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चीन: नेहरू ने क्यों कहा था- हमारा मुक़ाबला एक ताक़तवर और बेईमान दुश्मन से है...

कृश्न चंदर एक बेहतरीन अफ़सानानिगार के अलावा एक बेदार दानिश्वर भी थे। मुल्क के हालात-ए-हाजरा पर हमेशा उनकी गहरी नज़र रहती थी। यही वजह है कि उनके अदब में मुल्क के अहम वाकये और घटनाक्रम भी जाने-अनजाने आ जाते थे। साल 1962 में भारत-चीन के बीच हुई जंग के पसमंजर में लिखा उनका छोटा सा उपन्यास ‘एक गधा नेफा में’ हिंदी-उर्दू अदब में संगे मील की हैसियत रखता है। अकेले अदबी ऐतबार से ही नहीं, बल्कि प्रामाणिक इतिहास के तौर पर भी इसकी काफ़ी अहमियत है। तंजो-मिजाह (हास्य-व्यंग्य) की शैली में लिखा गया, यह उपन्यास कभी पाठकों के दिल को आहिस्तगी से गुदगुदाता है, तो कभी उसे सोचने को मजबूर कर देता है। चीन की साम्राज्यवादी और धोखा देने वाली फितरत को कृश्न चंदर ने बड़े ही ख़ूबसूरती से उजागर किया है। 

आज जब भारत-चीन के बीच एक बार फिर सीमा विवाद चरम पर है, लद्दाख की गलवान घाटी के अलावा दो और क्षेत्रों में चीनी सैनिक अंदर तक घुस आए हैं, यहाँ तक कि इन क्षेत्रों के पास एलएसी की स्थिति को बदल दिया है, दोनों मुल्कों के बीच तनाव घटने का नाम नहीं ले रहा, चीन हमारी सीमा में रोज-ब-रोज नए-नए दावे कर रहा है, ऐसे हालात में ‘एक गधा नेफा में’ की प्रासंगिकता और भी ज़्यादा बढ़ जाती है।

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साल 1964 में लिखे गए इस उपन्यास की सारी बातें, छप्पन साल बाद भी चीन की फितरत पर सटीक बैठती हैं। इस उपन्यास को पढ़ने के बाद, चीन और उसके हुक्मरानों के असली किरदार को अच्छी तरह से जाना-समझा जा सकता है। और यह किरदार है, मक्कारी-दगाबाजी का। साल 1962 की बात करें, तो एक तरफ हमारे प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चीन की वकालत करते रहे। उसके साथ पंचशील का समझौता किया और बदले में चीन ने भारत के साथ क्या किया ?, धोखा दिया और भारत के खिलाफ जबरन जंग छेड़ दी।

कृश्न चंदर ने अपने इस उपन्यास ‘एक गधा नेफा में’ की शुरूआत उसी चुटीले और व्यंग्यात्मक अंदाज में की है, जिस तरह से उनके इस श्रंखला के दो और उपन्यास ‘एक गधे की आत्मकथा’ और ‘एक गधे की वापसी’ में की थी। लेकिन चालीस पन्नों के बाद, उपन्यास का मिजाज बदलता है और वह अपने मूल विषय पर आ जाता है। चीन आज भले ही इस जंग पर जो कुछ भी बयानबाजी करे, लेकिन इतिहास में दर्ज है कि साल 1962 में चीन ने ही भारत पर हमला किया था।

जंग की शुरुआत हमने नहीं की थी। जंग की शुरुआत तिब्बत सीमा के नेफा क्षेत्र में गुप-चुप तरीके से चीनी घुसपैठ से हुई और उसके बाद 8 सितम्बर, 1962 को चीन ने अचानक हमला कर दिया गया। अचानक हुए इस हमले के लिए, भारतीय सेनाएं बिल्कुल तैयार नहीं थी। लिहाजा उस वक्त हमारा बहुत ज्यादा नुकसान हुआ। ना सिर्फ बड़े पैमाने पर जनहानि हुई, हमारे सैकड़ों सैनिक दुश्मन से लड़ते-लड़ते शहीद हो गए, बल्कि अपनी सरजमीं का बहुत बड़ा क्षेत्र भी हमने गवां दिया था। बहरहाल, बात अब दोबारा उपन्यास की। कृश्न चंदर ने उस पूरे हंगामाखेज घटनाक्रम को बड़े ही रोचक तरीके से उपन्यास में पेश किया है। वह भी एक जानवर, गधे के मार्फत। नेफा में चीनी सेनाओं ने किस तरह से हमारे मुल्क की सीमाओं में घुसपैठ की ?, भारतीय सैनिकों ने अपने से कई गुना चीनी सैनिकों का किस बहादुरी से मुकाबला किया ? यह सब कुछ उपन्यास में सिलसिलेवार आता है। लेखक ने तथ्यों के जरिए एक आख्यान रचा है, जो हमारा इतिहास भी है। एक ऐसा यथार्थ, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। भविष्य के लिए एक सबक, जिसे हमेशा याद रखना जरूरी है। 

भारत-चीन सीमा विवाद की जड़ क्या है, कृश्न चंदर ने उपन्यास में इस सवाल का भी गंभीरता से अनुसंधान किया है। वह भी चीन के उस वक़्त के हुक्मरां चाऊ एन-लाई से उपन्यास के मुख्य किरदार गधे की बातचीत करवा कर।

गधा अपने सवालों और दलीलों दोनों से चाऊ एन-लाई को लाजवाब कर देता है। मसलन,

‘जब चीन ने अप्रैल, 1953 में हिंदुस्तान के साथ पंचशील का समझौता किया, सह-अस्तित्व के सिद्धाँतों को मानते हुए शांतिमय पड़ोसियों की तरह रहने का संकल्प लिया तो फिर उसने हिंदुस्तान के ख़िलाफ़ लड़ाई क्यों छेड़ी?’ (‘एक गधा नेफा में’, पेज-78) 

‘अंतरराष्ट्रीय क़ानून के मुताबिक़ साल 1684 और 1842 में हुई ऐतिहासिक संधियों में जब लद्दाख, तिब्बत और चीन की सीमाएँ तय कर दी गई थीं तो चीन उन्हें क्यों नहीं मानता?’ (‘एक गधा नेफा में’, पेज-82-83) 

इस दिलचस्प बातचीत में जब चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाई ब्रिटिश हुकूमत के समय तय हुई, मैकमहोन रेखा को मानने से भी इनकार कर देता है तो गधा चीनी शहंशाह खा-हू के उस रिकार्ड का हवाला देता है, जिसमें इस चीनी शहंशाह ने साल 1711 में रिकार्ड और नक्शों के ज़रिए हिंदुस्तान और चीन के नेफा वाले क्षेत्रों की हदबंदी की थी। (‘एक गधा नेफा में’, पेज-86)

कृश्न चंदर वामपंथी विचारधारा में रचे-पगे रचनाकार थे। साम्यवाद के नाम पर चीन का जब साम्राज्यवादी चेहरा उजागर होता है तो वह चुप नहीं बैठते। उपन्यास में गधा इसी बातचीत में चाऊ एन-लाई से कहता है कि

‘चीन ने हिंदुस्तान पर हमला करके कम्युनिज़्म की अंतरराष्ट्रीय एकता को तोड़ दिया है। …चीन अपने हाथों से समाजवाद की बुनियादें खोखली कर रहा है।’ (‘एक गधा नेफा में’, पेज-88) 

मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति आलोचनात्मक रवैया इख्तियार करते हुए, कृश्न चंदर अपने किरदार के मार्फत आगे यह तक कहलावा देते हैं कि

‘आख़िर मार्क्स की ‘दास कैपिटल’ कोई वेद, कुरान या बाइबल तो है नहीं। वह एक आदमी की लिखी हुई किताब है। ख़ुदा की बही तो है नहीं कि उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की गुंज़ाइश ही न हो। दुनिया के सारे फलसफे पुराने और बेकार हो जाते हैं, जब उनका गूदा इंसान खा लेता है।’ (‘एक गधा नेफा में’, पेज-90) 

कृश्न चंदर यहीं नहीं रुक जाते, चीनी सैनिकों द्वारा नेफा और त्वांग क्षेत्र में मचाई गई तबाही और जुल्म-ओ-सितम पर वह तनकीद करते हुए कहते हैं कि ‘क्या ये देशभक्त सिपाही हैं? ...कम्युनिस्ट? ...इतिहास और विज्ञान का ज्ञान रखने वाले? ...मनुष्य के भविष्य के निर्माता? ...एशियाई स्वतंत्रता, सभ्यता और कल्चर के दावेदार? ...या वही बेचारे पुराने कफनचोर! ...बातें करते हो लंबी-लंबी, दुनिया में सोशलिस्ट परिवर्तन लाने की और हालत यह है कि कहीं से ज़मीन का एक गज मिले या एक पुराना-सा सड़ा गलीचा मिले तो फौरन उसे कंधे पर डाल के घर की तरफ़ भागना शुरू कर देते हो। (‘एक गधा नेफा में’, पेज-107)

उपन्यास में युद्ध के समानांतर त्वांग घाटी के आदिवासी तबक़े की यामिंग और मातेन की प्रेम कहानी भी चलती रहती है। गधा, बंबई से एक फ़िल्म यूनिट के साथ फ़िल्म की शूटिंग के लिए नेफा पहुँचा था। शूटिंग शुरू ही होती है कि सारी यूनिट मुसीबत में फँस जाती है। इस मुसीबत से पूरी फ़िल्म यूनिट तो बच के निकल जाती है, लेकिन गधे को त्वांग घाटी में ही छोड़ देती है। यहीं से उपन्यास का असल कथानक शुरू होता है। कृश्न चंदर ने अपने मुख्य किरदार गधे के ज़रिए पूरे उपन्यास में जगह-जगह मानीखेज टिप्पणियाँ की हैं। हास्य-व्यंग्य में डूबी हुई ये टिप्पणियाँ, पाठकों को कभी मुस्कराने के लिए मजबूर करती हैं तो कभी उसे गुदगुदाती हैं। ख़ास तौर से गधे को रूपक बनाकर, उन्होंने जो टिप्पणियाँ की हैं, उनका जवाब नहीं। मिसाल के तौर पर

‘हिंदुस्तान में आम तौर पर जो फ़िल्में बनती हैं, वे इस श्रेणी की होती हैं कि उन्हें एक गधा भी आसानी से समझ सकता है। बल्कि कुछ जाहिल लोग तो तो यहाँ तक कहते सुने गए हैं कि उन्हें केवल एक गधा ही आसानी से समझ सकता है।’ (‘एक गधा नेफा में’, पेज-14) 

‘गधा तो हूँ हुजूर, मगर सोच-विचार करने वाला हूँ। सोसायटी का उच्चस्तरीय प्राणी नहीं, मगर निचले तबक़े से अवश्य संबंध रखता हूँ। अगर गिनिएगा तो संख्या समाज में हमारी ही अधिक निकलेगी। हम लोग मालिकों के पंजों से बचकर अपने लिए जीवित रहना चाहते हैं। अगर स्वतंत्रता का कोई अर्थ है तो उसे बहुसंख्यकों के लिए भी होना चाहिए, वह नियम जो एक ताक़तवर अकलियत यानी अल्पसंख्यक को बहुसंख्यक वाली जनता पर छा जाने दे, उसे जितनी जल्दी बदल दिया जाए अच्छा है।’ (‘एक गधा नेफा में’, पेज-23) 

‘दूसरा चीनी अफ़सर बोला, ‘मैंने तो आज तक किसी गधे को बोलते हुए नहीं देखा और मेरा मार्कसिज़्म का ज्ञान भी यही कहता है कि एक गधा कभी बोल नहीं सकता।

‘जबकि मार्कसिज़्म यह कहता है कि गधा बोल भी सकता है, बल्कि गधों को बोलना चाहिए और जो गधे बोल न सकते हों, उन्हें बोलना और समझना सीखना चाहिए...।’ (‘एक गधा नेफा में’, पेज-74)

‘एक गधा नेफा में’ ना सिर्फ़ अपने कथानक से पाठकों को प्रभावित करता है, बल्कि शिल्प और भाषा-शैली की दृष्टि से भी इसमें एक अलग ताज़गी है। नेफा के दुर्गम क्षेत्र की जिस तरह से कृश्न चंदर ने बारीक डिटेलिंग की है, उससे ऐसा एहसास होता है, मानो लेखक ने यह सारा क्षेत्र अच्छी तरह से घूमा-फिरा हुआ हो।

पूरे दृश्य आँखों के सामने जीवित हो उठते हैं। बीच-बीच में कृश्न चंदर पाठकों को इस क्षेत्र के इतिहास, भौगोलिक ज्ञान और यहाँ रहने वाली जनजातियों से भी वाकिफ कराते चले जाते हैं। ख़ास तौर पर चाऊ एन-लाई से हुए गधे के संवाद में वे इतिहास की ऐसी-ऐसी जानकारी देते हैं, जिससे हम अभी तलक अंजान थे। 

तिब्बत के जिन क्षेत्रों कैलाश मानसरोवर, अक्षताल, शमचौक की चौकी, डमचौक, मनसर आदि पर चीन आज अपना अधिकार जमाए बैठा है, वे कभी हमारा हिस्सा थे। जिनके ऊपर चीन ने धोखेबाज़ा और मक्कारी से अपना क़ब्ज़ा कर लिया है। कृश्न चंदर, उपन्यास में इस बात की भी शिनाख्त करते हैं कि चीन इस तरह की हरकतें क्यों बार-बार करता है? उनके मुताबिक, इसलिए कि एशिया के सभी देश डर कर, इस क्षेत्र में चीन की बादशाहत तस्लीम कर लें।

1962 का युद्ध 

1962 के युद्ध में चीनी सैनिकों और भारतीय सैनिकों के बीच बुनियादी तौर पर क्या बड़ा फर्क था, जिसकी वजह से चीन ने युद्ध में अपनी बढ़त बनाई? लेखक ने उपन्यास में इसकी भी पड़ताल की है। उनके मुताबिक़ एक तो चीन का नेफा के सारे भौगोलिक क्षेत्र का विस्तृत ज्ञान, उस क्षेत्र में पक्की सड़कें तक बना लेना, तो दूसरी महत्वपूर्ण बात, चीनियों का गुरिल्ला पद्धति से जंग लड़ने में महारत। कमोबेश आज भी ऐसे ही हालात हैं, चीन भारत के जिन क्षेत्रों गलवान, डेपसांग और पैंगोंग त्सो एरिया पर क़ब्ज़ा किए हुए है, उन क्षेत्रों तक वह अपनी सड़क ले आया है। इसके चलते उसे अपनी सेना और रसद पहुँचाने से लेकर भारत से मोर्चा लेने तक में आसानी होती है। यही नहीं, उसने वहाँ कई स्थाई निर्माण भी कर लिए हैं। 1962 की जंग के बाद, आकाशवाणी से मुल्क को खिताब करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था,

‘हमें एक ताक़तवर और बेईमान दुश्मन का मुक़ाबला करना है। इसलिए हमें इस स्थिति का सही ढंग से और विश्वास के साथ सामना करने के लिए अपनी ताक़त और शक्ति बढ़ानी है।’ (किताब- ‘जवाहरलाल नेहरू के भाषण भाग-2’, प्रकाशक-प्रकाशन विभाग नई दिल्ली, पेज-111) 

अफसोस! परवर्ती सरकारों ने नेहरू की इस नसीहत और हिदायत पर अमल नहीं किया। यदि अमल किया होता, तो देश के सामने आज यह हालात पेश नहीं आते।

‘एक गधा नेफा में’, पूरा उपन्यास छोटे-छोटे अध्यायों में विभक्त है। एक अध्याय पढ़ने के बाद, दूसरा अध्याय पढ़ने की उत्सुकता और भी ज़्यादा बढ़ जाती है। यही कृश्न चंदर का सिग्नेचर स्टाइल है। एक बार पाठक उनकी रचना को पढ़ना शुरू करता है, तो उसका अंत करके ही दम लेता है। उपन्यास का अंत युद्ध की निरर्थकता पर लेखक की टिप्पणी से होता है। जिसमें वह चीनी गधे और भारतीय गधे के बीच हुई बातचीत के ज़रिए पाठकों के सामने कई सवाल छोड़ जाते हैं। 

उसने मुझसे कहा, ‘अब कहाँ जाओगे?’ मैंने कहा, ‘मैं यामिंग के गाँव जाऊँगा।

यामिंग का गाँव किधर है?’ उसने मुझसे पूछा।

‘वह उधर है जहाँ सारी दुनिया की सरहदें आके मिलती हैं। यामिंग के गाँव में कोई सिपाही नहीं रहता, वहाँ कोई जला हुआ चेहरा नहीं मिलता, वहाँ जुल्फों की बड़ी घनेरी छाँव है, जहाँ धीरे-धीरे मीठे-मीठे ख्वाबों के चश्मे उबलते हैं और प्यासों का इंतज़ार करते हैं। मैं यामिंग के गाँव जाता हूँ, क्योंकि अभी मातेन की आँखें ज़िंदा हैं और जब तक आँखें ज़िंदा हैं, उम्मीद बाक़ी है।’ 

यह कहकर मैंने उसकी तरफ़ से मुँह फेर लिया और अपनी राह पर चलने लगा। ‘रुको मेरे भाई!’ वह कहने लगा, ‘एक बात मेरी भी सुनते जाओ, क्योंकि मुझे भी वहीं जाना है, जहाँ तुम्हें जाना है। शायद तुम अपने रास्ते से जाओगे और मैं अपने रास्ते से जाऊँगा, मगर हम दोनों एक न एक दिन उस लाशों से पटी हुई घाटी के परे क्षितिज के उस पार बेछोर फासले के किसी अंत पर ज़रूर मिलेंगे, जहाँ लोग कहते हैं कि यामिंग का गाँव है...’ (‘एक गधा नेफा में’, पेज-127-28) 

सवाल, उन हुक्मरानों से भी पूछे जाने चाहिए, जो दुनिया भर में सत्ता, पैसे और ताक़त की हवस में इंसान को इंसान से लड़ाने में मुब्तिला हैं। सरहदें खींचना, सरहदें बढ़ाना उनके लिए आसान है लेकिन सरहदें मिटाना ज़्यादा मुश्किल।

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जाहिद ख़ान

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