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अमृता प्रीतम- ‘पहला विद्रोह रसोई में, फिर कोई बर्तन न हिन्दू रहा, न मुसलमान’

यह प्रसिद्ध पंजाबी साहित्यकार अमृता प्रीतम की 101वीं जयंती का साल है। उनका जन्म 31 अगस्त 1919 को हुआ था। 

अमृता प्रीतम की ज़िंदगी और साहित्य के सिलसिले में अख़बारों, पत्रिकाओं और सोशल मीडिया तथ्यों और क़िस्सों से भरे हुए हैं। बहुत कुछ कहा जा चुका है, बहुत कुछ जाना जा चुका है, ऐसे में ऐसी शख्सियत, जिसका कि जीवन न जाने कितने इतिहासों और घटनाओं का गवाह रहा हो, एक पुनर्पाठ की अपेक्षा तो रखता है और इसके बावजूद भी इतना संभावनाशील है कि अंतिम रूप से कुछ भी कहा नहीं जा सकता। और इसकी वजह भी है, क्योंकि एक ही अमृता में न जाने कितनी अमृताएँ हमें, देखने को मिलती हैं। एक अमृता, जो लेखिका है; एक, जो मानती थी कि वह साहिर के प्रेम के साये में कई जन्मों से चलती चली आ रही है; एक, जो इमरोज़ की जीवनसाथी है; एक, जिसने कि विभाजन की लपटों को क़रीब से जिया था; एक, जिसने कि प्रेम में स्वतंत्रता के अधिकार की वकालत की थी; एक, जिसने कि स्त्री विमर्श में एक नया अध्याय जोड़ा था और अंतत: एक वह अमृता जिसने कि अपने मन और जीवन में किसी भी प्रकार की विसंगति नहीं रखी थी।

अमृता की ज़िंदगी स्वयं एक खुली किताब थी, पर ज़रूरी है कि उनकी ज़िंदगी और साहित्य पर जो तथ्यों और विचारों की अब तक की शृंखला है उससे आगे बढ़ते हुए, कुछ ज़रूरी सवालों पर विमर्श किया जाए। मसलन, अमृता प्रीतम के व्यक्तित्व की व्याख्या क्या एक नए सिरे से होनी चाहिए? या उनके व्यक्तित्व की झलकियों को उनके साहित्य में ढूँढने का प्रयास किया जाना चाहिए? या उनकी रचनाओं के, साहित्य की दशा और दिशा में कुछ जोड़ने के योगदान का परीक्षण करना चाहिए? अमृता और नारीवादी आंदोलन के बीच क्या कोई संबंध देखना चाहिए? उनके साहित्य की कमियों पर भी क्या विमर्श करना चाहिए? इत्यादि। और इन सवालों से गुज़र कर ही सही अर्थों में अमृता प्रीतम के व्यक्तित्व और कृतित्व को एक तार्किक संवेदना के साथ समझा और परखा जा सकता है।

साहित्य से ख़ास

अमृता के जीवन की झलकियाँ सबसे प्रामाणिक रूप में उनकी आत्मकथा, रसीदी टिकट, The Revenue Stamp (मूल रूप से पंजाबी में रचित, 1976), में मिलती हैं। यह आत्मकथा पारंपरिक अर्थों में आत्मकथा की तरह नहीं है, जिसमें जीवन का एक सिलसिलेवार ढंग से वर्णन किया जाता है। जिस तरह की उन्मुक्तता हम अमृता प्रीतम के व्यक्तित्व में पाते हैं, ठीक कुछ उसी प्रकार की स्वच्छंदता हमें रसीदी टिकट की लेखन शैली में दिखलाई पड़ती है। मन की स्वच्छंद उड़ान की तरह ही यहाँ भी उन्होंने, अपनी ज़िंदगी के भी उन्हीं क्षणों को दिखलाया है, जहाँ पर उनका हृदय रमा था।

पश्चिमी पंजाब के गुजरांवाला में 31 अगस्त 1919 को नन्द साधु (कर्तार सिंह हितकारी) और राज बीबी की इकलौती संतान के रूप में जन्मी अमृता के जन्म के पीछे भी एक कहानी ही है। स्वयं अमृता के शब्दों में:

“माता-पिता, दोनों ही पंचखण्ड भसोड़ के जिस स्कूल में पढ़ाते थे, वहीं, वहाँ के मुखिया बाबू तेजासिंह की बेटियाँ भी पढ़ती थीं। पता नहीं एक दिन उन बच्चियों को जाने क्या सूझा कि दोनों ने ही मिलकर गुरुद्वारे के कीर्तन में प्रार्थना करते हुए अंत में कह दिया कि ‘दो जहानों के मालिक! हमारे मास्टरजी के घर एक बच्ची बख्श दो।’ उन बच्चियों ने यह प्रार्थना क्यों की? उनके किस विश्वास ने सुन ली? मुझे कुछ नहीं मालूम, पर यह सच है कि साल के अंदर राज बीबी, ‘राज माँ’ बन गईं।"

पिता, नन्द साधु एक धार्मिक व्यक्ति थे और पीयूष नाम से, स्वयं संस्कृत, ब्रजभाषा इत्यादि में धार्मिक कवितायें लिखा करते थे। अमृता के जन्म होने पर पीयूष का ही पंजाबी उल्था कर के अमृत नाम, बेटी को इन्होंने दिया, और स्वयं ‘हितकारी’ नाम से कविता करने लगे। पर यह विधि का ही विधान था कि महज 11 साल की उम्र में अमृता की माँ का देहांत हो गया और, इसके साथ ही भले ही अल्पकाल के लिए ही सही, ईश्वर से बच्ची अमृता का भरोसा भी उठ गया। माँ की इस असमय मृत्यु से बचपन के दिन नितांत अकेलेपन में बीते और इन्हीं दिनों की प्रतिक्रिया थी कि अमृता कविता के लिए उन्मुख हुईं। 

पिता के कठोर अनुशासन और घर के धार्मिक माहौल ने हालाँकि इस रुझान को शुरुआत में केवल धार्मिक, पौराणिक रचनाओं तक ही सीमित रखा और ‘अमृत लहरें’ नाम से उनकी पहली रचना महज़ 16-17 साल में आ गयी।

हाँ शिक्षा का जहाँ तक सवाल था, अमृता की एकमात्र औपचारिक डिग्री, ज्ञानी पंजाबी वर्णाकुलर डिप्लोमा भर थी। अपने कविता लिखने के संदर्भ में अमृता कहती थीं:

“काफ़िये-रदीफ़ का हिसाब समझाकर मेरे पिता ने चाहा था मैं लिखूँ। लिखती रही-मेरा खयाल है पिता की नज़र में जितनी भी अनचाही थी, वह भी चाही बनने के लिए। …मेरे पिता को मेरे कविता लिखने पर आपत्ति नहीं थी, …केवल उनका आग्रह था कि मैं धार्मिक कवितायें लिखूँ और मैं आज्ञाकारी बच्ची की तरह वही दक़ियानूसी कवितायें लिख देती थी”।

पर शायद वह उम्र का सोलहवाँ साल था जिसने, स्वयं अमृता के शब्दों में, “एक चोर की तरह दबे पाँव जीवन में प्रवेश किया था”, और प्रेम की कोमल कवितायें लिखने के लिए प्रेरित किया, पर इस प्रेम की  अभिव्यक्ति अभी भी दबी हुई थी और पिता के कठोर अनुशासन तले भी, न जाने कितनी प्रेम कवितायें लिख-लिख कर उन्होंने फाड़ दिया, हालाँकि यह उनके विद्रोही मन की ही एक अभिव्यक्ति थी। 

अमृता के इस विद्रोही व्यक्तित्व की बनावट किसी एक निश्चित और नियत दिन की योजना नहीं थी, बल्कि इस व्यक्तित्व का निर्माण तो बचपन से ही होता जा रहा था। अपने ‘सबसे पहले विद्रोह’ का क़िस्सा वह, कुछ यूँ सुनाती हैं:

“रसोई में नानी का राज होता था। सबसे पहला विद्रोह मैंने उसके राज में किया था। देखा करती थी कि रसोई की एक परछत्ती पर तीन गिलास, अन्य बर्तनों से हटाये हुए, सदा एक कोने में पड़े रहते थे। ये गिलास सिर्फ़ तब परछत्ती से उतारे जाते थे जब पिताजी के मुसलमान दोस्त आते थे। ...सो उन तीन गिलासों के साथ में भी एक चौथे गिलास की तरह रिल-मिल गयी और हम चारों नानी से लड़ पड़े। वे गिलास भी बाकी बर्तनों को नहीं छू सकते थे, मैंने भी ज़िद पकड़ ली कि मैं और किसी बर्तन में न पानी पियूँगी, न दूध-चाय।...सो बात पिता जी तक पहुँच गयी। पिताजी को इससे पहले पता नहीं था कि कुछ गिलास इस तरह अलग रखे जाते हैं। उन्हें मालूम हुआ, तो मेरा विद्रोह सफल हो गया। फिर कोई बर्तन न हिन्दू रहा, न मुसलमान”।

विद्रोह की झलक

इसीलिए जिस विद्रोही तेवर को हम उनकी रचनाओं में देखते हैं, चाहे, वह विरोध सामाजिक मान्यताओं से हो, पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था में स्त्री की स्वायत्तता को कुचलने की प्रथा से हो या प्रेम जैसी भावनाओं को पुरुषों के एकाधिकार में सीमित कर दिये जाने की परंपरा से हो, उस विद्रोह की झलक बचपन में ही दिख गयी थी। 

अमृता जिस तरह के परिवेश से थीं, जिस समय से थीं, उन सबसे निकलकर अमृता प्रीतम बनने की राह कोई सरल नहीं थी ख़ासकर कि जब इसमें उनके स्त्री होने का एक पक्ष भी मिला हुआ था। वरना, एक घोर पारंपरिक परिवार की अकेली संतान, जिसे 16-17 वर्ष की अवस्था में ही ब्याह दिया गया हो, उसके एक ऐसी स्त्री बन कर रह जाने में कोई अचंभे की बात न थी, जहाँ वह घर-परिवार के दायरे में सीमित, अपनी गृहस्थी को बसाये रखतीं। पर इन सबके विपरीत, अपने लेखन को ज़िंदगी की पहली प्राथमिकता बनाना और इससे ज़्यादा अपने मन की स्वतंत्रता को बचाए रखने के लिए, पारिवारिक-सामाजिक सुरक्षा की आहुति दे देने में ज़्यादा साहस और ईमानदारी की ज़रूरत थी, जो उनमें थी। और इसलिए हमें उनके बाहरी कर्म-क्षेत्र और आंतरिक जीवन में कहीं भी कोई विरोध या द्वैत नहीं दिखता है, क्योंकि जिस तरह का जीवन अमृता जी रही थीं, जिस तरह के आदर्शों को ज़िंदगी माना था, वही सब कुछ वह अपनी रचनाओं में भी निभा रही थीं। संभवतः यह विशेषता ही उन्हें अपने समय और परिवेश से कहीं आगे और प्रगतिशील सिद्ध करता है। अमृता के लिए जो कुछ निजी था, वो एक अर्थ में राजनीतिक भी था, क्योंकि जिस तरह से अपनी ज़िंदगी के विषय में खुल कर उन्होंने लिखा था, वह एक अर्थ में सामाजिक-राजनीतिक परिवेश में वर्जनाओं को चुनौती देने वाला था, महज़ एक उदाहरण के तौर पर अगर लें, तो उनका सिगरेट पीना और उसके विषय में खुल कर लिखना, एक सामाजिक टैबू को तोड़ना ही था।

अमृता के लिए लेखन व्यक्तित्व की स्वायत्तता का मसला था, जिसके लिए वह कोई भी क़ीमत चुकाने के लिए तैयार थीं। रसीदी टिकट में वह लिखती हैं: “यूँ तो मेरे भीतर की औरत सदा मेरे भीतर के लेखक से दूसरे स्थान पर रही है… कई बार यहाँ तक कि मैं अपने भीतर की औरत का अपने आपको ध्यान दिलाती रही हूँ। ‘सिर्फ लेखक’, का रूप सदा इतना उजागर होता है कि मेरी अपनी आँखों को भी अपनी पहचान उसी में मिलती है।"

और यही वजह है कि अमृता जीवन पर्यंत लिखती रहीं। उन्होंने, सौ से भी ज़्यादा रचनाएँ, लगभग साहित्य की हर विधा में रचीं। हाँ, उनकी रचनाओं का स्वर समय-समय पर बदलता रहा है। विभाजन पूर्व के लाहौर में प्रेम और रोमानियत से आकंठ कवितायें, जिसमें लोक संस्कृति का तत्व घुला-मिला था, आगे चल कर प्रगतिवादी आंदोलन के सानिध्य में आने पर अधिक यथार्थवादी आग्रह के साथ दिखने लगा 

1940 के दशक में वह समाज सेवा से जुड़ीं और उन्होंने लाहौर रेडियो स्टेशन में काम भी किया और इन सब ने, जीवन के, उनके अनुभव को और गहराया और समाज के वंचितों और ख़ासकर स्त्रियों के प्रति उनकी संवेदना को बड़ा प्रभावित किया। यह सब उनकी 1940 के बाद की कविताओं में उभर कर आया जिससे कि उनके काव्य में न केवल सामाजिक सोद्देश्यता का पुट मिल गया बल्कि एक क़िस्म की राजनीतिक आक्रामकता भी आ गयी। अपने ‘लोक पीड़’ कविता संग्रह में जिस प्रकार से 1944 के बंगाल के अकाल का वर्णन उन्होंने किया, उससे उनकी सामाजिक पक्षधरता स्पष्ट दिखने लगी।

28 वर्ष की उम्र में अमृता ने, स्वयं एक पंजाबी शरणार्थी के रूप में न केवल 1947 के विभाजन की हिंसा को अपनी आँखों से देखा, बल्कि वह अपने शहर लाहौर से विस्थापित होकर दिल्ली आयीं। विभाजन के दौरान जिस ख़ून-ख़राबे के अनुभव से वह गुजरी थीं, उसी ने अमृता के साहित्य में मानवीयता को एक केन्द्रीय तत्व बना दिया।

इस युगांतरकारी घटना की पीड़ा को उनकी कई कविताओं, कहानियों और उपन्यासों में देखा जा सकता है। मसलन, ‘पिंजर’ (1955), में उन्होंने विभाजन के दौरान हुई हिंसा की पीड़ित स्त्रियों को जिस मार्मिकता और विश्वसनीयता से चित्रित किया है, उसने इतिहास के एकतरफ़े राजनीतिक चित्रण का साहित्यिक विकल्प प्रस्तुत किया है।

विभाजन के सांस्कृतिक-सामूहिक शोक की सबसे जीवंत प्रस्तुति हालाँकि उन्होंने अपनी सबसे मर्मस्पर्शी कविता/नज़्म जिसमें उन्होंने, पंजाब के प्रसिद्ध सूफी-संत वारिस शाह (1722-1798)  को संबोधित किया था, में की है। यह कविता, इतिहास के एक ऐसे अहम मोड़ की उपज है, जिसने लोगों की संवेदनाओं को कहीं गहरे में झकझोरा था। इस कविता की लोकप्रियता का आलम यह था कि फ़ैज़-अहमद-फ़ैज़ ने जेल में ही यह कविता पढ़ी थी और जब वहाँ से बाहर आए तो देखा था कि किस तरह पाकिस्तान में लोग अपनी जेबों में इस कविता को लिए घूम रहे थे।

हालाँकि इसी कविता ने उन्हें विवादों के घेरे में भी खड़ा किया, जब पंजाब में कई दलों ने इस बात पर आपत्ति की कि एक सिख होने के कारण इस कविता में गुरु नानक देव (सिखों के आदि गुरु) को स्मरण करने की बजाय एक मुसलमान सूफ़ी संत को क्यों याद किया गया है? हद तो तब हो गयी जब यह कहा जाने लगा कि इसमें लेनिन या स्टालिन को याद किया जाना चाहिए था। 

पर वारिस शाह, को याद करना, दरअसल उस साझी संस्कृति को याद करना था, जो कभी पाँच नदियों की भूमि की विशेषता थी। जिस धरती पर अमन और भाईचारे की मिसालें, पीढ़ियाँ दिया करती थीं, वही एकाएक विभाजन के साथ, एक दुःस्वप्न में बदल गयी। धार्मिक उन्माद में अंधी हो गयी क़ौमों ने स्त्रियों पर जिस-जिस तरीक़े से हिंसा की, उसकी व्यथा को एक बार फिर से वाणी देने के लिए भी तो याद, उसी संत को किया जाना चाहिए जिसने कभी इसी पंजाब की धरती पर जन्मी ‘हीर’ की पीड़ा को वाणी दी थी।

“अज्ज आखाँ वारिस शाह नूं, कितों कबरां विच्चों बोल

ते अज्ज किताब-ए-इश्क़ का कोई अगला वरका फोल

एक रोइ सी धी पंजाब दी, तुं लिख-लिख मारे वैन

अज्ज लखां धियां रोन्दियाँ तैनु वारिस शाह नूं कहन

वे दरदमन्दां दिया दरदिया, उठ तक्क अपणा पंजाब

अज्ज वेले लाशां विचियां ते लहू दी भरी चिनाव

किसे ने पंजां पाणियां विच दित्ती ज़हर मिला

ते उणां पाणियां धरत नूं दित्ता पाणी ला”

लेखक खुशवंत सिंह, जिन्होंने इस कविता का अँग्रेज़ी में अनुवाद किया था, एक जगह लिखते हैं कि “उन चंद पंक्तियों ने अमृता प्रीतम को भारत और पाकिस्तान, दोनों, में अमर कर दिया”।

विभाजन की पीड़ा को और भी कई कवियों ने अपनी-अपनी तरह से ध्वनि दी है, पर अमृता की यह कविता अपने आप में एक इतिहास बन गयी।

आगे चल कर, प्रगतिवादी लेखक संघ के सानिध्य में आने पर अमृता के लेखन का रुझान थोड़ा और समाजवादी हुआ। हालाँकि स्वयं अमृता अपने साक्षात्कार में यह स्वीकार करती थीं कि वो मार्क्सवादी नहीं हैं और किसी भी विचारधारा से जुड़ने से उन्हें खासा परहेज है। पूर्व सोवियत संघ, भले ही वो कई बार लेखन के सिलसिले में गईं थीं, पर ख़ुद को समाजवादी कहे जाने से सहमत नहीं थीं। इतना ही नहीं, सन 1971 में, अमृता ने सोवियत समर्थित “एफ्रो-एशियन राइटर्स कान्फ्रेंस” जिसका आयोजन मुल्क राज आनंद और सज्जाद ज़हीर कर रहे थे, में हिस्सा लेने से मना कर दिया था। 

पर इसका यह अर्थ बिलकुल न था कि अमृता मानवीय सरोकारों से रहित कला को केवल कला के लिए लिख रही थीं। मसलन, अपने अंतिम दिनों तक भी, अमृता की लेखकीय प्रतिबद्धता मानववादी मूल्यों के लिए इतनी सघन थी कि गुजरात दंगों के बाद अपने घर आए एक अतिथि से उन्होंने अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए कहा था-

हम इंसान इतना झगड़ते क्यों हैं? क्या हम उन फूलों की तरह नहीं हो सकते, जो सभी इतने सुंदर होते हैं पर कभी भी एक-दूसरे से जलते नहीं।


अमृता प्रीतम

अमृता प्रीतम की रचना शक्ति का एक और महत्वपूर्ण पड़ाव, कागज़ ते कैनवास (1970) से आया। इस काव्य संग्रह में अमृता की पुरानी काव्यात्मकता कहीं दूर छूटी हुई दिखती है। अमृता के मित्र, साहित्यकार, सती कुमार ने इस रचना के विषय में लिखा है: “अमृता के सोफ़े पर बैठे हुए, हमने हर शब्द, हर हर्फ़ को सिलसिलेवार रूप से देखा, और बस इस सिद्धान्त पर अडिग रहे कि, कहीं भी तुकबंदी न हो और कहीं भी फूलों के जाल न बिछाये गए हों”। 

“एक कारख़ाना जंग का

रोज़ चिमनी में से आहों, और चीख़ों का धुआँ निकलता

राज सत्ता इसी कारखाने में तैयार होती है

लोग -मांस की गठरियाँ- सिर्फ कच्चा माल हैं

जो राजनीति के व्यापारी समय से खरीदते

और कारखाने की भट्टी पर सेंकते

ईश्वर : मांस की गठरियों का सिर्फ एक आढ़ती”

अमृता के साहित्य में ‘प्रेम’ की एक केंद्रीय भूमिका रही है। यहाँ पर प्रेम एक संवेदना है जो एक सर्वोच्च मानवीय मूल्य के रूप में आया है। पिंजर की ‘पूरो’, जो विभाजन के दौरान हुई हिंसा का साक्षात मानवीकरण थी, राशिद द्वारा अपहृत और उत्पीड़ित होने के बाद भी उसी रशीदे के प्रेम के बदले पाकिस्तान में ही बसने का निर्णय करती है, और अंततः प्रेम को ही सर्वोपरि मानवीय मूल्य सिद्ध करती है जो तमाम नफ़रत, हिंसा और पीड़ा के बाद भी शेष रहता है।

अमृता को सम्मानित साहित्य अकादमी पुरस्कार भी अपने कविता संग्रह, ‘सन्हेड़े’ के लिए मिला था, जिसमें उन्होंने साहिर के प्रति अपने प्रेम को ही कविताओं की शक्ल दी थी। साहित्य अकादमी प्राप्त करने वाली, अमृता पहली महिला लेखिका थीं। मशहूर शायर साहिर लुधियानवी और अमृता के प्रेम के क़िस्से अगर मशहूर-मक़बूल हुए तो उसकी वजह यह न थी कि, इनका प्रेम सफल हुआ, बल्कि यह कि किस प्रकार ज़िंदगी भर, एक दूसरे के लिए असीम प्यार रख कर भी, एक मौन-सी सहमति रखते हुए दोनों अलग रहे। अमृता, जिनके लिए साहिर सार्त्र थे और वो उनकी सिमोन, ने स्वयं विवाहित रहते हुए भी अपने इस प्लेटोनिक प्रेम की गरिमा को बिना छुपाए, बनाए रखा।

रसीदी टिकट में साहिर के साथ अपने आकर्षण और प्रेम की खुली चर्चा अमृता ने की है। अमृता लिखती हैं:

“एक लंबा और सांवला-सा साया था, जब मैंने चलना सीखा, तो वो मेरे साथ चलने लगा। ...तब मैंने सिर्फ़ उसकी आवाज़ सुनी थी, और लगा, जिस पवन में उसकी आवाज़ मिल गयी थी, उस पवन में से एक महक आने लगी थी। और ज़िंदगी में पहली बार एहसास हुआ कि मैं ज़रूर उसके साये में चलती रही हूँ, शायद पिछले जन्म से। ...अचानक कई पतझड़ें एक साथ आ गईं, उसने बताया कि अब उसे मेरे शहर से चले जाना है। रोटी-रोज़गार का तक़ाज़ा था, और उस शाम उसने पहली बार मेरी नज़्में मांगी और मेरी एक तस्वीर मांगी। फिर अख़बारें, किताबें जैसे मेरे डाकिये हो गईं और मेरी नज़्में मेरे ख़त हो गए उसकी तरफ़”।

प्रेम की यह चेतना अमृता के स्वतंत्रचेता व्यक्तित्व की सबसे बड़ी ख़ासियत बनी। जब इमरोज़ ने उनकी ज़िंदगी में क़दम रखा तब, वह ख़ुद उम्र की 40वीं बसंत में प्रवेश कर रहीं थी, पर प्रेम के जिस ज्वार को उन्होंने महसूस किया, उसे कुछ इस तरह उन्होंने प्रकट किया: “तुम मिले/तो कितने ही जनम/ नब्ज़ बन कर/ मेरे बदन में धड़कने लगे/ अब कौन बैद मेरी नब्ज़ देखेगा”।

स्त्री की आकांक्षाओं और अस्तित्व पर अपनी लेखनी चलाने वाली अमृता के लिए, अपने निजी जीवन में अपने ‘अंदर की औरत’ से ज़्यादा महत्वपूर्ण अपने ‘अंदर की लेखिका’ ही थी, पर यह प्रेम ही था, जिसके प्रभाव से अमृता के अंदर की औरत, गाहे-बगाहे अपना सर उठाती थी। अमृता ने रसीदी टिकट में लिखा था:

“जब एक दिन साहिर आया था, तो उसे हल्का-सा बुखार चढ़ा हुआ था। उसके गले में दर्द था, साँस खिंचा-खिंचा था। उस दिन उसके गले और छाती पर मैंने ‘विक्स’ मली थी। कितनी ही देर मलती रही थी, और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खड़े-खड़े मैं पोरों से, उँगलियों से और हथेली से उसकी छाती को हौले-हौले मलते हुए सारी उम्र गुज़ार सकती हूँ। मेरे अंदर की “सिर्फ़ औरत” को उस समय दुनिया के किसी कागज़-क़लम की आवश्यकता नहीं थी”।   

साहिर को अपने अंतिम ख़त में उन्होंने लिखा:

“मैंने टूट के प्यार किया तुम से /क्या तुमने भी उतना किया मुझ से? 

भले ही साहिर और अमृता का रिश्ता ख़त्म हो गया, पर वे ताउम्र एक दूसरे को भूल नहीं सके। जब साहिर को अमृता और इमरोज़ के संबंध में पता चला, तो साहिर ने कहीं लिखा था:

“मुझे अपनी तबाहियों का कोई ग़म नहीं/ तुमने किसी से मुहब्बत निबाह तो दी”।

अमृता और साहिर की आख़िरी मुलाक़ात को अमृता की मित्र फ़हमीदा रियाज़ ने अपने आलेख,

“अमृता की साहिर से आख़िरी मुलाक़ात” में दर्ज़ किया है: “साहिर ने अमृता को जाते वक़्त कहा: तुम चली जाओगी, परछाइयाँ रह जाएँगी, कुछ-न-कुछ इश्क़ की रानाइयाँ रह जाएँगी”। 

प्रेम के बाद, अमृता के उपन्यासों की एक सबसे प्रमुख थीम रही है, स्त्री। खुशवंत सिंह ने अपनी किताब “हिस्ट्री ऑफ़ सिख्स: भाग 2” (1966), में अमृता के साहित्य के संदर्भ में बात करते हुए लिखा है:

“भले ही उनकी अपनी बाद की रचनाओं में उपदेशात्मकता का तत्व ख़त्म हो गया था, पर उनकी अधिकांश कविताओं और कथाओं के केंद्र में भारतीय स्त्री की उपस्थिति सबसे डॉमिनेंट थीम है”।  

उनके उपन्यासों जैसे कि एकता, कामिनी, अक्क-दा-बूटा, ऐनी, डॉक्टर देव, एक खाली जगह, इन सब में अमृता ने स्त्रियों का एक ऐसा संसार दिखलाया है, जहाँ पर वह एक ऐसे समाज में अपने प्रेम को मान्यता दिलवाने के लिए प्रतिबद्ध दिखती हैं, जहाँ पर प्रेम और यौन चेतना जैसी भावनाएँ सिर्फ़ पुरुषों के एकाधिकार में हैं। हमारे समाज में, हमेशा से, अपनी प्रेम-भावना को प्रकट करने की इजाज़त स्त्रियों को नहीं मिलती आई है और जिन स्त्रियों ने भी यह साहस किया है, उन पर तथाकथित चरित्रहीन होने के आरोप इसी समाज-व्यवस्था में लगते आये हैं। इसीलिए, अमृता की कहानियाँ हों या उपन्यास, उनकी स्त्री-पात्र, इस सामाजिक व्यवस्था के प्रतिरोध में खड़ी नज़र आती हैं। 

यह स्त्रीत्व के एक नए रूप को स्वीकार करने की धीमी लेकिन सतत प्रक्रिया है, क्योंकि यहाँ, एक स्त्री भी अपने प्रेम का प्रदर्शन कर सकती है और वह भी बिना इस डर के कि यह तथाकथित समाज उस पर चरित्रहीन होने का दोष नहीं लगाएगा। यह, स्त्री लेखन और नारीवादी आंदोलन के लिए अमृता के स्त्री पात्रों की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जा सकती है।

अमृता संभवतः पहली महिला कथाकार थीं, ख़ासकर पंजाबी साहित्य में, जिसने प्रेम की वह पारंपरिक छवि और उसके पूरे मिथक को तोड़ा, जहाँ पर महिलाएँ एक निष्क्रिय भूमिका निभाती थीं और पुरुष के प्रेम में, मौन सहभागी बनी रहती थीं।

पर सवाल यह भी उठता है कि इस प्रकार के चरित्र चित्रण के पीछे प्रेरणा क्या रही होगी? तो इसका उत्तर यह हो सकता है कि, इस प्रकार की चरित्र-योजना की छूट भी, अमृता को कहीं-न-कहीं अपने ख़ुद के जीवन के अनुभवों और विश्वासों से मिली। इसीलिए प्रेम और सम्बन्धों में जिस खुलेपन और ईमानदारी को अमृता ने निभाया वो उनके स्त्री-पात्रों में भी दिखता है। उनकी रचनाओं में जिस स्त्री आकांक्षा की अभिव्यक्ति हुई है, उसमें स्वयं उनकी, आत्माभिव्यक्ति का तत्व ज़्यादा है। महज़ 16 साल की उम्र में प्रीतम सिंह क्वात्रा, जो लाहौर के एक व्यापारी थे, से ब्याह दी गयी अमृता के लिए विवाह ने जैसे उनकी सृजनात्मकता के द्वार बंद कर दिये। अपने प्रेम रहित वैवाहिक जीवन से जिस असंतुष्टि का एहसास उन्हें हुआ था, वह उनकी कई कविताओं का आधार बना।

हालाँकि स्वयं अपने निजी जीवन में अमृता ने इस अनमेल विवाह के बंधन को सन 1960 में, मतलब विवाह के कोई चौबीस-पच्चीस साल बाद तोड़ दिया और यह अपनी आत्मा को भी एक प्रकार से मुक्त करने का ज़रिया बना। आगे चल कर जब इमरोज़ अमृता की ज़िंदगी में आए तो उम्र की ढलान पर खड़ी अमृता को एक स्थिरता और स्थायित्व की ज़मीन मिली। और इस अपारंपरिक प्रेम की साझेदारी, चालीस साल से भी ज़्यादा चली। सच में यह अपने समय से भी आगे की जीवन दृष्टि थी, जहाँ बिना किसी शर्त और बिना किसी विवाह में बंधे हुए, सिर्फ़ प्रेम और विश्वास के सहारे जीने का साहस था। और इसी प्रेम और विश्वास को अमृता ने अपनी कविता, संभवतः अंतिम कविता, में इमरोज़ को समर्पित किया। इन दोनों की चेतनाओं के संबंध को दिखलाती इस कविता में, शायद हर काल और हर देश के प्रेमियों के लिए, किसी-न-किसी रूप में एक बार फिर मिल जाने का विश्वास दिखाई पड़ता है। 

“मैं तैनू फ़िर मिलांगी

कित्थे? किस तरह पता नई

शायद तेरे ताखियल दी चिंगारी बण के

तेरे केनवास ते उतरांगी

जा खोरे तेरे केनवास दे उत्ते

इक रह्स्म्यी लकीर बण के

खामोश तैनू तक्दी रवांगी

जा खोरे सूरज दी लौ बण के

तेरे रंगा विच घुलांगी

जा रंगा दिया बाहवां विच बैठ के

तेरे केनवास नु वलांगी

पता नही किस तरह, कित्थे,

पर तैनू जरुर मिलांगी”

अमृता के साहित्य के साथ संबंध की एक और मिसाल थी, सन 1966 में अमृता का, पंजाबी साहित्य के लिए, नागमणि पत्रिका का सम्पादन शुरू करना, और यह संबंध भी, सन 2002 तक अनवरत चलता रहा। पंजाबी साहित्य की दुनिया में इस पत्रिका ने कई साहित्यिक नामों को पहचान दिलाई। शिव कुमार बटालवी, मंजीत तिवाना, अमितोज़, दलीप कौर तिवाना जैसे पंजाबी साहित्यकारों की पीढ़ी, नागमणि के साथ ही पली-बढ़ी। 

जहाँ तक अमृता के साहित्य की सीमाओं का प्रश्न है उसपर भी कई आलोचकों और लेखकों ने अपनी राय ज़ाहिर की है। मसलन, खुशवंत सिंह ने अमृता के साहित्य की सीमाओं पर बात करते हुए लिखा है:

“अमृता को जितनी सफलता अपनी कविताओं में मिली है, उतनी अपनी कहानियों में नहीं। उनकी कथाओं में चरित्र योजना कमज़ोर है और कथा का विन्यास इस प्रकार काल्पनिक लगता है कि, यथार्थ से अलग लगने लगता है”। 

रूस के भाषाविद, “आइगोर सेरेबरायाकोव” ने अपनी किताब पंजाबी साहित्य (1968), में कहा है:

“अमृता प्रीतम की सबसे बड़ी विशेषता है उनकी अतिशय काव्यात्मक भाषा। कथा-कहानियों में उनकी अपेक्षाकृत सीमित सफलता का कारण यह हो सकता है कि उपन्यास में समस्या-विधान के लिए उनका दायरा संकरा रहता था”। 

खुशवंत सिंह अमृता की विरासत पर बात करते हुए कहते थे कि “अमृता की तारीफ़ में जितने क़सीदे आज कहे जाते हैं, वह प्रायः उन लोगों द्वारा हैं, जिन्होंने उसे पढ़ा नहीं है। मेरी दृष्टि में उसके  कालजयी होने के पीछे बस उन दस पंक्तियों का हाथ है, जिसे उसने वारिस शाह को पुकार लगाते हुए लिखी थीं, वो चंद अविस्मरणीय पंक्तियाँ उसकी बाक़ी की रचनाओं के भुला दिये जाने के बाद भी अमर रहेंगी”।

बहरहाल, इस टिप्पणी पर वाद-विवाद लंबी की जा सकती है। पर अमृता के साहित्य और ख़ासकर पंजाबी साहित्य में उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। साहित्य, किसी भी भाषा में हो, उसकी कोई सीमा नहीं होती और इसकी वजह यह है कि मानवीय संवेदनाएँ, चाहे किसी भी भाषा में व्यक्त हों, शाश्वत और सार्वभौमिक होती हैं। अमृता प्रीतम की सख्शियत और रचनाओं की लोकप्रियता भी भाषा और संस्कृति की सीमाओं को लांघती हुई न केवल लगभग सभी भारतीय भाषाओं में आज मौजूद है बल्कि, इंग्लिश, फ्रेंच, डेनिश, जापानी और कई पूर्व-यूरोपीय भाषाओं में उनको पढ़ा और जाना जाता है।

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पूर्वी यूरोप के देशों में अमृता की लोकप्रियता इतनी बढ़ गयी थी कि, जॉर्जिया के प्रसिद्ध संगीतकार साल्वालामाह वेलीद्से ने कवि इराकाली आबासिडसे की कविता ‘अमृता प्रीतम’ के लिए धुन बनाई थी। इतना ही नहीं, 1980 में उन्हें बुल्गेरिया के वापतासारोव सम्मान से नवाज़ा गया। भारत में साहित्य के सर्वोच्च सम्मान, ज्ञानपीठ पुरस्कार से अमृता को उनकी रचना कागज़-ते-कैनवास के लिए, 1982 में सम्मानित किया गया।

अमृता के साहित्य में रची-बसी मानवता की ही मिसाल थी कि पाकिस्तानी साहित्यकारों के एक समूह ने तीन सूफियों के मज़ारों (वारिस शाह, बुल्ले शाह और सुल्तान बहू) पे चादर चढ़ाकर उन्हें भेंट में दिया था, जिसपर लिखा था: ‘आप हमारे वारिस की वारिस हैं’। अमृता हालाँकि अपनी कविता के विषय में कहती थीं: ‘मैंने सिर्फ़ वही लौटाया है जो इन पंच नदियों की धरती के संतों, सूफियों और फकीरों से सीखा है’। और फिर अपनी कविता की एक पंक्ति दुहराया करती थीं: ‘माण सच्चे इश्क दा है, हुनर दा दावा नहीं’।

और वास्तव में देखा जाये तो, अमृता प्रीतम की ज़िंदगी और उनका साहित्य, इश्क़ और इंसानियत की इबारत से बढ़ कर कुछ था भी तो नहीं।

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अदिति भारद्वाज

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