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TRP का दुष्चक्र-6: और भी ख़तरनाक़ दौर आएगा

टीआरपी स्कैम सामने आने पर जब हंगामा हुआ तो टीआरपी से जुड़ी एजेंसी बार्क ने दो से तीन महीने तक न्यूज़ चैनलों की टीआरपी बंद कर दी। लेकिन क्या इससे न्यूज़ चैनलों का कंटेंट सुधर जाएगा? या इसके बाद का दौर कहीं ज़्यादा ख़तरनाक होगा? टीआरपी पर सत्य हिंदी की शृंखला की छठी कड़ी में इन्हीं सवालों को ढूँढने की कोशिश की गई है...
मुकेश कुमार

मुंबई टीआरपी घोटाले के बाद जब बार्क ने एलान किया कि वह अगले दो से तीन महीने तक न्यूज़ चैनलों की टीआरपी नहीं देगा तो पत्रकारों ने राहत की साँस ली होगी और ख़ुद से कहा होगा कि चलो हर हफ़्ते मिलने वाले तनाव से फ़िलहाल छुट्टी मिली। यहाँ तक तो फिर भी ठीक था, लेकिन कुछ अतिआशावादियों ने ये उम्मीद लगानी भी शुरू कर दी कि इसका न्यूज़ चैनलों के कंटेंट पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि अब तो टीआरपी का दबाव होगा नहीं। यानी उन्हें लग रहा था कि टीआरपी की अनुपस्थिति में कंटेंट को सुधरने का मौक़ा मिलेगा। लेकिन यह परिवर्तन न आना था न आया। 

कहने को कहा जा सकता है कि टीआरपी के दबाव से मिली इस अल्पकालिक मोहलत को चैनल कंटेंट सुधारने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। वे चाहें तो कुछ नए प्रयोग कर लें, मगर इसके लिए भी दुस्साहस की ज़रूरत पड़ती है। दुस्साहस इसलिए कि इस दौर में भी चैनलों की आपसी प्रतिस्पर्धा थमती नहीं है, अनवरत् जारी रहती है इसलिए चैनल किसी भी तरह का जोखिम लेने से घबराते हैं। 

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इस शांतिकाल में भी चैनल अंदर ही अंदर डरे रहते हैं कि घोषित ब्रेक के बाद जब टीआरपी आएगी तो कहीं ऐसा न हो कि चैनल पहले से नीचे खिसक जाए या कोई दूसरा उनसे आगे निकल जाए। इसलिए वे टीआरपी खींचने वाले अपने पुराने और आज़माए हुए फ़ॉर्मूलों पर ही चलने में समझदारी देखते हैं। दूसरे चैनलों, ख़ास तौर पर ऊपर के पायदान पर काबिज़ चैनलों के कंटेंट को देखकर आगे निकलने की रणनीति बनाने से भी वे पीछे नहीं हटते। ऐसे में जो प्रतिस्पर्धा टीआरपी के चालू रहने के समय चल रही थी वही बदस्तूर जारी रहती है।

दरअसल, यह पहला मौक़ा नहीं है जब टीआरपी पर कुछ समय की रोक लगाई गई है और उसके आधार पर इस तरह की उम्मीदें बाँधी गई हैं। पहले भी ऐसे मौक़े आ चुके हैं और हम उनके नतीजे भी जानते हैं, मगर क्या करें हमारी यादाश्त कमज़ोर है, हम बड़ी जल्दी भूल जाते हैं कि पहले क्या हुआ था। दूसरे, हमें टीआरपी के दुष्चक्र के पीछे की ताक़त यानी बाज़ार की भी याद नहीं रहती, जो कि इस अंतराल में भी अपना काम बिना रुके करती रहती है। बाज़ार को भला पत्रकारों और चैनल के स्तरीय कंटेंट से क्या लेना-देना। उसे तो विज्ञापन दिखाने के लिए उपयुक्त सामग्री वाला चैनल चाहिए होता है, इसलिए वह कोई मुरव्वत नहीं दिखाता।

विज्ञापनदाताओं की नज़र हर वक़्त टीआरपी के द्वारा तय किए जा रहे ट्रेंड्स पर रहती है और वे अपने निर्णय इस अंतराल या ब्रेक के दौरान भी उन्हीं आधारों पर लेते हैं।

हालाँकि बड़े विज्ञापनदाता अमूमन कम से कम चार हफ़्तों की टीआरपी के ट्रेंड के आधार पर ही फ़ैसले करते हैं, इसलिए अगर महीने-दो महीने का मामला हो तो वे अपनी योजनाओं में तुरंत कोई परिवर्तन नहीं करते। ऐसे में ज़ाहिर है कि न्यूज़ चैनल विज्ञापनदाताओं की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए उनके हिसाब से चलने में ही अपनी भलाई देखते हैं।

टीआरपी को लेकर ऐसी कई तरह की खुशफ़हमियाँ हमारे न्यूज़ चैनलों में मौजूद हैं, मगर उन पर आने से पहले थोड़ा पीछे चलते हैं। आपको याद होगा कि शुरुआत में जब एक दो चैनल थे तो टीआरपी को लेकर उतनी मारामारी नहीं थी। लेकिन जैसे ही चैनलों की संख्या बढ़ने लगी, प्रतिस्पर्धा में ज़बर्दस्त इज़ाफ़ा हुआ और एक गलाकाट जंग शुरू हो गई। इससे पत्रकार बिरादरी सबसे अधिक प्रभावित हुई क्योंकि इस प्रतिस्पर्धा का दबाव उसके ही मत्थे मढ़ दिया गया। लिहाज़ा पत्रकारों में हाहाकार मच गया। 

इस हाहाकार में विरोध के स्वर भी शामिल थे और बदलाव की माँग करने वाली आवाज़ें भी। पत्रकार चाहते थे कि उन्हें टीआरपी के इस जंजाल से मुक्ति दे दी जाए, इसलिए उन्होंने सोचा कि अगर टीआरपी को जमकर गरियाया जाएगा तो इसे बंद कर दिया जाएगा। उन्होंने यह टोटका ख़ूब आज़माया भी मगर ये न होना था और न ही हुआ। टीआरपी के बंद होने की इसी उम्मीद में उसे कोसने का सिलसिला कभी ख़त्म नहीं हुआ। वह आज भी बदस्तूर जारी है।   

हालाँकि कुछ पत्रकार-संपादक जो मार्केट और विज्ञापनदाताओं के वर्चस्व और उनकी आवश्यकताओं को समझ रहे थे, उन्होंने इसे खारिज़ करने के बजाय माँग करनी शुरू कर दी थी कि इसकी अवधि बढ़ाई जाए। यानी हर हफ़्ते टीआरपी न दी जाए, उसे मासिक या त्रैमासिक कर दिया जाए। इस माँग के पीछे यह तर्क था कि लंबे अंतराल में टीआरपी आने से पत्रकारों पर साप्ताहिक स्तर पर पड़ने वाला दबाव कम होगा और चैनलों के बीच नकारात्मक स्पर्धा भी थोड़ी ठंडी पड़ जाएगी।

पत्र-पत्रिकाओं में स्पर्धा

इस दलील के पक्ष में एक बड़ा तर्क यह दिया गया कि पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े ऑडिट ब्यूरो ऑफ़ सर्कुलेशन यानी एबीसी और नेशनल रीडरशिप सर्वे (एनआरएस) के आँकड़े छह महीने में आते हैं इसलिए उस बाज़ार में वैसी गलाकाट स्पर्धा नहीं है जैसी कि न्यूज़ चैनलों के बीच। यहाँ यह बता दें कि एबीसी पत्र-पत्रिकाओं की प्रसार संख्या के आँकड़े देता है जबकि एनआरएस पाठकों की पसंद-नापसंद और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के बारे में जानकारियाँ देता है। पत्र-पत्रिकाओं के बीच स्पर्धा इन्हीं आँकड़ों को लेकर चलती है। विज्ञापनदाता भी इन्हीं आँकड़ों को आधार बनाकर विज्ञापन देते हैं। 

इन दोनों एजेंसियों का मक़सद भी टीआरपी की ही तरह विज्ञापनदाताओं और पत्र-पत्रिकाओं के स्वामित्व की आवश्यकताओं को पूरा करना ही है। ये एजेंसियाँ भी उसी तरह से पत्र-पत्रिकाओं के कंटेंट को प्रभावित करती हैं जैसे टीआरपी टीवी चैनलों को। लेकिन इनकी कार्यप्रणाली बिल्कुल अलग होती है। यह किसी पीपुल्स मीटर के ज़रिए आँकड़े नहीं इकट्ठा करती हैं, बल्कि मुख्य रूप से सर्वेक्षणों और निरीक्षणों का सहारा लेती हैं।

लेकिन दोनों माध्यमों- टेलिविज़न और अख़बार के बीच तो अंतर हैं ही, उनके बाज़ार में भी कई तरह के अंतर हैं, इसलिए दोनों को एक साथ नहीं रखा जा सकता था। अख़बार चौबीस घंटे में एक बार छपते हैं, जबकि न्यूज़ चैनल चौबीसों घंटे और 365 दिन प्रसारण करते रहते हैं।

इस वज़ह से विज्ञापनदाताओं की आवश्यकताएँ भी बदल जाती हैं। वे अलग-अलग समय पर अपेक्षित उपभोक्ताओं को टारगेट कर सकते हैं। लिहाज़ा, उन्हें इस बात की जानकारी चाहिए होती है कि अपने विज्ञापनों को किस चैनल पर, किस दिन और किस वक़्त दिखाएँ ताकि उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा दर्शक देख सकें। 

न्यूज़ चैनल अधिक गतिशील 

प्रिंट मीडिया में पाठकों के आँकड़े उतनी तेज़ी से नहीं बदलते, उनमें बदलाव के लिए समय चाहिए होता है। न्यूज़ चैनल अधिक गतिशील होते हैं यानी उनमें घटनाओं और कार्यक्रमों के हिसाब से बहुत तेज़ परिवर्तन होता है। न केवल संपादकीय विभाग को बल्कि विज्ञापनदाताओं को भी इनके हिसाब से अपनी मीडिया प्लानिंग करनी होती है। वे छह या तीन महीने पहले आए आँकड़ों के हिसाब से ऐसा नहीं कर सकते। कभी भी किसी चैनल की टीआरपी अचानक धराशायी हो सकती है और किसी की आसमान पर पहुँच सकती है। किसी चैनल का कोई कार्यक्रम बहुत हिट हो सकता है और उसके लिए तुरंत निर्णय लेना होता है। बहुत सारी घटनाएँ अचानक होती हैं जिनमें विज्ञापनदाताओं को ज़्यादा दर्शक संख्या मिलने की गुंज़ाइश दिखती है, इसलिए वे इसकी भी तैयारी रखते हैं।

वीडियो में देखिए, क्या है टीआरपी में फर्जीवाड़े का खेल...

विज्ञापन एजेंसियाँ बहुत बारीकी से टीआरपी के आँकड़ों का अध्ययन करती हैं। वे केवल प्राइम टाइम या कोई कार्यक्रम अथवा विशेष टाइम बैंड ही नहीं देखतीं, बल्कि यहाँ तक देखती हैं कि पहले ब्रेक के दौरान ज़्यादा दर्शक रहते हैं या दूसरे ब्रेक के दौरान। इसलिए वे न्यूज़ चैनलों के प्रबंधन से भी ज़्यादा गहराई से टीआरपी के आँकड़ों का अध्ययन-विश्लेषण करके निर्णय लेती हैं। इसे देखते हुए टीआरपी के बंद होने की उम्मीद पालने वालों को यथार्थ के धरातल पर लौट आना चाहिए।

सच तो यह है कि न्यूज़ चैनलों की बागडोर संभाल रहे या उनमें काम करने वाले पत्रकारों को टीआरपी की ओर से पड़ने वाले और भी बड़े दबाव के लिए ख़ुद को तैयार कर लेना चाहिए। आने वाले दिनों में इसकी अवधि हफ़्ते से घटकर हफ़्ते में दो-तीन बार या दैनिक भी हो सकती है। भारतीय टीवी न्यूज़ का बाज़ार अमेरिकी पैटर्न पर विकसित हो रहा है और अमेरिका के ज़्यादातर नेटवर्कों में टीआरपी का अध्ययन साप्ताहिक नहीं बल्कि दैनिक आधार पर किया जाता है।

अमेरिकी चैनलों में दिन की पहली मीटिंग ही पिछले दिन प्रसारित हुए कार्यक्रमों की टीआरपी पर चर्चा के लिए होती है। देखा जाता है कि अपने किन कार्यक्रमों ने कैसी टीआरपी हासिल की और प्रतिद्वंद्वी चैनलों को किन कार्यक्रमों पर बेहतर टीआरपी मिली और क्यों।

इस टीआरपी चर्चा के आधार पर ही फिर दिन भर के कार्यक्रमों की योजना बनाई जाती है। यानी हमारे चैनल जो काम अभी साप्ताहिक आधार पर करते हैं, वह वहाँ दैनिक आधार पर हो रहा है। 

ऐसे में सोचा जा सकता है कि अमेरिकी चैनलों की संपादकीय और प्रबंधकीय टीम कितने तनाव और दबाव में काम कर रही होगी। जैसे-जैसे बाज़ार का ज़ोर बढ़ेगा, भारत में भी विज्ञापन एजेंसियाँ अमेरिकी नक्श-ए-क़दम पर चलने लगेंगी और दैनिक टीआरपी के आधार पर अपने निर्णय लेंगी। तब यहाँ भी उनके हिसाब से चैनलों और उनकी संपादकीय टीमों को ढलना होगा।

ज़ाहिर है कि न्यूज़ चैनलों में काम करने वाले पत्रकारों को टीआरपी से राहत की उम्मीद नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें अगले दौर की प्रतिस्पर्धा के लिए तैयारी करने में जुट जाना चाहिए। उन्हें इस बात का एहसास होना चाहिए कि वे एक बाज़ार नियंत्रित मीडिया में काम कर रहे हैं और बाज़ार बहुत निर्मम होता है। उसे न पत्रकारिता से मतलब है और न ही लोकतंत्र से। उसका एकमात्र ख़ुदा मुनाफ़ा है और वह उसके लिए किसी भी हद तक जाएगा। वह उन्हीं पत्रकारों को बर्दाश्त करेगा, जो उसके इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए प्राणपण से काम करने के लिए तैयार हों, बाक़ी को उसी तरह से कूड़ेदान के हवाले कर दिया जाएगा, जिस तरह पहले किया है।  

(लेखक ने टीआरपी और टेलीविज़न के संबंधों पर डॉक्टरेट की है। इस विषय पर उनकी क़िताब टीआरपी, टेलीविज़न न्यूज़ और बाज़ार काफी चर्चित रही है।)

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