सुमित्रानंदन पंत छायावाद और सौंदर्य के अप्रतिम कवि। प्रकृति उनके विशाल शब्द-संसार की आत्मा है। पंत जी का जन्म 20 मई, 1900 में अल्मोड़ा के कौसानी गाँव में हुआ था। जन्म के कुछ समय बाद ही उनकी माँ चल बसीं। सात साल के होते-होते उन्हें शिद्दत से एहसास हुआ कि वह माँ की ममता से वंचित हैं। इसी उम्र में पहली कविता लिखी। इसमें बिछोह की अद्भुत प्रतिध्वनि है।
कौसानी यानी उनका गाँव मानो प्रकृति का अद्भुत दस्तख़त था। पंत जी वहाँ फूल से खिले। इस गाँव की प्रकृति को उन्होंने बाक़ायदा अपनी माँ माना और जीवनपर्यंत मानते रहे। बचपन में नेपोलियन का प्रभाव ग्रहण किया और उनकी तसवीर देखकर उन जैसे बाल रखने का निर्णय लिया और रखे भी। पिता ने नाम रखा था गुसाईं दत्त। यह उन्हें पसंद नहीं आया तो ख़ुद को सुमित्रानंदन पंत बना लिया।
उन्हें प्रकृति की संतान कहा जाता था। शब्द साधना का सफर बचपन से शुरू हुआ और संगीत साधना का भी। तब, जब आमतौर पर बचपन का एक नाम 'शरारत' भी होता है। लेकिन पंत जी के बचपन से शरारत सिरे से लापता थी। वहाँ कविता थी। संगीत था। काव्य सृजन के साथ-साथ वो हारमोनियम की धुन पर गीत भी गाते थे।
स्कूली शिक्षा अल्मोड़ा में हुई और उसके बाद बड़े भाई देवी दत्त के साथ काशी के क्वींस कॉलेज में दाखिल हुए। तब तक उनका कवि अक्स निखरकर सार्वजनिक हो चुका था। कविता छायावादी थी लेकिन विचार मार्क्सवादी और प्रगतिशील। गुरुवर रवींद्रनाथ टैगोर तक ने उनकी कविताओं का नोटिस लिया। माँ की ममता से वंचित और प्रकृति को अपनी माँ मानने वाले पंत 25 वर्ष तक केवल स्त्रीलिंग पर कविता लिखते रहे। उनके दौर में हिंदुस्तान में 'नारीवाद' तो नहीं था लेकिन नारी स्वतंत्रता के पक्ष में आवाज़ें उठती थीं और इनमें एक हस्तक्षेपकारी बुलंद आवाज़ सुमित्रानंदन पंत की भी थी।
उन्होंने कहा था, ‘भारतीय सभ्यता और संस्कृति का पूर्ण उदय तभी संभव है, जब नारी स्वतंत्र वातावरण में जी रही हो।’ एक कविता में उन्होंने लिखा:
‘मुक्त करो नारी को मानव,
चिर वंन्दिनी नारी को।
युग-युग की निर्मम कारा से,
जननी सखी प्यारी को।’
महात्मा गाँधी के प्रभाव में आकर वह पूरी तरह गाँधीवादी हो गए थे। पंत जी ने गाँधी की अगुवाई में चले असहयोग आंदोलन में सक्रिय योगदान दिया और इसका खामियाजा भी भुगता। हालात यहाँ तक आ गए कि उन्हें अल्मोड़ा की अपनी जायदाद बेचनी पड़ी। आर्थिक बदहाली के चलते उनकी शादी नहीं हुई। ताउम्र अविवाहित रहे। नारी उनके समूचे काव्य में विविध रूपों- मां, पत्नी, प्रेमिका और सखी- में मौजूद है। नारीत्व उनके वजूद-व्यवहार का स्थायी हिस्सा था।
सुमित्रानंदन पंत से वाबस्ता दो तथ्यों से बहुत कम लोग वाकिफ हैं। एक, भारत में जब टेलीविजन प्रसारण शुरू हुआ तो उसका भारतीय नामकरण दूरदर्शन पंत जी ने किया था। दूसरा, सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का नामकरण भी उन्होंने किया था।
हरिवंश राय बच्चन उनके सबसे क़रीबी और अच्छे दोस्तों में थे। अमिताभ आज भी सुमित्रानंदन पंत को पिता तुल्य मानते हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि पंत की एक-एक काव्य पंक्ति उन्होंने पढ़ी है और कभी-कभी वह उन्हें अपने पिता (बच्चन जी) से बड़े कवि लगते हैं।
पंत 1955 से 1962 तक प्रयाग स्थित आकाशवाणी केंद्र के मुख्य कार्यक्रम निर्माता तथा परामर्शदाता रहे।
उनकी कविता ने नारी चेतना और उसके सामाजिक पक्ष के साथ-साथ ग्रामीण जीवन के कष्टों और विसंगतियों को भी बख़ूबी ज़ाहिर किया है। पल्लव, ग्रंथि, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, स्वर्ण धूलि, कला और बूढ़ा चांद, सत्यकाम, गुंजन, चिदंबरा, उच्छ्वास, लोकायतन, वीणा आदि उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।
पंत- काव्य का फलक बेहद विस्तृत है। वह कालिदास, रविंद्र नाथ टैगोर और ब्रजभाषा के कतिपय रीतिवादी कवियों के असर में थे। वह निराला जी से दो वर्ष छोटे थे लेकिन निराला उनकी प्रतिभा के कायल थे। हालाँकि दोनों के बीच (पंत के कविता संग्रह) 'पल्लव' को लेकर हुआ अप्रिय विवाद आज भी साहित्य के इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है। हिंदी के शिखर आलोचना पुरुष डॉ. रामविलास शर्मा ने भी उस पर विस्तार से लिखा है। निराला जी ने पंत पर आरोप लगाया था कि 'पल्लव' की कविताएँ गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कविता की नकल हैं। इस पर पंत जी ने लगातार अपना एतराज़ दर्ज कराया। वह विवाद बहुत लंबा चला था।
बहरहाल, साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए सुमित्रानंदन पंत को पद्मभूषण, भारतीय ज्ञानपीठ और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कारों से नवाजा गया। छायावादी दौर के इस महत्वपूर्ण स्तंभ का जिस्मानी अंत 28 दिसंबर, 1977 को घातक दिल का दौरा पड़ने से हुआ। तब डॉ. हरिवंश राय बच्चन का कथन था कि सुमित्रानंदन पंत की मृत्यु से छायावाद के एक युग का अंत हो गया है।
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