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चुनाव अकेले लड़ने के फ़ैसले से यूपी कांग्रेस में बेचैनी

उत्तर प्रदेश की सभी 80 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने के कांग्रेस आलाकमान के फ़ैसले से प्रदेश इकाई में ख़ासी बेचैनी है। प्रदेश कांग्रेस के तमाम छोटे-बड़े नेता और लोकसभा चुनाव लड़ने की इच्छा रखने वाले लोग इस फ़ैसले से हैरान और परेशान हैं। इन नेताओं का मानना है कि सपा-बसपा गठबंधन के बाद कांग्रेस का अकेले लोकसभा चुनाव लड़ने का फ़ैसला आत्मघाती क़दम है। नेताओं का मानना है कि अकेले चुनाव लड़कर कांग्रेस अमेठी और रायबरेली के बाहर शायद ही कोई और सीट जीत पाए। ऐसे में तमाम दिग्गज नेता लोकसभा चुनाव लड़ने से कतरा रहे हैं। लेकिन, उनका यह भी कहना है कि अगर आलाकमान ज़ोर देगा तो उन्हें चुनाव लड़ना ही पड़ेगा, चाहे नतीजा जो हो।

यूपी के नेताओं से नहीं ली थी सलाह!

उत्तर प्रदेश के नेताओं में इस बात को लेकर भी काफ़ी रोष है कि पार्टी आलाकमान ने इतना बड़ा राजनीतिक फ़ैसला प्रदेश के नेताओं से सलाह-मशविरे के बग़ैर ही कर लिया। हालाँकि शनिवार को सपा-बसपा की साझा प्रेस कॉन्फ़्रेंस के फ़ौरन बाद उत्तर प्रदेश के प्रभारी कांग्रेस महासचिव ग़ुलाम नबी आज़ाद ने प्रदेश के सभी नेताओं के साथ अहम बैठक की थी। बताया जाता है कि इसी बैठक के बीच राहुल गाँधी ने उन्हें अगले दिन लखनऊ जाकर सभी 80 सीटों पर  चुनाव लड़ने का एलान करने को कहा। ऐसा ही हुआ भी। सूत्रों के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश कांग्रेस के तमाम नेता चाहते थे कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी को पूरी तरह ख़त्म करने के लिए सपा-बसपा, कांग्रेस और रालोद का गठबंधन ठीक उसी तर्ज़ पर हो, जैसे 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी के सभी विरोधी दलों ने गठबंधन बनाकर बीजेपी का रास्ता रोक दिया था।
  • प्रदेश कांग्रेस के कई बड़े नेताओं का मानना था कि उत्तर प्रदेश में इन चारों के बीच गठबंधन हो जाए तो बीजेपी दहाई का अंक भी पार नहीं कर पाएगी। अब उनका आकलन है कि सपा-बसपा गठबंधन के बाद बीजेपी की सीटें ज़रूर आधी रह जाएँगी, लेकिन इससे कांग्रेस को कोई फ़ायदा नहीं है। कांग्रेस अकेले लड़कर दो-चार सीटों पर ही सिमट जाएगी। इससे बेहतर था कि गठबंधन में कम सीटें लेकर सभी सीटें जीतने की कोशिश करते।

कांग्रेस आलाकमान की अलग राय 

वहीं कांग्रेस आलाकमान का मानना है कि अपने दम पर अकेले चुनाव लड़कर भी वह 10 से 15 सीटें जीत सकती है। कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ राहुल गाँधी के आक्रामक रुख़ अपनाने के बाद देश भर में बीजेपी-विरोधी वोटों का झुकाव कांग्रेस की तरफ़ हुआ है और ख़ासकर मुसलिम समुदाय में यह संदेश गया है कि मोदी से सिर्फ़ राहुल गाँधी लड़ सकते हैं। इसीलिए कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व मानता है कि लोकसभा चुनाव में मुसलिम समुदाय के वोटों का बड़ा हिस्सा क्षेत्रीय दलों के बजाय कांग्रेस को मिलेगा। इसी वजह से कांग्रेस ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी बीएसपी और समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं किया था। कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को लगता है कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव में मुसलिम वोटों का बड़ा हिस्सा कांग्रेस के परंपरागत सवर्ण वोट साथ मिलकर उसे अच्छी स्थिति में ला सकता है। इसी आधार पर राहुल गाँधी ने दुबई की प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा था कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अकेले लड़ेगी और नतीजे चौंकाने वाले होंगे।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सामने, दरअसल, दोहरी चुनौती है। पहली चुनौती है सपा-बसपा गठबंधन के बाद अकेले या फिर क्षेत्रीय दलों के साथ तालमेल करके चुनाव लड़कर सम्मानजनक सीटें हासिल करना। दूसरी चुनौती है चुनाव के बाद केंद्र में सरकार बनाने के लिए सपा-बसपा का समर्थन हासिल करना।

इसीलिए कांग्रेस आलाकमान की तरफ़ से उत्तर प्रदेश के नेताओं को निर्देश दिए गए हैं कि वे सपा-बसपा गठबंधन के ख़िलाफ़ ज़्यादा आक्रामक रुख़ न अपनाएँ। लेकिन उत्तर प्रदेश के नेताओं का मानना है कि अगर सपा-बसपा गठबंधन के ख़िलाफ़ आक्रामक रुख़ नहीं अपनाया तो कांग्रेस को और ज़्यादा नुक़सान होगा। इनसे लड़े बगैर कांग्रेस अपना पुराना वोट बैंक अपने पास फिर से नहीं ला सकती।

क्या चाहते हैं स्थानीय नेता?

लेकिन इसके उलट उत्तर प्रदेश के ज़्यादातर नेताओं का मानना है कि कांग्रेस को चुनाव में बीजेपी और सपा-बसपा गठबंधन दोनों के ख़िलाफ़ आक्रामक होना पड़ेगा, तभी वह सम्मानजनक सीटें जीत सकती है। एक धड़े का मानना है कि कांग्रेस को पश्चिम उत्तर प्रदेश में अजित सिंह की रालोद के साथ ही दलितों में तेज़ी से लोकप्रिय हो रही भीम आर्मी से गठबंधन करके चुनाव लड़ना चाहिए। इससे बसपा का असर कम हो सकता है। वहीं शिवपाल यादव की प्रजातांत्रिक समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करके अखिलेश यादव के गढ़ में सेंध मारकर उसे जवाब देना चाहिए। इसके अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश में पीस पार्टी और ओमप्रकाश राजभर की पार्टी से गठबंधन करके चुनाव लड़ना चाहिए। लेकिन राहुल गांधी के सामने दुविधा यह है कि अगर वह शिवपाल यादव के साथ गठबंधन करते हैं तो चुनाव के बाद अखिलेश कांग्रेस को समर्थन देने में आनाकानी कर सकते हैं और भीम आर्मी को साथ लेकर चलते हैं तो पहले से नाराज़ चल रही मायावती का समर्थन हासिल करने में मुश्किल हो सकती है। लिहाज़ा राहुल गाँधी इन दोनों पर नरम रुख़ अपनाए जाने पर ज़ोर दे रहे हैं।

अखिलेश-माया नाराज़ क्यों?

ग़ौरतलब है कि अखिलेश यादव के साथ साझा प्रेस कॉन्फ़्रेंस में मायावती ने कांग्रेस के ख़िलाफ़ काफ़ी आक्रामक रुख़ अपनाया था और उसे बीजेपी के साथ एक ही पलड़े में रखा था। पर अखिलेश यादव कांग्रेस के प्रति नरम दिखे थे। सूत्रों के मुताबिक़ अखिलेश और मायावती दोनों ही कांग्रेस के रवैये से सख़्त नाराज़ हैं। दोनों की नाराज़गी की कुछ वजहें तो एक जैसी है। कुछ वजहें अलग हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने सपा-बसपा से न तो गठबंधन किया और न ही सरकार बनने के बाद मध्य प्रदेश और राजस्थान में उन्हें अपनी सरकारों में शामिल किया। इस वजह से दोनों ही कांग्रेस से ख़फ़ा हैं और उत्तर प्रदेश में दोनों ही उसे सबक़ सिखाना चाहते हैं।

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मायावती

दरअसल, मायावती मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में गठबंधन न होने से कांग्रेस से नाराज़ हैं। कांग्रेसी सूत्रों के मुताबिक़ मायावती मध्यप्रदेश में 30 सीटें माँग रही थीं। एक सीट भी कम करने को तैयार नहीं थीं। कांग्रेस उन्हें इतनी ज़्यादा सीटें देने को तैयार नहीं थी। लिहाज़ा कांग्रेस ने अकेले चुनाव लड़ा। सूत्रों का यह भी कहना है कि मायावती की वजह से मध्य प्रदेश में कांग्रेस को 16 सीटों पर नुक़सान हुआ है। इसी तरह राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी मायावती ने बड़ा मुँह खोला था। कांग्रेस का तर्क था कि इन तीनों राज्यों में बीएसपी का इतना जनाधार और वोट नहीं है, जितनी सीटें वह माँग रही हैं। इसलिए कांग्रेस ने बसपा के साथ गठबंधन करना मुनासिब नहीं समझा। इसका ख़मियाज़ा उसे उत्तर प्रदेश में भुगतना पड़ रहा है और अब सपा-बसपा यही कह रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का वोट और जनाधार इतना नहीं है कि उससे गठबंधन किया जाए।

अखिलेश 

अखिलेश यादव की कांग्रेस से खुन्नस कुछ दूसरी वजहों से भी है। 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान अखिलेश और राहुल हाथों में हाथ डालकर उत्तर प्रदेश  की सड़कों पर रोड शो कर रहे थे और साथ में रैलियाँ कर रहे थे। चुनाव ख़त्म होते ही राहुल ने अखिलेश से पूरी तरह पल्ला झाड़ लिया। अखिलेश यादव के क़रीबी सूत्रों के मुताबिक़ पहले अखिलेश से राहुल गाँधी सीधे बात करते थे। पिछले कुछ दिनों से उन्होंने अखिलेश का फ़ोन उठाना बंद कर दिया है। उनके एसएमएस का भी जवाब नहीं देते। ऊपर से तुर्रा यह है कि अखिलेश से बात करने की ज़िम्मेदारी एक ऐसे नेता को दी है, जिसे अखिलेश पसंद नहीं करते। राहुल गाँधी के इसी रवैये से अखिलेश यादव खुन्नस में हैं और लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सबक़ सिखाना चाहते हैं।

दूसरे राज्यों पर असर? 

कांग्रेस के अकेले लड़ने से नाराज़ उत्तर प्रदेश के नेताओं का एक तर्क यह भी है कि सपा-बसपा द्वारा ठुकरा दिए जाने के बाद कांग्रेस की मुश्किलें दूसरे राज्यों में भी बढ़ सकती हैं और दूसरे राज्यों के क्षेत्रीय दल भी कांग्रेस को आँखें दिखा सकते हैं। 
  • सपा-बसपा के गठबंधन के एलान के अगले ही दिन आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने लखनऊ आकर मायावती और अखिलेश यादव से मुलाक़ात की। समझा जाता है कि इस मुलाक़ात में तेजस्वी ने मायावती को बिहार में कुछ सीटों पर लड़ने की पेशकश की है। सूत्रों के मुताबिक़ तेजस्वी मायावती को एक से तीन लोकसभा सीटें देकर अपने गठबंधन में शामिल करना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में बिहार में भी कांग्रेस को महागठबंधन में कम सीट मिलेंगी।
उधर दक्षिण भारत में भी कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों ने नख़रे दिखाने शुरू कर दिए हैं। आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू, कर्नाटक में एचडी कुमारस्वामी और तमिलनाडु में डीएमके के एम. के. स्टालिन लोकसभा चुनाव में सीटों के बँटवारे पर कड़ी सौदेबाज़ी कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी कांग्रेस को एक भी सीट देने के हक़ में नहीं हैं। उलटे वह चाहती हैं कि कांग्रेस बीजेपी को हराने में उनकी मदद करे। ममता बनर्जी पहले से ही यह लाइन लेकर चल रही हैं कि जिस राज्य में बीजेपी को जो पार्टी हरा सकती है, बाक़ी पार्टियाँ ख़ुद चुनाव लड़ने के बजाय उस पार्टी की मदद करें। कांग्रेस अपने सहयोगी और संभावित सहयोगी दलों के इस रवैये से काफ़ी परेशान है और आने वाले दिनों में उसकी परेशानियाँ और बढ़ सकती हैं।
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यूसुफ़ अंसारी

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