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TRP का दुष्चक्र-5: मीडिया में पूँजी कहाँ से आई और क्यों?

न्यूज़ चैनलों के पतन में केवल टीआरपी ही ज़िम्मेदार नहीं थी या है। टीआरपी की भूमिका बहुत सीमित सी है। टीआरपी बाज़ार का एक प्रभावी अस्त्र ज़रूर है, मगर बाज़ार के पीछे खड़ी पूँजी के उद्देश्य बड़े और विविधतापूर्ण हैं। टीआरपी पर सत्य हिंदी की शृंखला की पाँचवीं कड़ी में पढ़िए, मीडिया उद्योग में पूँजी कहाँ से आई और इसकी वज़ह से मीडिया में क्या परिवर्तन आए...
मुकेश कुमार

न्यूज़ चैनलों की बरबादी के लिए टीआरपी की भूमिका को ज़्यादा महत्व देने या उसे ही पूरी तरह से गुनहगार साबित करने से पहले हमें मीडिया उद्योग का अध्ययन भी करना चाहिए। यह जानना बहुत ज़रूरी है कि इस उद्योग में पूँजी कहाँ से आई, किन उद्देश्यों से आई और इसकी वज़ह से मीडिया में क्या परिवर्तन आए।

नवउदारवाद ने अपने दर्शन को फैलाने और उसे स्वीकार्य बनाने के लिए मीडिया का जमकर इस्तेमाल किया और अभी भी कर रहा है। लेकिन इस महत्वाकांक्षी परियोजना की सफलता के लिए ज़रूरी था कि मीडिया इंडस्ट्री को शक्तिशाली बनाया जाए, उसका विस्तार किया जाए। एक शक्तिशाली और अवाम के दिल-ओ-दिमाग़ में गहरी पैठ रखनेवाला मीडिया ही उदारवाद के लिए अनुकूल माहौल बना सकता था, नागरिक समाज को उपभोक्ता समाज में तब्दील करने में योगदान कर सकता था।

आर्थिक उदारवाद की इस आवश्यकता को भारतीय मीडिया ने शुरू में थोड़ी आशंकाओं के साथ लिया। ख़ास तौर पर प्रिंट मीडिया में इसको लेकर एक तरह का बँटवारा जैसा देखने को मिला। कुछ बड़े औद्योगिक घराने तो इससे बेहद उत्साहित हो गए। उन्हें लगा कि इससे वे लोकल से ग्लोबल की छलाँग लगा सकेंगे। लेकिन बहुत से संस्थान विरोध में भी थे। इसीलिए शुरुआत में सरकार विदेशी निवेश के नियमों को ढीला करने में हिचकती रही।

टीआरपी पर ख़ास

अलबत्ता टेलीविज़न चैनलों के मालिकों को नवपूँजीवाद की यह उदारता ख़ूब रास आई क्योंकि यह उनकी कारोबारी महत्वाकांक्षाओं को पंख लगा रहा थी। लिहाज़ा उन्होंने इस अवसर को झपटने में देरी नहीं की। उन्होंने इस बात की चिंता करने की ज़रूरत महसूस नहीं की कि भारतीय समाज और लोकतंत्र के प्रति उनकी कोई ज़िम्मेदारी है। उन्हें मोटा मुनाफ़ा दिख रहा था इसलिए वे न केवल बहती गंगा में हाथ धोने के लिए तैयार हो गए, बल्कि बाज़ारवाद की सेना का मज़बूत योद्धा भी बन गए।

मीडिया के लिए इस उदारवाद ने पूँजी के रास्ते खोले। एक के बाद एक सरकारों ने निवेश के नियमों को शिथिल करना शुरू कर दिया। बहुत से मीडिया संस्थानों ने इसके लिए वेंचर कैपिटलिस्ट और शेयर बाज़ारों का रुख़ किया। लेकिन उसका फ़ायदा बड़ी पूँजी वाले मीडिया संस्थानों को ही होना था, क्योंकि वही बाज़ार के एजेंडे को पूरा करने की सामर्थ्य रखते थे। उन्होंने बड़ी कंपनियों या कार्पोरेट से हाथ मिलाना शुरू किया, उनसे अपनी हिस्सेदारी के एवज़ में रकम हासिल की और अपना विस्तार करने लगे।

कार्पोरेट जगत को भी एक ऐसे हथियार की ज़रूरत थी जो संकट के समय में उनके लिए रक्षा कवच बन सके। वह भी उदारवाद के हवाई जहाज़ पर अपने विस्तार की आकांक्षाओं के साथ सवार था।

चूँकि नियामक संस्थाओं के अभाव में और सत्ताधारियों के साथ साठ-गाँठ करके (क्रोनी कैपटलिज़्म) उन्हें अपने लक्ष्य हासिल करने थे इसलिए बहुत वे भ्रष्ट तरीक़े आज़माने से भी परहेज़ नहीं कर रहे थे। अब इस अँधाधुंध भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए उसे मीडिया की ढाल चाहिए थी जो उसने मीडिया कंपनियों में सीधे या परोक्ष निवेश के ज़रिए हासिल करनी शुरू कर दी। यही नहीं, वे सरकारों और नौकरशाही में भी अपना प्रभाव चाहती थीं, ताकि नीतियों को प्रभावित किया जा सके। राडिया केस इसका उदाहरण है कि मीडिया का इस्तेमाल किस तरह किया जा रहा था, और अभी किया जा रहा है।

उधर सरकार ने विदेशी पूँजी निवेश के लिए रास्ते खोलने शुरू कर दिए। न्यूज़ मीडिया में पहले रोक-टोक रही, लेकिन बाद में धीरे-धीरे उसमें भी ढील मिलनी शुरू हो गई। ग़ैर न्यूज़ वर्ग के चैनलों और चैनल समूहों को इसका भरपूर फ़ायदा मिला। पूँजी के साथ-साथ विदेशी टेक्नोलॉजी के आयात के लिए भी नियम कानून आसान कर दिए गए। इसका असर ये हुआ कि अख़बारों के धड़ाधड़ संस्करण निकलने लगे और कई-कई चैनलों वाले मीडिया समूह अस्तित्व में आ गए। जैसे-जैसे टेक्नोलॉजी सस्ती हुई, टीवी चैनलों को शुरू करना भी आसान होता गया। 

उन्मुक्त पूँजी और टेक्नोलॉजी इन दोनों ने मीडिया इंडस्ट्री में क्रांतिकारी बदलाव के द्वार खोल दिए। मीडिया देखते ही देखते हमारे जीवन पर छा गया और उसका असर हर क्षेत्र में देखा जाने लगा। सामाजिक से लेकर आर्थिक-राजनीतिक परिदृश्य तक उसकी प्रभावशाली मौजूदगी ने शासक वर्ग को इस चीज़ का नए सिरे से एहसास करवा दिया कि वे इसका उपयोग अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए किस तरह से कर सकते हैं। ज़ाहिर है कि इससे मीडिया पर नियंत्रण की एक नई होड़ भी शुरू हो गई।

नेताओं का भी 'खेल'

जिस तरह कार्पोरेट जगत ने पहले पिछले दरवाज़े से एंट्री मारी उसी तरह से नेताओं ने भी खेल खेलना शुरू कर दिया। नेताओं ने मालिकों से साठ-गाँठ की, उन्हें लालच दिए और धमकाया भी। इसके अलावा बहुत सारे छोटे-बड़े धन्ना सेठों को भी न्यूज़ चैनल खोलने के लिए प्रेरित किया। पूँजी का एक तीसरा स्रोत उन सेठों की जेब बन गई जो अपने धंधों के लिए मीडिया की ताक़त का इस्तेमाल करना चाहते थे। ये सेठ या कंपनियाँ बहुत सारे दंद-फंद में लगी हुई थीं और उन्हें प्रशासन तथा सरकार को साधने के लिए इसकी ज़रूरत थी। इसका खौफ़ पैदा करके या उसका लाभ देकर वे ऐसा करना चाहते थे।

यही वज़ह है कि चिट फंड कंपनियाँ, बिल्डर और अपराधी किस्म के लोग अपने काले धन के साथ इस धंधे में उतर पड़े। चिट फंड कंपनियाँ संकट में फँस रही थीं और राजनीतिज्ञों के साथ उनका गठजोड़ अब उनकी रक्षा कर पाने में असफल हो रहा था।

उनके कामकाज पर सरकारी एजेंसियों की नज़र थी और विभिन्न प्रदेशों में उन पर कार्रवाई की जा रही थी। इससे बचने के लिए उन्होंने राजनीतिक दलों के साथ साठ-गाँठ तो की ही, साथ ही मीडिया की मालिक भी बनने लगीं। 

वीडियो में देखिए, चैनलों के टीआरपी फर्जीवाड़े का पूरा ब्यौरा

मीडिया और चिट फंड कंपनियाँ

सहारा से लेकर पर्ल समूह तक के न्यूज़ चैनल सब इसी की देन थे। यहाँ तक कि एक ज़माने में क्षेत्रीय चैनलों का सबसे बड़ा समूह माना जाने वाला ईनाडु ग्रुप भी इसी धंधे से आया था। इसके अलावा बहुत सारी नई एवं छोटी चिट-फंड कंपनियाँ थीं, जिन्होंने अपने चैनल शुरू कर दिए। बिल्डरों के कम चैनल आए मगर उन्होंने भी इस दिशा में कम हाथ-पैर नहीं मारे। कई चैनलों में बाहर से पैसा लगाकर उन्होंने मीडिया का फ़ायदा उठाने की कोशिश की।  

उधर, बड़े मीडिया घरानों का चरित्र भी बदल रहा था। वे भी दूसरे धंधों में उतर रहे थे। कोई रीयल इस्टेट में पैर रख रहा था तो कोई कोल ब्लॉक हासिल करने में लगा था। इन धंधों में भ्रष्टाचार बहुत रचा-बसा था, इसलिए मीडिया के सहयोग से पैर जमाना उनके लिए आसान भी था। मीडिया उन्हें सत्ता के गलियारे में घुसने में मदद कर रहा था। नेताओं और नौकरशाहों का साधना उनके लिए आसान था।

इसके अलावा बहुत सारे मीडिया मालिकों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ भी थीं। किसी को राज्यसभा का टिकट चाहिए था तो कोई राज्य में ही अपनी राजनीतिक हैसियत बनाना चाह रहा था। इसके लिए वे राजनीतिक दलों की राजनीति और एजेंडे को पालने-पोसने में लग गए। इससे मीडिया और राजनीति का गठजोड़ नई शक्ल लेने लगा। अब वह पहले की बनिस्बत ज़्यादा राजनीतिक एजेंडे पर चलने के लिए तत्पर हो गया।

यही वो दौर था जब देश के सबसे बड़े मीडिया ब्रांड टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रबंध निदेशक विनीत जैन ने न्यूयॉर्क टाइम्स (2015) को दिए इंटरव्यू में कहा था कि वे न्यूज़ के नहीं विज्ञापन के कारोबार में हैं। यानी उन्होंने एक तरह से पत्रकारिता के प्रति किसी तरह की प्रतिबद्धता से (अगर ऐसी कभी कोई थी तो) अलग कर लिया और विशुद्ध रूप से व्यापार के पक्ष में खड़े होने का एलान कर दिया। पेड़ न्यूज़ को वैध व्यापारिक गतिविधि बनाने की दिशा में भी विनीत जैन की कंपनी ने उसे अपनी विज्ञापन नीति का हिस्सा बना लिया।

पेज-3 पहले अघोषित और फिर घोषित रूप से पेड ख़बरों का संस्करण बन गया। इसी तरह प्राइवेट ट्रिटी के ज़रिए उसने बहुत सारी कंपनियों से संपादकीय सामग्री तक का सौदा कर डाला।

टाइम्स समूह एक तरह से भारतीय मीडिया इंडस्ट्री का ट्रेंड सेटर है। वह जो कुछ करता है उसकी नकल तुरंत शुरू हो जाती है। इसलिए उसकी देखादेखी दूसरे मीडिया समूहों ने यही सब शुरू कर दिया। यानी बीमारी ने महामारी का रूप ले लिया और ख़बरें बिकाऊ होने लगीं। चुनाव के समय तो ख़बरों की मंडी ही सजाई जाने लगीं। पेड न्यूज़ का कारोबार फलने-फूलने लगा। 

अब यह समझा जा सकता है कि जब इस तरह के मक़सदों के साथ मीडिया इंडस्ट्री का विस्तार होगा तो मीडिया का क्या होगा। मीडिया, यानी पत्रकारिता के उसूलों पर चलनेवाला मीडिया, लोकतंत्र और जन सरोकारों का मीडिया ऐसे स्वार्थों के बीच कैसे फल-फूल सकता था? ये तमाम घटनाक्रम उसके लिए प्रतिकूल वातावरण का निर्माण करने वाले साबित हो रहे थे। 

लिहाजा हुआ यह कि पत्रकारिता पर चोट पर चोट की जाने लगी और वह मरती चली गई। मालिकों के स्वार्थ इतनी जगह टकराने लगे कि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष पत्रकारिता करना बहुत मुश्किल हो गया। संपादक नामक संस्था के कमज़ोर होने की एक बड़ी वज़ह यही थी। पत्रकारिता की साख, विश्वसनीयता पर चोट पड़ने लगी और वह जनता की नज़रों में गिरने लगा। इस गिरावट को रोकने के लिए जो कुछ किया जाना चाहिए था, नहीं किया गया। 

इससे यह भी बहुत स्पष्ट हो जाता है कि जिस तरह की पूँजी आई उसने उसी तरह की बीमारियाँ भी मीडिया इंडस्ट्री में फैला दीं। भ्रष्ट तरह से आई पूँजी मीडिया में भ्रष्टाचार को ही बढ़ा सकती थी और ऐसा करने-करवाने में बाज़ार ही नहीं सरकार भी शामिल थी। यह इस सचाई को भी पुष्ट करता है कि न्यूज़ चैनलों के पतन में केवल टीआरपी ही ज़िम्मेदार नहीं थी या है। टीआरपी की भूमिका बहुत सीमित सी है। टीआरपी बाज़ार का एक प्रभावी अस्त्र ज़रूर है, मगर बाज़ार के पीछे खड़ी पूँजी के उद्देश्य बड़े और विविधतापूर्ण हैं। 

(लेखक ने टीआरपी और टेलीविज़न के संबंधों पर डॉक्टरेट की है। इस विषय पर उनकी क़िताब टीआरपी, टेलीविज़न न्यूज़ और बाज़ार काफी चर्चित रही है।)
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