‘ऐसे किले जब टूटते हैं तो अन्दर से भरभराकर टूटते हैं!’ सन 1972 में जब यह वाक्य दिल्ली के पुराने किले के ऐतिहासिक अवशेषों के विस्तार में खुले आसमान के नीचे गूंजा था, तो दर्शकों ने उसे इंदिरा गांधी की सल्तनत के भीतर दरारें पड़ने के रूपक के तौर पर समझा था।
यह गिरीश कर्नाड के नाटक ’तुग़लक’ का संवाद था। वह एक बड़ी सामजिक-राजनीतिक उथल-पुथल का दौर था, जिसकी परिणति आख़िरकार इमरजेंसी में हुई हालांकि उसके संकेत सन 1972 से ही मिलने लगे थे।
इस प्रस्तुति की भव्यता, उदात्तता, चमक-दमक, वेशभूषा, और ‘स्पेस’ के अनोखे इस्तेमाल को आज भी रंगकर्म की दुनिया में याद किया जाता है।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय
‘तुगलक’ से पहले अल्काजी महाभारत पर आधारित धर्मवीर भारती के नाटक ‘अंधायुग’ को भी फिरोज़शाह कोटला की फसीलों के बीच प्रस्तुत कर चुके थे। उन दिनों वियतनाम पर अमेरिकी आक्रमण का दुनिया भर में विरोध हो रहा था। युद्ध की व्यर्थता और बेहूदगी को बतलाने वाला यह प्रदर्शन अनायास ही युद्ध-विरोध से जुड़ गया।उनके प्रशिक्षित अभिनेताओं में मनोहर सिंह, उत्तरा बावकर, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, रोहिणी हट्टंगड़ी, ओम शिवपुरी, नादिरा बब्बर हैं।
पश्चिमी शैली पर ज़ोर
अल्काजी ने अपने छात्रों को रंगकर्म की परंपरा और प्रयोगशीलता और उसके बदलते मुहावरों के संपर्क में लाने का काम किया, लेकिन उनका खास आग्रह पश्चिमी शैली पर था।अरब पिता, क़ुवैती माँ
अल्काजी का जन्म 18 अक्टूबर, 1925 को पुणे में हुआ था। उनके पिता अरब थे और माँ कुवैती। उन्होंने लन्दन की मशहूर रॉयल एकेडेमी ऑफ़ ड्रामेटिक आर्ट्स ( राडा) में रंगकर्म का प्रशिक्षण लिया था।नेहरू के ज़ोर पर बने एनएसडी प्रमुख
उन्हीं दिनों दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) की स्थापना हुई।जवाहर लाल नेहरु ने इब्राहिम अल्काजी से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का निदेशक बनने का आग्रह किया तो इच्छा न होते हुए भी उन्होंने यह ज़िम्मा संभाल लिया।
पूर्णतावादी
अल्काजी को कला में पूर्णतावादी होने के साथ-साथ काम में कड़े अनुशासन और दफ्तर में समय की पाबंदी के लिए भी जाना जाता था। कहते हैं, वे नाट्य विद्यालय में साफ़-सफाई का इतना ख़याल रखते थे कि कई बार उसके शौचालय भी खुद ही साफ़ करते थे।तादात्म्यवादी अभिनय शैली
अल्काजी पर रूस के प्रख्यात रंगकर्मी और सिद्धांतकार कोन्स्तान्तिन स्तानिस्लावास्की के तादात्म्यवादी अभिनय शैली का प्रभाव था, जिसमें अभिनेता नाटक के चरित्र को आत्मसात करके एक तरह से परकाय-प्रवेश करता है और उसमें विलीन हो जाता है। उसका अभिनय दिखाने की बजाय ‘वही’ बन जाता है।अल्काजी और हबीब तनवीर की दो रंग-शैलियाँ लम्बे दौर तक आधुनिक हिंदी नाट्य-कर्म की तसवीर को मुक़म्मल बनाती रहीं।
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