क्या केंद्र सरकार मीडिया पर नकेल कसने की तैयारी कर रही है? क्या वह अब डिजिटल ही नहीं, टेलीविज़न और दूसरे प्रसार माध्यमों के जरिए स्वतंत्र व निष्पक्ष विश्लेषण का हर रास्ता बंद कर देना चाहती है?
दिल्ली हाई कोर्ट ने टेलीविज़न चैनल रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाउ को निर्देश दिया है कि पूरे बॉलीवुड को आरोपों के कठघरे में खड़े करने वाले ग़ैर-ज़िम्मेदाराना, अपमानजनक या मानहानि करने वाली सामग्री न चलाएं।
आपने अकसर चैनल मालिकों और संपादकों को यह कहते हुए सुना होगा कि रिमोट तो दर्शकों के हाथ में है, पसंद उनकी है, वे चाहें तो कोई चैनल देखें या न देखें। लेकिन क्या यह इतनी सीधी सी बात है? क्या यह सचमुच में दर्शकों के हाथ में है?
ऊपर से देखने से लगता है कि टीआरपी के खेल ने न्यूज़ चैनलों को अराजक और ग़ैर-ज़िम्मेदार बना दिया है। मगर सचाई यह है कि इसमें सरकारों का भी बहुत बड़ा हाथ है। केबल टीवी अधिनियम को ठीक से लागू कराया जाता तो ऐसे हालात नहीं होते।
न्यूज़ चैनलों की ओर से एनबीए अक्सर तर्क देता है कि उसके द्वारा बनाया गया आत्म-नियमन का तंत्र अच्छे से काम कर रहा है। लेकिन क्या सच में ऐसा है यह एक छलावा है? यह छलावा नहीं है तो फिर टीआरपी स्कैम कैसे हो गया?
न्यूज़ चैनलों द्वारा टीआरपी हासिल करने के लिए घटिया हथकंडे आज़माने और कंटेंट के स्तर को गिराने के संबंध में अक्सर यह दलील दी जाती है कि बेचारे चैनल भी क्या करें, उन्हें भी तो खाना-कमाना है। तो क्या उनका बिजनेस मॉडल घटिया है?
टीआरपी स्कैम के बाद न्यूज़ चैनलों की रेटिंग देने वाली एजेंसी बार्क इस समय निशाने पर है। इससे पहले टैम इंडिया रेटिंग देती थी और वह भी ऐसी ही खामियों के लिए निशाने पर आई थी। लेकिन इसके बाद से क्या कुछ बदला है?
मुंबई टीआरपी घोटाले के बाद जब बार्क ने एलान किया कि वह अगले दो से तीन महीने तक न्यूज़ चैनलों की टीआरपी नहीं देगा तो पत्रकारों ने राहत की साँस ली होगी। लेकिन क्या इससे न्यूज़ चैनलों का कंटेंट सुधर जाएगा?
न्यूज़ चैनलों के पतन में केवल टीआरपी ही ज़िम्मेदार नहीं थी या है। टीआरपी की भूमिका बहुत सीमित सी है। टीआरपी बाज़ार का एक प्रभावी अस्त्र ज़रूर है, मगर बाज़ार के पीछे खड़ी पूँजी के उद्देश्य बड़े और विविधतापूर्ण हैं।
टीआरपी आने के बाद से न्यूज़ चैनलों में नई गिरावट आई है और इसीलिए टीआरपी स्कैम जैसे मामले सामने आ रहे हैं। लेकिन यह अकेला ज़िम्मेदार नहीं है। पढ़िए टीआरपी, हिंदुत्व की राजनीति और टीवी पत्रकारिता के बीच क्या है संबंध...
टीआरपी का ही दबाव था कि पहले पहल अपराध पर आधारित ख़बरों और कार्यक्रमों की बाढ़ आई। उन्हें मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया जाने लगा। सनसनी पर जोर दिया गया। नाटकीयता आई और फिर टीवी का चरित्र ही बदल गया।
मुंबई पुलिस के 'टीआरपी घोटाले' के भंडाफोड़ से टीवी की दुनिया में हंगामा मच गया। टीआरपी का भूत क्या है, इस पर सत्य हिंदी एक शृंखला प्रकाशित कर रहा है। पढ़िए, कैसे इसने टीवी चैनलों को अपनी चपेट में लिया...
मुंबई पुलिस ने जब प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर दावा किया कि उसने 'टीआरपी घोटाले' का भंडाफोड़ किया है और उसमें रिपब्लिक सहित तीन चैनलों के नाम लिए तो टीवी की दुनिया में हंगामा मच गया? सवाल उठा यह टीआरपी घोटाला क्या है? इसे किसने पैदा किया या मजबूरी क्या है?
हालिया टीआरपी घोटाले के मद्देनज़र ब्रॉडकास्टिंग ऑडिएंस रिसर्च कौंसिल यानी बार्क ने दो से तीन महीने तक के लिए न्यूज़ चैनलों की टीआरपी न देने का एलान किया है। क्या सिर्फ़ इसी से रेटिंग प्रणाली में सुधार हो जाएगा?