वर्तमान चुनाव जनाधार बनाम मनाधार का है। एक तरफ़ बीजेपी है, जो राजनीतिक दल कम, संघ परिवार का चुनावी चेहरा अधिक है, तो दूसरी तरफ़ विपक्ष है, जो मात्र गणितीय आधार पर बीजेपी को हराने की जुगत में है। विपक्ष ने 2014 से सीख लेकर 2019 में अपने एकता सूचकांक में वृद्धि की है, ताकि चुनावी गणित में बीजेपी के 31% वोट से उसके वोट अधिक हो जाएँ, तो बीजेपी ने भी विकास, कालाधन, भ्रष्टाचार निरोध, चाल-चरित्र-चेहरा आदि को दरकिनार कर केवल संघ प्रायोजित साम्प्रदायिकता को मुख्य हथियार बनाया है। बीजेपी हिंदू मानसिकता को टैप कर रही है तो विपक्ष जातिगत समीकरण बिठाकर बीजेपी को मात देने की कोशिश कर रहा है।
2019 के चुनाव नतीजों में संघ की नज़र बीजेपी के वोट प्रतिशत पर रहेगी तो विपक्ष का उद्देश्य रहेगा बीजेपी को सीटों की हानि पहुँचाना। वोट प्रतिशत मनाधार की कसौटी है तो सीट जीतना जनाधार का बैरोमीटर।
संघ का उद्देश्य राष्ट्रीय एकता नहीं, वरन राष्ट्रीय एकरूपता है। सामान नागरिक संहिता नहीं, समान आचार संहिता है। एकता स्वैच्छिक आती है, एकरूपता जबरन लाई जाती है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने हेतु संघ का आकलन है कि औसत भारतीय चूँकि शांतिप्रिय तथा सज्जन होता है, तो उसे भयभीत करना सबसे आसान काम है। इसीलिए मुसलमान से लेकर पाकिस्तान तक के काल्पनिक भय का विपणन धड़ल्ले से किया जाता है, फिर उस भय से मुक्त करने हेतु एक सर्वशक्तिमान अवतार पुरुष को परोसा जाता है ताकि श्रद्धावान जनता उसे तारणहार मानने लगे।
संघ अपनी आंतरिक सोच तथा सार्वजनिक रूप से परोसे गए प्रतीक में हमेशा स्पष्ट विभाजन रखता है। संघ मुख्यतः सवर्ण संस्थान है जिसकी आंतरिक सोच में व्यक्ति गौण होता है तथा संघी विचार प्रमुख लेकिन जनमानस में परोसा जाता है कि अमुक व्यक्ति ही सर्वस्व है।
जनता को भ्रम में रखने की कोशिश
1992 में मंदिर आंदोलन के पुरोधा आडवाणी के रहते हुए संघ ने वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनाया, वाजपेयी के जीवित रहते हुए मोदी को, मोदी की मौजूदगी में योगी को और ताज़ातरीन योगी की उपस्थिति में प्रज्ञा को प्रतीक के रूप में स्थापित करना संघी रणनीति रही है। इस साम्प्रदायिक भय तथा तारनेवाले अवतार के भ्रमजाल में जनमानस को रखने में संघ ने काफ़ी हद तक सफलता भी प्राप्त की है।
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संघ को इस बात का भी काफ़ी लाभ हुआ है कि 1991 के बाद के भारत में चूँकि औसत जीवनशैली बेहतर हुई है, तो काफ़ी मात्रा में नवधनाढ्य अवर्ण भी अपने पारम्परिक समाज के बदले सवर्णों के साथ चिन्हित होना ज्यादा पसंद करते हैं। यही खिचड़ी बीजेपी के 2014 का 31% मतदाता है। सनद रहे कि यह 31% मनाधार अमीरी-ग़रीबी, महिला-पुरुष, अनपढ़-शिक्षित, युवा-बुजुर्ग, ग्रामीण-शहरी आदि सभी तरह के उभय द्वन्द को लांघ चुका है। बीजेपी के नैरेटिव में तर्क कम और भावना अधिक है तथा क्रियान्वयन में केमेस्ट्री अधिक, गणित कम।
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2019 के चुनावों में संघ की नज़र रहेगी कि उसके द्वारा परोसे गए विचार को कितने प्रतिशत लोगों का अंध समर्थन प्राप्त है, कि संघ का भारत में मनाधार कितना है। काश! संघ इतनी लम्बी-चौड़ी रणनीतिक मशक्कत करने के बदले प्राचीन भारत के "उदार चरितानाम तू वसुधैव कुटुम्बकम" को आत्मसात कर लेता, तो उसके लक्ष्य की भी प्राप्ति आसान और शीघ्र हो जाती, और भारत का समाज भी सांस्कृतिक रूप से अधिक समृद्ध हो जाता। ख़ैर, तो इन चुनावों में बीजेपी को प्राप्त मत प्रतिशत इस बात के परिचायक होंगे कि भारत किस हद तक संघी बना।
एकजुट नहीं है विपक्ष
विपक्ष ने भी 2019 के चुनाव में दोहरा चरित्र अपनाया है। वह लड़ तो रहा है मुख्यतः जातीय तथा सामाजिक विभाजनों को आधार बनाकर, पर जनता में परोस रहा है कि यह चुनाव तानाशाही के ख़िलाफ़ संघीय व्यवस्था को पुनःस्थापित करने की लड़ाई है। इसके केवल दो अपवाद दिख रहे हैं, बंगाल में तृणमूल तथा दिल्ली में आप, जो दोनों ही संघीय व्यवस्था की पुनःस्थापना के लिए गंभीर प्रयास कर रहे हैं, वरना, डीएमके, तेलुगु देशम, बसपा, सपा, राजद, एनसीपी, जेडीएस, बीजू, वामदल आदि सभी अपने अपने क्षेत्र विशेष में अपनी खोई प्रासंगिकता को पुनःस्थापित करने की कवायद भर कर रहे हैं, जिसमें अधिकतर अवर्णों, दलितों तथा अल्पसंख्यकों की संख्या मुख्य है।
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विपक्ष का विमर्श भावनात्मक कम और तर्कशील अधिक है तथा उसका क्रियान्वयन गणितीय अधिक और रासायनिक कम है। विपक्ष भी काफ़ी हद तक इन चुनावों में सफ़ल होगा क्योंकि धार्मिक ध्रुवीकरण के जवाब में जातीय ध्रुवीकरण स्वाभाविक प्रतिक्रिया भी होती है और बहुत हद तक सफल भी। काश! विपक्ष वेदों से लेकर गाँधी के सुझाए "स्वराज" अवधारणा के तहत सत्ता के विकेन्द्रीकरण को अमली जामा पहनाता तो, भारतीय समाज भी बलवान होता और सहभागी लोकतंत्र भी भारत में अवतरित होता। ख़ैर, इन चुनावों में प्राप्त सीटें इस बात का प्रमाण होंगी कि भारत संघीय व्यवस्था के कितने पास पहुँचा। प्रस्तुत चुनावों में मुद्दे व बौद्धिक विमर्श नदारद हैं, चहुँओर केवल भावना का उबाल है। यदि बात चुनावी नतीजों की करें तो कुछ संभावनाएँ स्पष्ट उभरती दिख रही हैं। पहली स्थिति में यदि बीजेपी का मत प्रतिशत वर्तमान के 31% से बढ़कर 35% तक पहुँचता है तो बीजेपी को 272+ सीटें आसानी से प्राप्त होंगी।
यदि दूसरी ओर बीजेपी का मत प्रतिशत 30% के आस-पास रहा तो उसकी सीटें घटकर 200 के आसपास पहुँचते हुए भी एनडीए की वाजपेयी जैसी सरकार बनने की संभावना अधिक है क्योंकि राष्ट्रपति सबसे बड़े गठबंधन को आमंत्रित करेंगे।
यदि बीजेपी का मतप्रतिशत 30% से भी नीचे खिसकता है तो एनडीए की सरकार नहीं बनेगी। ऐसी स्थिति में संप्रग की सरकार बनेगी तथा एनडीए के कई घटक दल बीजेपी की नाव से कूदकर नई सरकार में दिखेंगे।
अभी तक के पाँच चरणों के मतदान से यह चित्र उभरकर सामने आ रहा है कि दूसरी या तीसरी सम्भावनाएँ अधिक मुमकिन होती दिख रही हैं। 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी भावनात्मक कैमेस्ट्री द्वारा जनता में संघी मनाधार को स्थापित करने की मशक्कत में है और विपक्ष अपने-अपने क्षेत्र में जातिगत गणित के आधार पर जनाधार बढ़ाकर संघीय व्यवस्था स्थापित करने की। दोनों ही तंत्र को हथियाने में लगे हैं, "लोक" की दोनों में से किसी को चिंता नहीं है। "यतीमही स्वराज्ये" का ऋग्वैदिक घोष फिलहाल स्मृतियों में ही सिमटा रहेगा, जबतक भारतीय समाज का राजनीति से पूर्ण मोहभंग होकर वह स्वयमेव रेनेसाँ की ओर कदम नहीं बढ़ाता।
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