कृष्ण जन्माष्टमी अभी गुजरी है। अमूमन इस रोज़ सोशल मीडिया पर उर्दू/मुसलमान शायरों की कृष्ण भक्ति या कृष्ण महिमा में लिखी गई कविताएँ उद्धृत की जाती रही हैं। इस वर्ष यह उत्साह कम दिखलाई पड़ा। क्या इसका कारण बदले हुए राजनीतिक माहौल के कारण पैदा हुई सांस्कृतिक निराशा है?
अंग्रेज़ी में लिखनेवाली एक (मुसलमान) लेखिका ने बतलाया कि उनसे एक टीवी चैनल ने मिली- जुली संस्कृति में योगदान करने वाली ऐसी रचनाओं के बारे में बतलाने को कहा जो मुसलमानों ने लिखी है, खासकर राम और कृष्ण पर! विडंबना तो यह है कि बाबरी मसजिद का ध्वंस करके उसी की ज़मीन पर एक राम मंदिर बनाने के अभियान में भी राम की महिमा बताने के लिए इक़बाल को उद्धृत किया जाता रहा है कि उन्होंने राम को इमामे हिन्द कहा है!
दूसरे धर्मों के प्रति उत्सुकता
क्या आपको इसका ख्याल कभी आया है कि वह चाहे बड़ा दिन हो, गुड फ्राइडे हो, ईद हो या हज़रत साहब का जन्म दिन या गुरु परब या किसी भी ग़ैर हिन्दू धर्म का कोई त्यौहार, शायद ही किसी हिंदी/हिन्दू लेखक की कविता या गद्य पंक्तियाँ ईसा, हज़रत मुहम्मद साहब या कर्बला की जंग पर याद की जाती हैं? क्यों हिन्दू रचनाकारों में दूसरे धर्मों के प्रति उत्सुकता नहीं के बराबर पाई जाती, आदर तो रहने ही दीजिए?
यही बात मिली-जुली संस्कृति का गान गाते हुए की जाती है। इस सम्बन्ध में होनेवाली अकादमिक और लोकप्रिय चर्चा में भी अक्सर यह दिखलाने की कोशिश होती है कि इसलाम पर कितना हिन्दू या ‘भारतीय’ रंग चढ़ गया है और वह कितना अरबी इसलाम से अलग हो गया है। मुसलमान तो हिन्दू धर्म, रीति-रिवाजों से परिचित हों, ईसाई भी, लेकिन हिन्दुओं को यह ज़रूरत शायद ही कभी महसूस हुई।
वे खुद को स्वतःसम्पूर्ण मानते रहे जिन्हें अन्य धार्मिक परंपराओं से परिचय की कतई आवश्यकता नहीं। क्या वे डरते हैं कि इनसे परिचय किया तो उनका विश्वास डगमगा जाएगा? क्या इसलिए दूसरे प्रभावों से दूर, एक बंद खोल में छिपे रहकर वे खुद को सुरक्षित कर लेते हैं?
हम इस शृंखला में सरोजिनी नायडू के उदात्त और ओजपूर्ण शब्द इसलाम की तारीफ़ में पढ़ चुके हैं। वे एक अर्थ में प्रेमचंद की समकालीन थीं। प्रेमचंद के ही दूसरे कनिष्ठ समकालीन थे जैनेंद्र। प्रेमचंद से बिलकुल अलग लेकिन जिन्हें प्रेमचंद खुद से मिलता जुलता मानते थे।
राष्ट्र और भौगोलिक सीमाओं में उसकी भावना को संकुचित करके राष्ट्रवाद के निर्माण के साथ हिंदुओं में इसलाम और ईसाइयत की भारतीयता के पर्याप्त और अंतिम होने पर संदेह होने लगा। इन दोनों पर भारतीय होने का जिम्मा था, यह दबाव कि इन्हें अपना हिंदूकरण करना है, लेकिन ऐसी कोई जिम्मेवारी हिंदुओं पर नहीं है। इस समस्या पर विचार करते हुए एक इंटरव्यू में जैनेंद्र ने कहा,
‘हिन्दू जातीय [जाति] आज सही अर्थों में उतनी उदार है, यह कहना कठिन है। इसलाम और ईसाइयत दोनों में एक निश्चित और एकाग्र धर्म श्रद्धा थी। इस दृष्टि से कह सकते हैं कि अमुक आवेश भी उनके पास था। भारतीय भूमि पर मैं मानता हूँ कि इसलाम आया, तो धीरे-धीरे उसका आवेश दब चला और जीतने से अधिक दिलचस्पी उसकी जीने में होने लग गयी।’
इस समझ पर बहस की जा सकती है, लेकिन आवेश, भावुकता और धार्मिक धाराओं के संबंध को लेकर जैनेंद्र की यह सूझ जो जीतने से अधिक जीने में दिलचस्पी को नोट करती है, ध्यान देने लायक है। आगे इसी इंटरव्यू में वे कहते हैं,
‘यों आप मुझसे पूछना चाहें तो मैं कहूँगा कि इसलाम के सहारे मुसलमान आज भी अधिक हार्दिक और भावुक है, उधर विचार और हिसाब के अतिरेक से हिन्दू अधिक स्वलिप्त और स्वनिष्ठ है।’
जैनेंद्र आम धारणा से ठीक उलट बात कर रहे हैं। हिंदुओं की आत्मग्रस्तता और मुसलमानों की हार्दिकता और भावुकता को इस तरह चिह्नित करने के लिए प्रेमचंदी दृष्टि चाहिए। और वह जैनेंद्र के पास है।
राष्ट्रवादी नज़रिए के कारण इसलाम और ईसाइयत स्थायी संदेह के घेरे में हैं क्योंकि वे प्रेरणा भारत की प्रादेशिक सीमा के बाहर से ग्रहण करते हैं। जैनेंद्र को इसे लेकर किसी प्रकार की कोई उलझन नहीं,
‘इसलाम को माननेवाला भारतीय अरब से अपनी स्फूर्ति लाता है, तो बुरा क्या करता है? स्फूर्ति तो उपयोगी चीज़ है। जीवन उससे समर्थ होता है, प्रश्न यह है कि क्या वह स्फूर्ति और जीवन- सामर्थ्य वापस जाकर अरब में ही खर्च होती है?...मुसलमान का देश भारत था, तीर्थ अरब था। उस तीर्थता से भारत को नुकसान क्या था? धर्म-भाव आदमी कहीं से भी प्राप्त करे, लाभ तो उसका आस पास के समुदाय को मिलता है।’
प्रेमचंद पर चर्चा के क्रम में जैनेंद्र को क्यों उद्धृत करें? क्योंकि हम मानते हैं कि जैसे भारतीय जीवन में हम गाँधी-तत्त्व की चिर-उपस्थिति यथार्थ है वैसे ही यह भी कि हिंदी चिंतन में प्रेमचंद तत्त्व की स्थायी उपस्थिति है।
इसलिए जिन्हें बाहरी और भीतरी का भेद सालता है, जो भारतीयता को अनिवार्यतः बाहरी प्रभावों से विभिन्न करके ही समझ सकते है, उनके लिए जैनेंद्र के इस इत्मीनान का कारण खोजने की आवश्यकता है। राष्ट्रवाद में भूमि की प्रधानता पर दुःख प्रकट करते हुए जैनेंद्र कहते हैं,
‘चेतना जहाँ से अपने लिए स्फूर्ति प्राप्त करे वह शुभ ही है। धर्म और स्फूर्ति का स्रोत अमुक प्रांत प्रदेश या देश में स्थावर होकर गड़ा हो, यह मोह मूढ़ता का ही है। भूमि का महत्त्व स्वयं व्यक्ति से होता है। उसको व्यक्ति और इन्सान के ऊपर चढ़ा देना भारी ग़लती है।’
प्रेमचन्द इसीलिए आध्यात्मिक स्फूर्ति का स्रोत कहीं भी हो, वहाँ तक जाकर वह पवित्र जल वे लाते हैं। उन्हें तकलीफ है कि सैंकड़ों सालों से साथ रहने के बावजूद हिंदू मुसलमानों की धार्मिक परम्पराओं से परिचित नहीं हैं। उन्हें उनकी मजहबी, श्रद्धेय शख्सियतों के बारे में कुछ भी मालूम नहीं। जैसा उनके बेटे ने ‘कलम का सिपाही’ में लिखा कि प्रेमचंद ने फर्ज समझा कि इस कमी की भरपाई की जाए। और इसके लिए मेहनत करनी होगी, आलस से कम न चलेगा।
‘नबी का नीति-निर्वाह’
‘नबी का नीति-निर्वाह’ एक तरह से इस दिशा में कर्तव्य निर्वाह है। लेकिन वह इतना भर ही नहीं है। बिना खुद इसलाम के प्रति सम्मानपूर्ण उत्सुकता के यह कहानी नहीं लिखी जा सकती थी। ‘नबी का नीति निर्वाह’ में नए धर्म के रूप में इसलाम के पाँव जमाने के वक़्त उसके संघर्ष की कथा कही गई है। नबी पैगंबर हैं, एक नवीन धार्मिक समुदाय के नेता। एक नए धर्म के प्रति सहानुभूति के बिना ये पंक्तियाँ नहीं लिखी जा सकती थीं। ये मुश्किलें शायद हर धर्म के हिस्से आती हैं:
'हजरत मुहम्मद को इलहाम हुए थोड़े ही दिन हुए थे, दस-पांच पड़ोसियों और निकट सम्बन्धियों के सिवा अभी और कोई उनके दीन पर ईमान न लाया था। ‘
वे धार्मिक सहिष्णुता के दिन न थे। बात-बात पर खून की नदियाँ बहती थीं। खानदान के खानदान मिट जाते थे। अरब की अलौकिक वीरता पारस्परिक कलहों में व्यक्त होती थी। राजनैतिक संगठन का नाम न था। खून का बदला खून, धनहानि का बदला खून, अपमान का बदला खून-मानव रक्त ही से सभी झगड़ों का निबटारा होता था।'
हज़रत एक पारिवारिक आदमी भी हैं। यह दृश्य:
'धर्म का अनुराग एक दुर्लभ वस्तु है, किन्तु जब उसका वेग उठता है तब बड़े प्रचण्ड रूप से उठता है। दोपहर का समय था। धूप इतनी तेज थी कि उसकी ओर ताकते हुए आँखों से चिनगारियाँँ निकलती थीं। हज़रत मुहम्मद अपने मकान में चिन्तामग्न बैठे हुए थे। निराशा चारों ओर अंधकार के रूप में दिखाई देती थी। खुदैजा भी पास बैठी हुई एक फटा कुर्ता सी रही थी। धन-सम्पत्ति सब कुछ इस लगन के भेंट हो चुकी थी। विधर्मियों का दुराग्रह दिनोंदिन बढ़ता जाता था। इसलाम के अनुयायियों को भाँति-भाँति की यातनाएँ दी जा रही थीं। स्वयं हज़रत को घर से निकलना मुश्किल था। खौफ़ होता था कि कहीं लोग उन पर ईंट-पत्थर न फेंकने लगें। खबर आती थी कि आज अमुक मुसलमान का घर लूटा गया, आज फलां को लोगों ने आहत किया। हज़रत ये खबरें सुन-सुनकर विकल हो जाते थे और बार-बार खुदा से धैर्य और क्षमा की याचना करते थे।'
पहला वाक्य प्रेमचंद की सूक्तियों में से एक है। धर्म के अनुराग के दुर्लभ होने और उसके वेग की प्रचंडता में क्या विरोध है? यह एक दार्शनिक प्रश्न है, व्यावहारिक भी। इस दृश्य में एक घिरे हुए शख्स के रूप में हज़रत की तसवीर जिसके पास पहले से इस मुश्किल से निकलने का रास्ता नहीं है। इसलाम और खुद हज़रत को मानवीयता प्रदान करनेवाला यह दृश्य क्यों महत्त्वपूर्ण है, यह आज इसलाम और हज़रत के ख़िलाफ़ जो घृणा प्रचार है, और वह प्रेमचंद के वक़्त भी कम न था, उसको ध्यान में रखकर ही समझा जा सकता है।
जैसे हज़रत, वैसे ही ईसा, सबने अपने समय में अपने यकीन की वजह से हिंसा झेली। अपने खिलाफ़ हिंसा का जवाब देने की जगह हज़रत ने मक्का छोड़ देने का फ़ैसला किया। :
'हजरत ने फरमाया - मुझे ये लोग अब यहाँ न रहने देंगे। मैं खुद सब कुछ झेल सकता हूँ पर अपने दोस्तों की तकलीफ नहीं देखी जाती।
खुदैजा - हमारे चले जाने से तो इन बेचारों को और भी कोई शरण न रहेगी। अभी कम से कम आपके पास आकर रो तो लेते हैं। मुसीबत में रोने का सहारा कम नहीं होता।
हजरत - तो मैं अकेले थोड़े ही जाना चाहता हूँ। मैं अपने सब दोस्तों को साथ लेकर जाने का इरादा रखता हूँ। अभी हम लोग यहाँँ बिखरे हुए हैं। कोई किसी की मदद को नहीं पहुँच सकता। हम बस एक ही जगह एक कुटुम्ब की तरह रहेंगे तो किसी को हमारे ऊपर हमला करने की हिम्मत न होगी। हम अपनी मिली हुई शक्ति से बालू का ढेर तो हो ही सकते हैं जिस पर चढ़ने का किसी को साहस न होगा।'
संकट का क्षण
कहानी की शुरुआत में ही कथाकार एक संकट का क्षण पैदा करता है, जिससे कथा बन और बढ़ सके। हज़रत ने नए धर्म की स्थापना की थी, लेकिन खुद उनके परिवार में सब उनके साथ न थे। उनकी बेटी जैनब और उनके दामाद अबुलआस भी दीक्षित न हुए थे। बेटी को तो फिर भी पिता के ज्ञानोपदेश सुन सुनकर नए धर्म के प्रति श्रद्धा हो चली थी, लेकिन दामाद उससे विरक्त थे। कारण यह न था कि इसलाम उनके धर्म से अलग था। धर्म के उदय के समय विचार की स्वतंत्रता से उसके द्वंद्व को आहिस्ता से रख देना भी प्रेमचंद का ही कौशल है। अबुलआस इतनी आसानी से इसलाम से प्रभावित हो जाएँ, यह उनकी इस आज़ादखयाली के मिजाज से मेल न खाता था :
जैनब, उनकी प्यारी बीवी भी द्वंद्व में है: इस ऊहापोह से आखिर वह खुद को आज़ाद कर लेती है और पिता से दीक्षा का अनुरोध करती है।
इस ऊहापोह से आखिर वह खुद को आज़ाद कर लेती है और पिता से दीक्षा का अनुरोध करती है।धर्म को अनुयायी चाहिए, लेकिन पिता की हिचक है कि बेटी एक दूसरे धर्मावलंबी समाज के साथ कैसे रहेगी। वे बेटी को कहते हैं कि अगर वह नए दीन पर ईमान ले आई तो पति से रिश्ता टूट जाएगा। जैनब को यकीन है कि एक दिन वह खुदा पर ईमान ले आएँगे।
हजरत को अबुलआस का विचार स्वातंत्र्य उसका अहंकार जान पड़ता है:
हजरत - बेटी, अबुलआस ईमानदार है, दयाशील है, सत्यवक्ता है, किन्तु उसका अहंकार शायद अन्त तक उसे ईश्वर से विमुख रखे है। वह तकदीर को नहीं मानता, आत्मा को नहीं मानता, स्वर्ग और नरक को नहीं मानता। कहता है, ‘सृष्टि-संचालन के लिए खुदा की ज़रूरत ही क्या है? हम उससे क्यों डरें? विवेक और बुद्धि की हिदायत हमारे लिए काफी है?’ ऐसा आदमी खुदा पर ईमान नहीं ला सकता। अधर्म को जीतना आसान है पर जब वह दर्शन का रूप धारण कर लेता है तो अजेय हो जाता है।'
आस्तिकता : सामूहिकता और आत्म विस्तार
जैनब इसलाम कबूल कर लेती है। अबलुलास के समुदाय में भारी विवाद छिड़ जाता है। दो भिन्न धर्मों के लोग पति-पत्नी कैसे हो सकते हैं। अबुलआस तो अपने उसूल के मुताबिक़ उसे इसलाम की बंदगी का अधिकार देते हुए पत्नी बनाए रखना चाहते हैं। उनकी अपने समाज से बहस होती है:
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