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सुरेखा सिकरी। फ़ोटो साभार: ट्विटर/रणदीप हुडा

अलविदा सुरेखा जी! आपका हर जिया हुआ चरित्र ज़िंदा रहेगा!

सुरेखा जी महज रंगमंच या अपने जी रहे चरित्र को लेकर ही संजीदा नहीं थीं, बल्कि अपने निजी रिश्तों का निर्वहन भी बड़ी संजीदगी से करती थीं। अनगिनत पात्र जी कर विदा हुई हैं रंगमंच, फ़िल्म और टीवी अदाकार के रूप में और उनका हर जिया हुआ चरित्र ज़िंदा रहेगा। बहुत याद आएँगी सुरेखा जी।

अलविदा सुरेखा जी।

'चेरी आर्चर्ड' की डिजाइन और उसका मंचन, एक प्रयोग कर रहा था, जब प्रेक्षक खुद अनजाने नाटक का हिस्सा बन जाए। नाट्य मंच पर प्रेक्षक जिसे सरल भाषा में दर्शक कह दिया जाता है - दर्शक की सीट से उठे और मंच पर जाकर उसका हिस्सा बन जाए, चेरी का बगीचा उसी का प्रयोग था। अमेरिकन निदेशक (शायद वेन विद्ज थे) मंचन की यह विधा बनारस की रामलीला से देख कर प्रयोग कर रहे थे।

सीता अपनी कुटिया में अकेली बैठी है। कुटिया की बनावट काफी हद तक खुले विन्यास में थी। उसके एक ताख में जलता हुआ दिया था। दर्शकों की भीड़ आ रही है, सीता के दर्शन कर, जयकार करती आगे बढ़ती है दूसरे 'मंच' की तरफ़ जहाँ रामचरित मानस का दूसरा चरित्र बैठा है। 

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अचानक सीता कुटी के ताख में रखा दिया गिर जाता है। अचानक एक लड़की कूद कर अंदर कुटी में जाती है, और दिया उठा कर ताख में रख देती है। भीड़ से एक माचिस आकर उसके सामने गिरता है, वह लड़की दिया जलाती है, सीता का पैर छूकर प्रणाम करती है, और अपनी भीड़ के साथ आगे निकल जाती है। बनारस क्या, समूचे हिंदी पट्टी में जहाँ राम चरित 'खेला' जाता है, वह स्थापित मंच अनुशासन से अलग हट कर दर्शक को एक जगह बैठने के बजाय घुमाता रहता है। यह नाटक उसी विन्यास पर खड़ा किया गया था।

एनएसडी रंगमंडल द्वारा खेला गया यह नाटक सबसे ज़्यादा खर्चीला रहा। वागीश सिंह हमारे अभिन्न मित्र रहे और इस नाटक के मुख्य  किरदार। भाई मनोहर सिंह, सुरेखा जी, प्रमोद माउथे, युवराज शर्मा वगैरह नामी गिरामी कलाकार भरे हुए थे। शाम को अक्सर हम वहाँ जाकर बैठ जाते। एक दिन हम रविन्द्र भवन लॉन में अधलेटे पड़े थे, देखा बगल से सुरेखा जी आ रही हैं। आते ही उन्होंने हाथ पकड़ा - चंचल जी! हमने सारिका में इंटरवियू (इंटरव्यू) पढ़ा जो आपने लिया है, बहुत अच्छा लगा। चलिए आपको सरकारी चाय पिलाते हैं। - सरकारी?

- बिल्कुल सरकारी 

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बात करते-करते हम मंडप में चले गए जहाँ सेट लगा था। सुरेखा जी ने एक टेबल दिखाया उस के साथ आपने सामने दो कुर्सियाँ रखी हुई थीं। यह सेट का हिस्सा था लेकिन था दर्शक के लिए। जो बैठते थे उन्हें चाय भी मिलती थी। इसी के ठीक बगल में एक छोटा सा पोंड बनाया गया था, पानी से भरा हुआ। इसमें हर रोज प्रमोद माउथे को फिसल कर गिरना होता था। 

बहरहाल, सुरेखा जी महज रंगमंच या अपने जी रहे चरित्र को लेकर ही संजीदा नहीं थीं, बल्कि अपने निजी रिश्तों का निर्वहन भी बड़ी संजीदगी से करती थीं।

अनगिनत पात्र जी कर विदा हुई हैं रंगमंच, फ़िल्म और टीवी अदाकार के रूप में और उनका हर जिया हुआ चरित्र ज़िंदा रहेगा। 

बहुत याद आएँगी सुरेखा जी।

अलविदा सुरेखा जी

(चंचल की फ़ेसबुक वॉल से)

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चंचल

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