति को बदल भी सकता है। 
इसलिए प्रत्येक व्यक्ति, वह किसी भी वर्ग या समुदाय या संगठन का क्यों न हो, सहानुभूति का पात्र है। उससे उम्मीद नहीं छोड़ी जा सकती। हम व्यक्ति का तिरस्कार नहीं कर सकते और न उसे नष्ट करने के किसी विचार का समर्थन कर सकते हैं।
मनुष्य को सहानुभूति प्रदान कर पाने का अर्थ यही हो सकता है कि हम हर किसी को परिवर्तनीय मान सकें। उसमें संभावना के दर्शन कर सकें। इसलिए बड़ा लेखक हर मनुष्य के लिए खुद को ज़िम्मेवार मानता है। 
राजमोहन गाँधी ने हाल में एक लेख में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सदस्यों में इस तरह फ़र्क़ किया, ‘मैं बिना किसी हिचकिचाहट के उनकी इस विचारधारा को ख़ारिज करता हूँ कि हिंदुओं को मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों और दूसरे ग़ैर हिंदुओं पर शासन करना चाहिए या उन्हें (अपनी पहचान में) समाहित कर लेना चाहिए। लेकिन बंधु मनुष्यों या भारतीयों के रूप में वे मेरे ध्यान और मेरी शुभाकांक्षा के पात्र होंगे।’

सत्यदर्शी आँखें

मनुष्य को आशा के साथ देख पाना, साझा इंसानियत की कल्पना कर पाना, यही साहित्य का और कथाकर का काम है। उसके साथ कहानीकार का काम  और वही उपन्यासकार का है या लेखक मात्र का, यह है कि वह निराशा या सिनिसिज़्म से हमारी रक्षा करे, बल्कि उससे संघर्ष करने के भावनात्मक साधन मुहैया कराए।
फ़िदा अली खंजर आगे लिखते हैं, ‘…वह कहानियाँ नहीं लिखते थे बल्कि कहानियों के पर्दे में समाज का सच्चा चित्र प्रस्तुत कर देते थे जो न सिर्फ़ आत्मा को उल्लास देता था बल्कि सत्यदर्शी आँखों के लिए शिक्षा की सामग्री भी जुटा देता था। प्रकृति ने उन्हें प्रतिभा के साथ-साथ ज़िंदादिली का रतन प्रदान किया था, इसलिए उनकी चीजों में एक अजब खुलापन और मिठास पायी जाती है ,जो उनकी कहानियों को और ज़्यादा रोचक बना देती है। उनका अनुभव व्यापक और दृष्टि सूक्ष्म थी।’
आत्मा को उल्लास देना और सत्यदर्शी आँखों के लिए शिक्षा की सामग्री जुटाना, यह साहित्य का दायित्व है। सत्य की परिभाषा भी आसान नहीं।
प्रेमचंद उसे सत्य नहीं मानते जो प्रेम और सुंदरता के भाव से ख़ाली हो। सत्यदर्शी आँखें सिर्फ़ वे नहीं हैं जिनमें पहले से सत्य को पहचानने की कुव्वत है, बल्कि वे भी हैं जिनमें उसे लेकर उत्सुकता है।

सत्य की कठिनाई

‘मंदिर और मसजिद’ कहानी के ज़रिए वे इस सत्य की कठिनाई की तरफ़ इशारा करते हैं। चौधरी इतरतअली के लिए दीन और ख़ुदा की तौहीन सबसे बड़ा पाप है और उसके मुजरिम को सजा भी सबसे बड़ी ही मिलनी चाहिए। लेकिन क्या उससे दीन का बुनियादी उसूल हासिल कर लिया जाएगा? क्या ठाकुर भजन सिंह के क़त्ल से मसजिद की बेहुरमती की वजह ख़त्म कर ली जा सकेगी। वह बदला होगा, लेकिन क्या ऐसा करनेवाला वही इतरतअली होगा जिसने अपने दामाद के क़त्ल के लिए जवाबदेह भजन सिंह को भी माफ़ कर दिया था? मंदिर की प्रतिष्ठा का विचार करनेवाला इतरतअली ऊँचा इंसान है या मसजिद की पाकीज़गी का ख़याल कर उसका उल्लंघन करनेवाले को क़त्ल करनेवाला? क्या यह बदला इंसानियत को बेहतरी की तरफ़ ले जा पाएगा?
भजन सिंह बेहतर इंसान बन पाया है उस इतरत अली के कारण जो ‘अन्य’ को ‘अन्य’ मानते हुए उसके लिए खुद कोई भी क़ीमत चुका सकता है। ऐसे ‘चौधरी साहब के सत्संग ने (ठाकुर भजन सिंह की) हठधर्मी को दूर कर दिया था।’

भजन सिंह अपना अपराध स्वीकार करता है। इसके लिए जिगर चाहिए और वह धर्म की ध्वजा फहरानेवालों के पास अक्सर नहीं होता। वे अपने किए का ज़िम्मा लेने को तैयार नहीं होते। भजन सिंह में जो है, वह अब वीरता है, लंठपन नहीं। वह उस इतरतअली के हाथों सज़ा भुगतने को सर झुकाए खड़ा है जिसने उसे फाँसी के तख़्ते से उतारा था: 

‘उसके प्रति हिंसा या प्रतिकार का भाव उसके मन में क्योंकर आता? वह दिलेर था और दिलेरों की भाँति निष्कपट था। इस समय उसे क्रोध न था, पश्चाताप था। मरने का भय न था, दुःख था।’

अपने दीन के पक्के इतरतअली का हाथ उस पर नहीं उठता। दीन और दया के संघर्ष में दया जीत रही है।
यह अत्यंत सरल प्रतीत होनेवाली कहानी धर्म, संस्कृति, जीवन शैली के साथ साथ सत्संग, इंसाफ़, प्रतिशोध, क्षमा या दया, वीरता, निश्छलता, पश्चाताप और दुःख जैसे भावों पर नए सिरे से विचार करने का अवसर देती है।
इसके चरित्र और परिस्थितियाँ प्रेमचंद की मानवीय कल्पना की सृष्टि हैं, लेकिन क्या उनपर विश्वास करने का जी नहीं चाहता? और जिसने इसपर विश्वास किया वह क्या भोला या मूर्ख है? 

मनुष्य मात्र के प्रति करुणा 

अज्ञेय ने लिखा, ‘मानव में उनका अखंड विश्वास और मनुष्य मात्र के प्रति उनकी अगाध करुणा ही उनके भोलेपन की आधारशिला थी और वह भोलापन प्रणम्य है। भोलापन अपने आप में एक क़िस्म की बादशाहत है….’
आश्चर्य नहीं कि आलोक राय को प्रेमचंद की कहानी के ज़रिए अज्ञेय याद आए। ’बदला’ भारत और पाकिस्तान के निर्माण के समय होनेवाली उस हिंसा की पृष्ठभूमि में लिखी अज्ञेय की कहानी है जिसमें हिंदुओं और सिखों ने मुसलमानों और मुसलमानों ने हिंदुओं और सिखों के साथ चरम अमानुषिकता का परिचय दिया था।
यह कहानी भी सरल है। एक रेल यात्रा की कहानी है। एक मुसलमान औरत अपने बच्चे के साथ ऐसे डब्बे में चढ़ जाती है जिसमें दो सिख हैं और वह उन्हें देख डर जाती है:  

‘उसने देखा, डिब्बे के दूसरे कोने में चादर ओढ़े जो दो आकार बैठे हुए थे, एवं अपने मुसलमान भाई नहीं- सिख थे।….उन सिखों की स्थिर अपलक आँखों में अमानुषी कुछ है। उनकी दृष्टि जैसे उसे देखती है पर उसकी काया पर रुकती नहीं, सीधी भेदती हुई चली जाती है, और तेज धार-सा एक अलगाव उनमें है, जिसे जैसे कोई छू नहीं सकता, छुएगा तो कट जाएगा!’

वह डर जाती है, तब और भी जब बड़ा सिख पूछता है कि उसे कहाँ जाना है, क्या वह अकेली है: ‘हिसाब लगा रहा है कि कितना वक्त मिलेगा मुझे मारने के लिए... या रब, अगले स्टेशन पर कोई और सवारियाँ आ जाएँ... और साथ कोई ज़रूर बताना चाहिए - उससे शायद यह डरा रहे!’

वह झूठ बोलती है कि दूसरे डिब्बे में उसका भाई बैठा है। सिख इसे पहचानकर टाल देता है। इस बीच डिब्बे में दो मुसाफ़िर और चढ़ते हैं जो हिंदू हैं। हिंदू यह पहचानकर कि एक मुसलमान औरत है और दो सिख हैं, कुत्सा आरम्भ करता है। कैसे सिखों की माँ-बहनों को बेइज्जत किया गया, यह रस लेकर बताना चाहता है। लेकिन यह स्पष्ट है कि उसमें सिखों के प्रति सहानुभूति नहीं, उसमें मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा पैदा करने की कोशिश है या मानकर ही यह सब कुछ कहा जा रहा है कि सिख के भीतर वह नफ़रत होगी ही।
सिख लेकिन उस हिंदू के स्तर पर गिरने को तैयार नहीं। वह बार-बार उसे आगे बढ़ने से रोकता है:

 ‘हिन्दू महाशय की बात बीच में रुक गयी थी, उन्होंने फिर आरम्भ किया, 'बाप-भाइयों के सामने ही बेटियों-बहिनी को नंगा करके...।’

‘सिख ने कहा, ‘बाबू साहब, हमने जो देखा है वह आप हमीं को क्या बताएँगे…’

इस बार वह अनुगूँज पहले ही स्पष्ट थी, लेकिन हिन्दू महाशय ने अब भी नहीं सुनी। 

मानो शह पाकर बोले, ‘आप ठीक कहते हैं, हम लोग भला आपका दुख कैसे समझ सकते हैं! हमदर्दी हम कर सकते हैं, पर हमदर्दी भी कैसी जब दर्द कितना बड़ा है यही न समझ पायें! भला बताइये, हम कैसे पूरी तरह समझ सकते हैं कि उन सिखों के मन पर क्या बीती होगी जिनकी आँखों के सामने उनकी बहू-बेटियों को…’

सिख ने संयम से काँपते हुए स्वर में कहा, ‘बहू-बेटियाँ सबकी होती हैं, बाबू साहब!’ 

हिंदू सिख की इस प्रतिक्रिया को समझ नहीं पाता : ‘हिन्दू महाशय तनिक-से अप्रतिभ हुए कि सरदार की बात का ठीक आशय उनकी समझ में नहीं आ रहा। किन्तु अधिक देर तक नहीं। बोले, ‘अब तो हिन्दू-सिख भी चेते हैं। बदला लेना बुरा है, लेकिन कहाँ तक कोई सहेगा? इधर दिल्ली में तो उन्होंने डटकर मोर्चे लिये हैं, और कहीं-कहीं तो ईंट का जवाब पत्थर से देने-वाली मसल सच्ची कर दिखायी है। सच पूछो तो इलाज ही यह है। सुना है करौल बाग में किसी मुसलमान डॉक्टर की लड़की को…’

इस बार सिख सख़्ती करता है,

‘अब की बार सिख की वाणी में कोई अनुगूँज नहीं थी, एक प्रकट और रड़कने-वाली रुखाई थी। बोला, ‘बाबू साहब, औरत की बेइज्ज़ती सबके लिए शर्म की बात है। और बहिन…’ यहाँ सिख सुरैया की ओर मुखातिब हुआ, ‘आपसे माफ़ी माँगता हूँ कि आपको यह सुनना पड़ रहा है।’

हिंदू झेंप मिटाने के लिए जतलाना चाहता है कि वह सिख का हमदर्द है। लेकिन सिख जानता है कि वह हिंसा है, हमदर्दी नहीं जिसके कारण अभी वह सिख के प्रति सहानुभूति दिखला रहा है :
‘अब आप सुनना ही चाहते हैं तो सुन लीजिये कान खोलकर। मुझसे आप हमदर्दी दिखाते हैं कि मैं आपका शरणार्थी हूँ। हमदर्दी बड़ी चीज है। मैं अपने को निहाल समझता अगर आप हमदर्दी देने के काबिल होते। लेकिन आप मेरा दर्द कैसे जान सकते हैं, जब आप, उसी साँस में दिल्ली की बातें ऐसे बेदर्द ढंग से करते हैं? मुझसे आप कर सकते होते - इतना दिल आप में होता तो जो बातें आप सुनाना चाहते हैं उनसे शर्म के मारे आपकी जबान बन्द हो गयी होती - सिर नीचा हो गया होता! औरत की बेइज्जती औरत की बेइज्जती है, वह हिन्दू या मुसलमान की नहीं, वह इनसान की माँ की बेइज्ज़ती है, शेखूपुरे में हमारे साथ जो हुआ सो हुआ - मगर मैं जानता हूँ कि उसका मैं बदला कभी नहीं ले सकता - क्योंकि उसका बदला हो ही नहीं सकता!

मैं बदला दे सकता हूँ - और वह यही, कि मेरे साथ जो हुआ है वह और किसी कि साथ न हो। इसीलिए दिल्ली और अलीगढ़ के बीच इधर और उधर लोगों को पहुँचाता हूँ मैं; मेरे दिन भी कटते हैं और कुछ बदला चुका भी पाता हूँ; और इसी तरह, अगर कोई किसी दिन मार देगा तो बदला पूरा हो जाएगा - चाहे मुसलमान मारे, चाहे हिन्दू! मेरा मकसद तो इतना है कि चाहे हिन्दू हो, चाहे सिख हो, चाहे मुसलमान हो, जो मैंने देखा है वह किसी को न देखना पड़े; और मरने से पहले मेरे घर के लोगों की जो गति हुई, वह परमात्मा न करे, किसी की बहू-बेटियों को देखनी पड़े!’
सिख अपने साथ हुई हिंसा को नकार नहीं रहा। उससे हुई तकलीफ़ को छिपा भी नहीं रहा। लेकिन उस हिंसा को इसकी इजाज़त नहीं दे सकता कि वह उसके स्वभाव को बदल दे। बदला हो सकता है अगर वह उस हिंसा को इस प्रकार अपना उद्देश्य प्राप्त करने में विफल कर दे। आख़िर वह चाहती यही है कि यह साबित हो जाए कि इंसान एक नहीं, कि सिख सिख है, मुसलमान मुसलमान है और दोनों का वजूद एक साथ नहीं रह सकता। 

प्रतिशोध और प्रायश्चित्त

प्रतिशोध प्रायश्चित्त इस प्रकार एक ही सिक्के के दो पहलू हो सकते हैं। 'गांधी' फ़िल्म का वह दृश्य याद कीजिए जिसमें एक बेचैन हिंदू गांधी से कहता है कि वह नरक जाएगा क्योंकि उसने एक बच्चे को मार डाला है। मुसलमानों ने उसके छोटे बच्चे को जो मार डाला था। गांधी उसे कहते हैं कि वह उसी उम्र का एक मुसलमान बच्चा खोजे जो माँ-बाप को खो बैठा है और उसे फिर उसी के धर्म में पाले। यह उसका प्रायश्चित्त है और क्या यही उन मुसलमानों से उसका प्रतिशोध भी नहीं?

जैसा प्रेमचंद कहते हैं, अज्ञेय भी, गाँधी तो कहते ही हैं, तुम्हारी श्रेष्ठता का अर्थ यह नहीं कि शेष श्रेष्ठ नहीं है। क्या तुम उसकी महिमा का उसी प्रकार आदर कर सकते हो?
क्या तुम इस अन्य का संहार किए बिना अपनी अद्वितीयता बरकरार रख सकते हो? क्या हिंसा से इनकार किया जाना सम्भव है? 
क्या यह किसी भी तरह मुमकिन है? या यह सब आदर्शवाद है? दार्शनिक सूसन सौंटेग ने लगता है इसी संदर्भ के लिए लिखा, 

‘सबसे बड़ा अपराध, आम तौर पर कला और संस्कृति के मामलों में, राजनीतिक जीवन की तो बात ही क्या, यही मालूम होता है कि बेहतर, ऊँचे अधिक मुश्किल मेयार में यक़ीन ज़ाहिर किया जाए। उसे या तो भोलापन कहा जाता है या अभिजनवादी!’

क्या कह रही हैं सूसन? भोला या अभिजनवादी! प्रेमचंद और अज्ञेय!!
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