डीके शिवकुमार
कांग्रेस - कनकपुरा
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बिहार में ‘सन ऑफ़ मल्लाह’ नाम से विख्यात मुकेश सहनी ने लालू प्रसाद के जमे जमाए दल से बिहार की तीन लोकसभा सीटें झटक लीं। सहनी ने महज कुछ महीने पहले विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) बनाई थी। यह चर्चा का विषय है कि ऐसा क्यों हुआ। मीडिया में बिहार के महागठबंधन के सीट बँटवारे के बाद चर्चा में आए इस दल की खोज बढ़ गयी है।
उत्तर प्रदेश और बिहार में जातीय राजनीति का ढाँचा बदल रहा है। इन राज्यों में अन्य पिछड़े वर्ग व अनुसूचित जाति में तमाम ऐसी जातियाँ हैं, जिन्होंने समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड में उपेक्षित महसूस किया है। ऐसा नहीं है कि इन जातीय समूहों को इस दौरान लाभ नहीं मिला। संपन्नता आने के साथ इनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा बढ़ी है।
जातीय समूहों की इस बेचैनी को 2014 के चुनाव के पहले बीजेपी ने पहचाना था। उसने उत्तर प्रदेश में अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल को अपने पाले में किया। उसके अलावा राजभरों की पार्टी ओम प्रकाश राजभर को साधा।
लोध और कुर्मी मतदाता कल्याण सिंह और ओम प्रकाश सिंह के समय से ही बीजेपी के साथ सत्ता सुख ले चुके थे और जब इन नेताओं को बीजेपी ने हाशिये पर किया तो थोड़ी नाराज़गी थी। लेकिन कल्याण सिंह को ताक़तवर बनाए जाने और अनुप्रिया पटेल के बीजेपी के साथ आने से एक बार फिर यह वोट बीजेपी के पाले में चला आया। इसी तरह से बिहार में नीतीश कुमार के दाहिने हाथ माने जाने वाले राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के नेता उपेंद्र कुशवाहा को अपने पाले में करके बीजेपी ने कोइरी वोट साध लिया। यूपी में कोइरी नेता केशव प्रसाद मौर्य का नाम सामने किया। अन्य कई नेताओं को छोटे स्तर पर सेट किया और अन्य पिछड़े वर्ग में जिन्हें ईबीसी कहा जाता या कहा जा सकता है, उन्हें बीजेपी ने साधकर यूपी और बिहार में अपार सफलता हासिल कर ली।
यही फ़ॉर्मूला समाजवादी पार्टी ने गोरखपुर में लगाया। निषाद पार्टी के प्रवीण निषाद को समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतार दिया। गोरखपुर सीट 1989 के चुनाव से ही बीजेपी जीतती रही है। सिटिंग मुख्यमंत्री की सीट रहते हुए बीजेपी प्रत्याशी उपेंद्र दत्त शुक्ल चुनाव हार गए। ऐसा नहीं है कि सपा इसके पहले निषादों को महत्त्व नहीं देती थी। गोरखपुर से सपा के जमुना निषाद और उनकी मौत के बाद उनकी पत्नी राजमती ही गोरखपुर संसदीय सीट से चुनाव लड़ती थीं। लेकिन जब स्वतंत्र अस्तित्व वाली निषाद पार्टी को जब मैदान में उतारा गया तो उसे सफलता मिल गई।
यूपी और बिहार में नए ताक़तवर जातीय समूह बनकर उभर रहे हैं। ये लोग अपनी जाति के साथ इस तरह गोलबंद हो रहे हैं कि वे अच्छा-ख़ासा वोट काट लेते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश की पीस पार्टी भी है, जो अपने प्रत्याशियों के पक्ष में अच्छी-ख़ासी मुसलिम आबादी को जोड़ लेती है।
बिहार में लालू प्रसाद के राजद ने इस समीकरण को भली-भाँति समझा है कि इस तरह के छोटे-छोटे जातीय समूहों को जोड़कर सफलता हासिल की जा सकती है।
वहीं कांग्रेस भी इस तरह की कवायद में लगी हुई है। उसके निशाने पर ख़ासकर कुर्मी मतदाता हैं। इनके अलावा पार्टी अन्य तमाम छोटे-छोटे जातीय समूहों को अपने पाले में खींचने की कवायद कर रही है। मसलन, पूर्वी यूपी में एक ज़माने में खटिक मतदाता कांग्रेस के पक्के समर्थक हुआ करते थे, जो इस समय लंबे समय से बीजेपी के पाले में हैं। गोरखपुर और वाराणसी इलाक़े में दलितों में सबसे ताक़तवर माने जाने वाले खटिकों को पार्टी फिर एक बार अपने पक्ष में खींचने की कवायद कर रही है। कांग्रेस उन्हीं दलित व पिछड़े मतदाताओं पर डोरे डाल रही है, जिनके नेता अपने विकास की उम्मीद में सपा, बसपा, राजद और जदयू को छोड़कर बीजेपी का दामन थाम चुके हैं और अपने साथ अपनी जाति का वोट बैंक भी साथ ले गए हैं। उत्तर प्रदेश के कांग्रेस के कुछ ज़मीनी ओबीसी नेता भी इस बात की तसदीक करते हैं कि ऐसे नेताओं को पार्टी इस बार बड़े पैमाने पर लोकसभा टिकट देकर उनके जातीय वोट बैंक को आजमाने की कवायद करने वाली है।
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