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मजाज़ : न हिंदू चला गया, न मुसलमान चला गया

तरक्की पसन्द और इन्कलाबी शायर मजाज़ लखनवी का आज जन्मदिन है। 19 अक्टूबर 1911 को उनको जन्म हुआ था। 

‘फ़िराक़ हूँ और न जोश हूँ मैं, मजाज़़ हूँ सरफरोश हूँ मैं।’

शेर-ओ-अदब की महफिल में जब भी रूमानियत और इंकलाबियत भरी ग़ज़लों-नज़्मों का ज़िक्र छिड़ता है, मजाज़ लखनवी का नाम अव्वल नंबर पर आता है। एक लंबा अरसा गुज़र गया, मगर मजाज़ की शायरी की धमक कम नहीं हुई। आज भी मजाज़, अवाम के महबूबतरीन शायर हैं।

मजाज़ के अलावा और भी ऐसे कई शायर हैं, जिन्हें अपने ज़माने में ख़ूब शोहरत मिली लेकिन मजाज़ की मकबूलियत कुछ और ही है। मजाज़ के समूचे कलाम में दिलों के अंदर उतर जाने की जो कैफियत है, वह बहुत कम लोगों को नसीब हुई है। मजाज़ की ख़ूबसूरत, पुरसोज शायरी के पहले भी सभी दीवाने थे और आज भी उनकी मौत के इतने सालों बाद, यह दीवानगी ज़रा सी कम नहीं हुई है। मजाज़ सरापा मुहब्बत थे। तिस पर उनकी शख्सियत भी दिलनवाज थी।

वह जब अपनी सुरीली आवाज़ और ख़ूबसूरत तरन्नुम में नज़्म पढ़ते तो चारों और खामोशी पसर जाती। सामयीन उनकी नज़्मों में डूब जाते। बाज आलोचक उन्हें उर्दू का कीट्स कहते थे तो फ़िराक़ गोरखपुरी की नज़र में-

‘अल्फाजों के इंतखाब और संप्रेषण के लिहाज से मजाज़, फ़ैज़़ के बजाय ज़्यादा ताक़तवर शायर थे।’

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एक दौर था, जब मजाज़ उर्दू अदब में आंधी की तरह छा गए थे। आलम यह था कि जब वह अपनी कोई नज़्म लिखते, तो वह प्रगतिशील रचनाशीलता की एक बड़ी परिघटना होती। लोग उस नज़्म पर महीनों चर्चा करते। उर्दू अदब में ऐसा एहतराम बहुत कम शायरों को हासिल हुआ है।

लखनऊ के एक पुराने कस्बे रुदौली में 19 अक्टूबर, 1911 को असरारुल हक यानी मजाज़ की पैदाइश हुई। उनकी शुरुआती तालीम लखनऊ में ही हुई। उसके बाद उन्होंने आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज में दाखिला ले लिया। आगरा में उस्ताद शायर फानी बदायूंनी, अहसन मारहरवी और मैकश अकबराबादी की शायराना संगत मिली। या यूँ कहें कि इन उस्ताद शायरों की शागिर्दी में उन्होंने शायरी का हुनर सीखा। मजाज़ ने अपनी शुरुआती शायरी में उनसे ज़रूरी इस्लाह ली। सच बात तो यह है कि फानी बदायूंनी ने ही उन्हें ‘मजाज़’ का तखल्लुस दिया। कॉलेज में मुइन अहसन जज्बी और आले अहमद सुरूर उनके दोस्त थे। ज़ाहिर है इस माहौल में मजाज़ के अंदर भी शायरी की जानिब मोहब्बत जागी। अदबी महफिलों में शिरकत करने के साथ-साथ वह भी शे’रगोई करने लगे।

दीगर शायरों की तरह मजाज़ की शायराना ज़िंदगी की इब्तिदा, गजलगोई से हुई। शुरुआत भी लाजवाब-

‘तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए

इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए

इस महफ़िल-ए-कैफ़-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में

सब जाम-ब-कफ़ बैठे ही रहे हम पी भी गए छलका भी गए।’

लेकिन चंद ही ग़ज़लें कहने के बाद, मजाज़ नज़्म के मैदान में आ गए। आगे चलकर नज़्मों को ही उन्होंने अपने राजनीतिक सरोकारों की अभिव्यक्ति का वसीला बनाया। अलबत्ता बीच-बीच में वह ज़रूर ग़ज़ल लिखते रहे।‘

‘कुछ तुझ को ख़बर है हम क्या क्या ऐ शोरिश-ए-दौराँ भूल गए

वो ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ भूल गए वो दीदा-ए-गिर्यां भूल गए।’

मजाज़ के आगे की तालीम अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी में हुई। अलीगढ़, उस वक़्त क्रांतिकारी ख्याल रखने वाले तालिब इल्मों और उस्तादों का गढ़ बना हुआ था। अली सरदार जाफरी, सिब्ते हसन, जांनिसार अख्तर, हयातुल्लाह अंसारी, जज्बी, सआदत हसन मंटो, इस्मत चुगताई, ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे उर्दू अदब के बड़े नाम उस वक्त एक साथ, वहाँ तालीम ले रहे थे। इस अदबी माहौल का असर मजाज़ की शख्सियत पर भी पड़ा और यही वह ज़माना था जब उन्होंने ‘इंकलाब’, ‘नज्रे-खालिदा’ और ‘रात और रेल’ जैसी अपनी मकबूल नज़्में लिखीं। अपनी शायरी से थोड़े से ही अरसे में मजाज़ नौजवान दिलों की धड़कन बन गए। उनके शे’र, हर एक की जबान पर आ गए। ऐसे ही उनके ना भुलाए जाने वाले कुछ मशहूर शे’र हैं - 

‘जो हो सके, हमें पामाल करके आगे बढ़

न हो सके, तो हमारा जवाब पैदा कर।’

‘सब का मदावा कर डाला, अपना ही मदावा कर न सके सबके तो गिरेबां सी डाले अपना ही गिरेबां भूल गए।’

‘ये आना कोई आना है कि बस रस्मन चले आए

ये मिलना ख़ाक मिलना है कि दिल से दिल नहीं मिलता।’

 ‘वक़्त की सई-ए-मुसलसल कारगर होती गई

ज़िंदगी लहज़ा-ब-लहज़ा मुख़्तसर होती गई।’

‘हिन्दू चला गया न मुसलमाँ चला गया

इंसाँ की जुस्तुजू में इक इंसाँ चला गया।’

अपनी तालीम पूरी करने के बाद, मजाज़ दिल्ली चले गए। जहाँ उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो में एक-दो साल मुलाजमत की। लेकिन उन्हें यह नौकरी रास नहीं आई, लिहाज़ा वह वापस लखनऊ आ गए। लखनऊ उस वक्त तरक्की पसंद अदीबों का अड्डा बना हुआ था।

सज्जाद जहीर, डॉ. रशीद जहाँ, डॉ. अब्दुल अलीम, एहतिशाम हुसैन, हयातुल्लाह अंसारी, अहमद अली जैसे आला दर्जे के अदीब यहाँ एक साथ सक्रिय थे। मजाज़ भी इस ग्रुप में शामिल हो गए। लखनऊ में मजाज़ ने सिब्ते हसन और अली सरदार जाफरी के साथ मिलकर पहले ‘परचम’ और बाद में साल 1939 में ‘नया अदब’ रिसाला निकाला, जो बाद में तरक्की पसंद तहरीक का मुख्यपत्र बन गया। बहरहाल ‘आवारा’ वह नज़्म है, जिसने मजाज़ को एक नई पहचान दी। मजाज़ का दौर मुल्क की आज़ादी की जद्दोजहद का दौर था। बरतानवी हुकूमत की साम्राज्यवादी नीतियों और सामंतवादी निजाम से मुल्क में रहने वाला हर बाशिंदा परेशान था।

‘आवारा’ पूरी एक नस्ल की बेचैनी की नज़्म बन गई। नौजवानों को लगा कि कोई तो है, जिसने अपनी नज़्म में उनके ख्यालों की अक्काशी की है। ‘आवारा’ नज़्म पर यदि गौर करें, तो इस नज़्म की इमेजरी और काव्यात्मकता दोनों रूमानी है, लेकिन उसमें एहतेजाज और बगावत के सुर भी हैं। यही वजह है कि वह नौजवानों की पंसदीदा नज़्म बन गई। आज भी यह नज़्म नौजवानों को अपनी ओर, उसी तरह आकर्षित करती है।

‘शहर की रात और मैं नाशादो-नाकारा फिरूं

जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूं

गैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं

ए-गमे-दिल क्या करूं ऐ वहशते-दिल क्या करूं।’

‘आवारा’ पर उस दौर की नई पीढ़ी ही अकेले फिदा नहीं थी, मजाज़ के साथी शायर भी इस नज़्म की तारीफ़ करने से अपने आप को नहीं रोक पाए। उनके जिगरी दोस्त अली सरदार जाफरी ने लिखा है- 

‘यह नज़्म नौजवानों का ऐलाननामा थी और आवारा का किरदार उर्दू शायरी में बगावत और आज़ादी का पैकर बनकर उभर आया है।’

जाफरी यहीं नहीं रुक जाते, वह इस नज़्म के इन अश्आरों का हवाला देते हैं-

‘‘लेके इक चंगेज के हाथों से खंजर तोड़ दूं

ताज पर उसके दमकता है जो पत्थर तोड़ दूं

कोई तोड़े या ना तोड़े मैं ही बढ़कर तोड़ दूं

ए-गमे-दिल क्या करूं ऐ वहशते-दिल क्या करूं।’’

इस हवाले से वह लिखते हैं-

‘किसी तरक्कीयाफ्ता जुबान की शायरी को, जिसके पास पांच सौ बरस की रिवायत हो, कोई नया तसव्वुर देना मामूली बात नहीं है।’

इस नज़्म के अलावा मजाज़ की ‘शहरे-निगार’ ‘एतराफ’ वगैरह नज़्मों का भी कोई जवाब नहीं। ख़ास तौर पर जब वह अपनी नज़्म ‘नौ-जवान से’ में नौजवानों को खिताब करते हुए कहते थे-

‘जलाल-ए-आतिश-ओ-बर्क़-ओ-सहाब पैदा कर

अजल भी काँप उठे वो शबाब पैदा कर

...तू इंक़लाब की आमद का इंतिज़ार न कर

जो हो सके तो अभी इंक़लाब पैदा कर।’

तो यह नज़्म, नौजवानों में एक जोश, नया जज्बा पैदा करती थी। उनमें अपने मुल्क के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा जाग उठता था। वे अपने वतन पर मर मिटने को तैयार हो जाते थे। वतनपरस्ती और मुल्क के जानिब मुहब्बत जगाती उनकी एक और मक़बूल नज़्म ‘हमारा झंडा’ के चंद अश्आर हैं-

‘शेर हैं चलते हैं दर्राते हुए

बादलों की तरह मंडलाते हुए

लाख लश्कर आएँ कब हिलते हैं हम

आँधियों में जंग की खिलते हैं हम

मौत से हँस कर गले मिलते हैं हम

आज झंडा है हमारे हाथ में।’

मजाज़ अपनी शायरी से कम अरसे में ही तालीमयाफ्ता नौजवानों, उनमें भी ख़ास तौर पर लड़कियों के महबूब शायर बन गए। मजाज़ जिस दौर में लिख रहे थे, उस दौर में फ़ैज़़ अहमद फ़ैज़़, अली सरदार जाफरी, मख्दूम, मुईन अहसन जज्बी आदि भी अपनी शायरी से पूरे मुल्क में धूम मचाए हुए थे। लेकिन वे इन शायरों में सबसे ज़्यादा मकबूल और दिलपसंद थे। मजाज़ की ग़ैर-मामूली शोहरत के बारे में मशहूर अफसानानिगार इस्मत चुगताई ने लिखा है-

“जब उनकी किताब ‘आहंग’ प्रकाशित हुई, तो गर्ल्स कॉलेज की लड़कियाँ इसे अपने सरहाने तकियों में छिपाकर रखतीं और आपस में बैठकर पर्चियाँ निकालती थीं कि हम में से किसको मजाज़ अपनी दुल्हन बनाएगा।’’

मजाज़ की ज़िंदगानी में उनकी नज़्मों का सिर्फ़ एक मजमुआ ‘आहंग’ (साल 1938) छपा, जो बाद में ‘शबाताब’ और ‘साजे-नौ’ के नाम से भी शाया हुआ। ‘आहंग’ में मजाज़ की क़रीब 60 नज़्में शामिल हैं और सभी नज़्में एक से बढ़कर एक। बर्रे सगीर के मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने मजाज़ की किताब ‘आहंग’ की भूमिका लिखी थी। भूमिका का निचोड़ है-

‘मजाज़ की समूची शायरी शमशीर, साज और जाम का शानदार संगम है। गालिबन इसी वजह से उनका कलाम ज़्यादा मक़बूल भी है।’ 

मिसाल के तौर पर वे उनका एक शे’र पेश करते हैं, जो किताब की शुरुआत में ही है- 

‘देख शमशीर है यह, साज है यह, जाम है यह

तू जो शमशीर उठा ले तो बड़ा काम है यह।’

अपनी इसी भूमिका में फ़ैज़ उनकी शायरी का मूल्यांकन करते हुए आगे लिखते हैं- 

‘मजाज़ इंकलाब का ढिंढोरची नहीं, इंकलाब का मुतरिब (गायक) है। उसके नगमें में बरसात के दिन की सी सुकूनबख्श खुनकी है और बहार की रात की सी गर्मजोश तास्सुर आफरीनी!’

मजाज़ के कलाम के बारे में कमोबेश यही बात अली सरदार जाफरी ने भी कही है- 

‘मजाज़ की शायरी शमशीर, जाम और साज का इम्तिजाज (मिश्रण) है।’

वहीं सज्जाद जहीर की नज़र में-

‘मजाज़ इंकलाब, तब्दीली और उम्मीद का शायर है।’

बल्कि उनका तो यहा तक मानना था,

‘मजाज़ ने उर्दू की इंकलाबी शायरी का रिश्ता फारसी और उर्दू की बेहतरीन शायरी से जोड़ा है।’

फ़ैज़़ अहमद फ़ैज़़, मजाज़ की ‘ख्वाबे सहर’ और ‘नौजवान खातून से खिताब’ नज़्मों को सबसे मुकम्मल और सबसे कामयाब तरक्की पसंद नज़्मों में से एक मानते थे। फ़ैज़़ की इस बात से फिर भला कौन नाइत्तेफाकी जतला सकता है। ‘नौजवान खातून से खिताब’ नज़्म, है भी वाक़ई ऐसी-

‘हिजाब-ए-फ़ित्ना-परवर अब उठा लेती तो अच्छा था

ख़ुद अपने हुस्न को पर्दा बना लेती तो अच्छा था

...दिल-ए-मजरूह को मजरूह-तर करने से क्या हासिल

तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था

...तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन

तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था।’

इस नज़्म में साफ़ दिखलाई देता है कि मजाज़ औरतों के हुकूक के हामी थे और मर्द-औरत की बराबरी के पैरोकार। मर्द के मुक़ाबले वे औरत को कमतर नहीं समझते थे। उनकी निगाह में मर्दों के ही बराबर औरत का मर्तबा था।

मजाज़ शाइरे-आतिश नफस थे, जिन्हें कुछ लोगों ने जानबूझकर रूमानी शायर तक ही महदूद कर दिया। यह बात सच है कि मजाज़ की शायरी में रूमानियत है, लेकिन जब उसमें इंकलाबियत और बगावत का मेल हुआ, तो वह एक अलग ही तर्ज की शायरी हुई।

‘बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना

तिरी जुल्फों का पेचो-खम नहीं है

ब-ई-सैले-गमो-सैले-हवादिस

मिरा सर है कि अब भी खम नहीं है।’

मजाज़ ने दीगर तरक्की पसंद शायरों की तरह ग़ज़लों की बजाय नज़्में ज़्यादा लिखीं। उन्होंने शायरी में मोहब्बत के गीत गाए, तो मज़दूर-किसानों के जज्बात को भी अपनी आवाज़ दी।

मजाज़ ने अपनी नज़्मों में दकियानूसियत, सियासी ग़ुलामी, शोषण, साम्राज्यवादी, सरमायादारी, और सामंतवादी निज़ाम, सियासी ग़ुलामी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। उनकी नज़्मों में हमें आज़ादख्याली, समानता और इंसानी हक की गूंज सुनाई देती है। ‘हमारा झंडा’, ‘इंक़लाब’, ‘सरमायेदारी’, ‘बोल अरी ओ धरती बोल’, ‘मज़दूरों का गीत’, ‘अंधेरी रात का मुसाफिर’, ‘नौजवान से’, ‘आहंगे-नौ’ वगैरह उनकी नज़्में इस बात की तस्दीक करती हैं। ये नज़्में कहीं-कहीं तो आंदोलनधर्मी गीत बन जाती हैं। मिसाल के तौर पर उनकी एक और मशहूर नज़्म ‘इंकलाब’ देखिए-

‘छोड़ दे मुतरिब बस अब लिल्लाह पीछा छोड़ दे

काम का ये वक़्त है कुछ काम करने दे मुझे

...फेंक दे ऐ दोस्त अब भी फेंक दे अपना रुबाब

उठने ही वाला है कोई दम में शोर-ए-इंक़लाब

...ख़त्म हो जाएगा ये सरमाया-दारी का निज़ाम

रंग लाने को है मज़दूरों का जोश-ए-इंतिक़ाम।’

मजाज़ अंग्रेजी साम्राज्यवाद और देशी सामंतवाद दोनों को ही अपना दुश्मन समझते थे। उनकी नज़र में दोनों ने ही इंसानियत को एक समान नुक़सान पहुँचाया है।

मजाज़ ने अपनी नज़्मों में न सिर्फ़ अंग्रेज़ी हुक़ूमत के हर तरह के जुल्म और नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की-

‘बोल! अरी ओ धरती बोल!

राज सिंघासन डाँवाडोल

...क्या अफ़रंगी क्या तातारी

आँख बची और बर्छी मारी

कब तक जनता की बेचैनी

कब तक जनता की बे-ज़ारी

कब तक सरमाया के धंदे

कब तक ये सरमाया-दारी

बोल ! अरी ओ धरती बोल!’

बल्कि जब दुनिया पर दूसरे विश्व युद्ध के बाद फासिज्म का ख़तरा मंडराया, तो उसके ख़िलाफ़ भी वे खामोश नहीं रहे। किसी भी शायर के लिए इससे ज्यादा फख्र की क्या बात होगी कि जिस यूनिवर्सिटी से वह पढ़कर निकला, उसी यूनिवर्सिटी का यह तराना, कुलगीत बन जाए। आज भी यह नज़्म यूनिवर्सिटी में गायी जाती है।

‘सरशार-ए-निगाह-ए-नर्गिस हूँ पा-बस्ता-ए-गेसू-ए-सुम्बुल हूँ

ये मेरा चमन है मेरा चमन मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ।’

मजाज़ में ग़ज़ब का सेंस ऑफ़ ह्यूमर था। वह तुर्की-व-तुर्की जवाब देते थे। एक मर्तबा जोश ने मजाज़ को समझाने की गरज से कहा-

‘शराब पीने में सब्र बरतना चाहिए। मुझे देखो मैं अपने सामने घड़ी रखकर पीता हूँ।’

इस बात पर मजाज़ का जवाब था-

‘अगर मेरा बस चले तो घड़ी नहीं, घड़ा रखकर पीयूँ।’

एक बार वे अल्लामा इक़बाल से मिलकर लौटे, तो दोस्तों ने मुलाक़ात के बारे में जब पूछा तो उनका कहना था- 

‘इकबाल और मुझमें कोई खास फर्क नहीं। वह हां जी, हां जी करते रहे और मैं जी हां, जी हां!’

इश्क में लगातार नाकामियाँ और जेहनी परेशानियों की वजह से मजाज़ पर कई बार नर्वस ब्रेक डाउन का हमला हुआ। जिसके चलते वे अस्पताल और पागलखाने तक पहुँचे। घर वालों और दोस्तों की देखभाल से वह हर बार ठीक भी हुए। लेकिन वह अपनी ज़िंदगी को ज़्यादा लंबे समय तक महफूज नहीं रख पाए। 5 दिसम्बर, 1955 को महज 44 साल की उम्र में मजाज़ इस बेदर्द दुनिया को हमेशा के लिए छोड़कर चले गए। मजाज़ को बहुत कम उम्र मिली। यदि उन्हें और उम्र मिलती, तो वे क्या हो सकते थे?, इसके बारे में शायर-ए-इंकलाब जोश मलीहाबादी ने अपनी आत्मकथा ‘यादों की बरात’ में लिखा है-

‘बेहद अफसोस है कि मैं यह लिखने को ज़िंदा हूँ कि मजाज़ मर गया। यह कोई मुझसे पूछे कि मजाज़ क्या था और क्या हो सकता था। मरते वक़्त तक उसका महज एक चौथाई दिमाग़ ही खुलने पाया था और उसका सारा कलाम उस एक चौथाई खुले दिमाग़ की खुलावट का करिश्मा है। अगर वह बुढ़ापे की उम्र तक आता, तो अपने दौर का सबसे बड़ा शायर होता।’ मजाज़ लखनवी अपनी सरजमीं लखनऊ की ही एक कब्रिस्तान में दफन हैं और कब्र पर उनकी ही मशहूर नज़्म ‘लखनऊ’ का एक शे’र लिखा है- 

‘अब इसके बाद सुब्ह है और सुब्हे-नौ मजाज़

हम पर है ख़त्म शामे-गरीबाने-लखनऊ।’ 

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