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'...जब मेरे गाँव का आखिरी पेड़ मुझसे ओझल हुआ'

हिंदी के प्रख्यात लेखक, समकालीन हिन्दी कवियों में बेहद सम्मानित मंगलेश डबराल का निधन हो गया है। यह साहित्य जगत के लिए अपूर्णीय क्षति है। उनकी कविताएं हमें हमेशा प्रेरणा देती रहेंगी। भारतीय संगीत की उन्हें कितनी जबरदस्त जानकारी थी, ये उनके इस लेख से पता चलता है। 
मंगलेश डबराल

लालटेन के उजाले में पिता जर्मन रीड वाले सुरीले हारमोनियम पर दुर्गा, मालकौंस, सारंग, पीलू, पहाड़ी और सुदूर जौनपुर-जौनसार की बोली के मीठे गीतों के स्वर निकालते थे। मालकौंस और दुर्गा शायद उनके प्रिय राग थे। दुर्गा की क्लासिक, पाठ्यक्रम में पढ़ाई जानेवाली बंदिश-‘सखी मोरी रूम झूम, बादल गरजे बरसे।।।’ वे डूबकर गाते। 

पहाड़ में पांच स्वर वाले रागों का चलन ज्यादा है और उनकी लय पहाड़ की प्रकृति से भी बहुत मेल खाती है। पिता के रागों के स्वर हारमोनियम से महीन रेशमी बादलों की तरह उठते और घर के नीम उजाले में तैरने लगते। बाहर घना अँधेरा रहता,  काली हवा में जुगनू चमकते और पिता अंतरे की पंक्तियाँ गाते हुए घर को संगीतमय बनाते : ‘रेन अंधेरी कारी बिजुरी चमके मैं कैसे जाऊं पिया पास।’ 

मैं पिता के सामने इस तरह बैठा रहता जैसे एलपी रेकॉर्डों पर हिज मास्टर्स वाइस का कुत्ता ग्रामोफ़ोन के सामने बैठा होता है। 

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पिता जब जौनपुर-जौनसार अंचल का द्रुत नृत्य- लय वाला मिठास और विलक्षण बिम्बों से भरा विरहगीत गाते, पूरा घर इकट्ठा हो जाता। मां, बहनें और पास-पड़ोस के कई लोग इर्द-गिर्द जुटते और तल्लीन होकर सुनते :

‘आजणी बजली बाजणी बजली मृदंग बजलो कि भेरी 

ऊंची डाड्यों तुम निसि ह्वेजा बडसु देखण दे ले मेरी 

हे मेरा हलका ले रूमैल बदसु देखण दे ले  मेरी 

‘राडिन भाजि तीतरी दुर्वाली धरे ले ध्यो

फट जा कुयेडी ले डांडा की मैतुडा मेरु देखण ले द्यो

हे मेरा दूध का ले गिलास मैतुडा मेरु देखण ले द्यो 

‘कौरों जसी दुरजोधन पांडों जसी भ्यूं

तब जालि बालि सैसर जब गललु डाड्यों कु ह्यूं’

(आजे-बाजे बजेंगे या मृदंग बजेगा या भेरी बजेगी/ओ ऊंचे जंगलों, तुम कुछ झुक जाओ और मुझे अपना गाँव देखने दो। ओ मेरे हल्के रूमाल, मुझे अपना गाँव देखने दो। राडी नामक जगह से एक मादा तीतर उडी और दुर्वाली नामक जगह में रुक गयी/ ओ जंगलों के कुहरे, तुम कुछ छंट जाओ और मुझे अपना मायका देखने दो। ओ मेरे दूध के गिलास, मुझे अपना मायका देखने दो। कौरवों में कोई हो तो दुर्योधन जैसा हो और पांडवों में भीम जैसा हो/ यह लड़की ससुराल तब जायेगी जब जंगलों की बर्फ पिघल जायेगी।) 

पिता का हारमोनियम बेहद मीठा था। जर्मन रीड वाला, जैसा कि अच्छे खान-पान, रहन-सहन, कविता और गायन-वादन के शौक़ीन पिता खुद कहते थे। वह कलकत्ते की किसी कंपनी का बना था और काफी बजाये जाने की वजह से उसकी काले रंग की लकड़ी की कुंजियाँ घिस गयी थीं।

नाटकों को देखने आते थे लोग 

पिता उसे राधेश्याम कथावाचक के ‘वीर अभिमन्यु’, ‘विल्वमंगल’, ‘प्रहलाद’ और ‘सत्य हरिश्चंद्र’ जैसे नाटकों में बहुत बार बजा चुके थे। इन नाटकों का निर्देशन, उनकी वेशभूषा, मंचसज्जा वे खुद ही करते थे। हमारे घर के एक पास एक बड़े से आँगन में प्रस्तुत किये जानेवाले इन नाटकों को देखने आस-पास के गांवों से भी लोग आते। 

पिता ने टिहरी गढ़वाल के लोक कवि-गायक और  प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट कार्यकर्ता गुणानंद पथिक से संगीत की शिक्षा ली थी जो रामलीलाओं में तो बजाते ही थे, अब एक विशाल बाँध के पानी में डूब चुके ऐतिहासिक टिहरी शहर के बस अड्डे पर अक्सर अपने वाद्य पर क्रांति के गीत प्रस्तुत करते थे। वे ज़्यादातर प्रचलित लोकगीतों की धुनों पर अपने जन-जागरण के गीतों को ढालते थे ताकि वे जल्दी लोगों की ज़ुबान पर चढ़ सकें। 

हारमोनियम उनके गले से लटका होता, झोले में स्वरचित और स्वयं-प्रकाशित गीतों की पुस्तिकाएं रहतीं जिन्हें बहुत से बस यात्री खरीद कर ले जाते। पथिक-जी की आजीविका का यही साधन था। याद आता है, उनका एक गीत लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ था: ‘गरीबू का घर मां कंडाली की स्याणी/अमीरू का घर मां हलवा छ रतिब्याणी/ यो बात लिखी लेणी यो गीत सुनि जा’। 

(‘गरीब के घर में खाने के लिए बिच्छूघास भी नहीं है, लेकिन अमीरों के घर में रात-दिन हलवा मौजूद है। इस सच्चाई को लिख लो, इस गीत को सुन लो’)।  

कुछ वर्ष बाद जब मैं दिल्ली आया तो लगा, एक राग से बहुत दूर छिटक गया हूँ। जब मेरे गाँव का आखिरी पेड़ मुझसे ओझल हुआ, तभी से मेरे भीतर उस राग के अभाव ने घर कर लिया। जैसे यही राग था जो जीवन को चला रहा था, उसे एक गहरी गूँज से भरे हुए था।

दिल्ली में मैंने दुर्गा की खोज की। विनायक राव पटवर्धन और मल्लिकार्जुन मंसूर के गाये दुर्गा के कैसेट लिये और भीमसेन जोशी की वह मधुर बंदिश जो मेरे सुने हुए दुर्गा से कुछ अलग थी: विलंबित में ‘रस कान तू’ और द्रुत में ‘चतुर सुघरा बालमवा’। फिर वर्षों बाद कुमार गन्धर्व का दुर्गा सुना: ’अमोना रे।’ 

छोड़ दिया था हारमोनियम बजाना 

दिल्ली से मैं जब कभी-और बहुत कम-घर जाता, पिता से हारमोनियम पर दुर्गा सुनाने के लिए कहता, हालाँकि पिता का जीवन तब तक कहीं रुक चुका था, अपने अकेले बेटे की घर से लगभग विमुखता के कारण वे हताश थे और अपने लिए हारमोनियम बजाना बंद कर चुके थे। एक ज़माने में हारमोनियम बजाना उनका लगभग रोज़ का काम था। लेकिन अब उन्होंने हारमोनियम को उसके बक्से के भीतर इस तरह रख दिया था जैसे उसे कहीं गाड़ दिया हो, अपनी निगाह से छिपा लिया हो। 

दुर्गा पांच स्वरों-स रे म प ध-का एक सरल-उत्फुल्ल राग है और उसमें बहुत उपज की गुंजाइश नहीं होती, लेकिन भीमसेन जोशी उन बहुत कम गायकों में से हैं जिन्होंने गज़ब की लयकारी और जटिल तानों के साथ उसे देर तक गाया है।

कुछ वक़्त बाद, सन 1999 में मैंने भीमसेन जोशी का दुर्गा सुनने के अनुभव पर एक कविता लिखी, जिसमें मेरे बचपन के राग की स्मृति भी थी: ‘तभी सुनाई दिया मुझे राग दुर्गा/ सभ्यता के अवशेष की तरह तैरता हुआ/ मैं बढ़ा उसकी ओर/ उसका आरोह घास की तरह उठता जाता था/ अवरोह बहता आता था पानी की तरह।’ दुर्गा एक सभ्यता की तरह था, पानी, पेड़, घास, नदी, पत्थर, चिड़िया जैसी बुनियादी चीज़ की तरह, जिसके अवशेष ही अब बचे रह गये हैं।  

सन 1972 में दिल्ली में पहली बार अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले का आयोजन हुआ था- एशिया 72। प्रगति मैदान, हंसध्वनि और शाकुंतलम थियेटर उसी समय बने थे। एक शाम हंसध्वनि में पंडित  भीमसेन जोशी का गायन था। मैं उन दिनों साप्ताहिक ‘हिंदी पेट्रियट’ में नया-नया पत्रकार बना था। मेरे साथ मेरे मित्र त्रिनेत्र जोशी थे। लेकिन हमारे पास कोई प्रवेशपत्र नहीं था लिहाजा हमें दरवाज़े पर रोक दिया गया। हमने गुजारिश की कि हम लोग पंडितजी के प्रशंसक हैं और बहुत दूर हरियाणा से सिर्फ उन्हें सुनने की इच्छा से आये हैं। गेट पर खड़े पहरेदार ने हमारा हुलिया देखा, हमारी हवाई चप्पलों और धूल-सने पैरों पर निगाह डाली और हमें अन्दर जाने दिया। 

हॉल के भीतर भीमसेन जोशी आलाप शुरू कर चुके थे और मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था क्योंकि वे वही शुद्ध कल्याण गा रहे थे जिसे मैंने कुछ ही दिन पहले एक बंगाली प्राध्यापक के घर रिकॉर्ड प्लेयर पर सुना था। वह एलपी रिकॉर्ड हाल ही में जारी हुआ था जिसके दूसरी तरफ सुबह का राग ललित था। इसके साथ ही मालकौंस और मारू बिहाग का भी एक रिकॉर्ड निकला था और दोनों अद्भुत प्रस्तुतियां थीं। 

शुद्ध कल्याण की विलंबित बंदिश थी: ‘तुम बिन कौन खबरिया ले’। उन दिनों भीमसेन जोशी अपनी कला के उत्कर्ष को छू रहे थे, उनकी आवाज़ एक साथ सुरीली और दमदार, मुलायम और वज़नी, पृथ्वी को छूती हुई और दिगन्त में उड़ती हुई थी और इस आवाज़ में शुद्ध कल्याण जैसे सम्मोहक राग को सुनना ऐसा अनुभव था जिसके लिए कोई एक विशेषण खोजना कठिन था। लेकिन मेरे बगल में बैठे एक पगड़ीधारी सज्जन के पास विशेषणों की कोई कमी नहीं थी। वे कुछ पिये हुए थे, खासे ऊब रहे थे। मुंह बिचका रहे थे और गायक को कोस रहे थे। 

Manglesh dabral expert of Indian classical music - Satya Hindi
भीमसेन जोशी

भीमसेन जोशी का गायन

भीमसेन जोशी गाते समय तब बहुत नाटकीय मुद्राएँ बनाते थे, ऊपर-नीचे, दायें-बायें इस क़दर सिर और हाथ हिलाते और चेहरा विकृत करते थे कि देखकर गायन कुछ बेमज़ा होने लगता था। मैं उनकी ओर देखे बगैर सुनता रहा और बगलगीर बौड़म श्रोता को भी झेलता रहा। लेकिन करीब आधा घंटे के बड़े ख़याल के बाद जब भीमसेन जोशी ने द्रुत में छोटा ख़याल –‘रस भीनी–भीनी आ तेरो’-गाना शुरू किया तो पगड़ीधारी श्रोता खूब झूमने और ‘वाह-वाह’ करने लगे। 

गहरी साधना का असर

यह एक अद्भुत परिवर्तन था और भीमसेन जोशी के जादुई गायन की ताक़त थी कि उसने करीब आठ-दस मिनट में एक अनाडी-असहिष्णु आदमी  को रसिक में परिवर्तित कर दिया था। भीमसेन जोशी ने किराना घराने के राग-भण्डार में से शुद्ध और यमन कल्याण, कल्याण, मालकौंस, भीमपलास, मारू विहाग, जयजयवंती, विहाग, वृन्दावनी सारंग, मुल्तानी, मियां की मल्हार, मियां की तोड़ी, देशकार, भैरवी आदि कई रागों की इतनी गहरी साधना की थी और उन्हें इतना लाघवपूर्ण और चमत्कारिक बना दिया था कि उन्हें सुनकर सख्तजान लोग भी सम्मोहित हो उठते थे। 

एक बातचीत में भीमसेन जोशी ने संगीत-साधना की ऐसी अवस्था का ज़िक्र किया था जब यमन जैसा एक राग सिर्फ गायन नहीं रहता, बल्कि समूची सृष्टि को अलंकृत करने लगता है। उनके भण्डार में पूरी कायनात को रंजित-अलंकृत करनेवाले कई राग थे।

अपने व्यक्तित्व में वे साधारण दिखते थे और ग्रीन रूम में तो लगता नहीं था कि इतना बड़ा कोई कलाकार बैठा हुआ है, लेकिन जैसे ही मंच पर जाते, अचानक कोई कायाकल्प होता और वे एक लोकोत्तर उपस्थिति में बदल जाते। कभी-कभी यह दिक्क़त ज़रूर लगती थी कि उनके स्वरों के साथ कुछ कोलाहल भी लिपटा हुआ है और वे उस तन्मयता को नहीं छू पा रहे हैं जहाँ गायक और संगीत के बीच किसी की उपस्थिति नहीं होती। लेकिन बाद के वर्षों में उनका गायन काफी निरिद्विग्न और सौम्य हो गया था।

कल्याण का मधुर राग 

भीमसेन जोशी को सुनने के बाद लगता था, शुद्ध कल्याण से ज्यादा मधुर राग कोई नहीं है। शुद्ध मेलोडी। माधुर्य का एक समुद्री ज्वार, जो गोया किसी चंद्रमा को छूने के लिए बेक़रार था। भीमसेन जोशी की तानों और बोलतानों में हमेशा एक बांकपन रहता था जो लहरें उठाता और राग के व्यक्तित्व और रूप-रंग को तरह-तरह से प्रदर्शित करता। शुद्ध कल्याण को राग संगीत का समुद्र कहा जाता है और उसके स्वरों को दूसरे रागों को जोड़कर जितने मिश्र राग बने हैं उतने किसी और राग में संभव नहीं हुए। 

यमन कल्याण, नंद कल्याण, पूरिया कल्याण, हेम कल्याण, श्याम कल्याण, गोरख कल्याण, जैत कल्याण, शिव कल्याण। सावनी कल्याण, आदि। उसका दायरा इतना विस्तृत है कि उस्ताद अमीर खां उसे मंद्र सप्तक की महान बंदिश ‘करम करो किरपाल दयाल’ में गाते हैं तो फिल्म गायिका लता मंगेशकर ’रसिक बलमा दिल क्यों लगाया तोसे’ के उच्च-स्वर में उसे प्रस्तुत करती हैं और इनके बीच सैकड़ों दूसरे गायक-वादक उसके वैभव के विविध स्वरूपों को जगाते रहते हैं। 

आश्चर्यजनक यह है कि एक संगीतकार का शुद्ध कल्याण दूसरे संगीतकार से बहुत नहीं मिलता। कोई भी गायक उस एक ही तरह से नहीं गा सकता।

यह राग भी अपने आप में निराकार-सा है क्योंकि उसके आरोह में भोपाली के पांच स्वर-स रे म प ध- और अवरोह में यमन के सातों स्वर लगते हैं यानी वह सम्पूर्ण थाट होने के बावजूद दूसरे रागों से मिलकर बना है और उनमें घुल-मिलकर नयी मेलोडी को जन्म देता रहता है। एक मायावी राग, जिसे कोई भी संगीतकार पूर्णता और अंतिम ऊंचाई तक नहीं पंहुचा सकता। शुद्ध कल्याण हर गायक को विफल करने वाला राग है।

कुमार गन्धर्व का गायन

मधुर और कर्णप्रिय गायन में कुमार गन्धर्व भी लाजवाब थे। वे जब भी दिल्ली आते, गन्धर्व महाविद्यालय में उनका कार्यक्रम होता जहाँ मेरे मित्र गोविन्द बहुगुणा, जो तब गाँधी स्मारक निधि में काम करते थे, और पत्रकार प्रभाष जोशी (जो कुमारजी के मित्र थे और बाद में ‘जनसत्ता’ के संस्थापक-संपादक बने) मुझे ले जाते। कभी-कभी कवि-मित्र लीलाधर जगूड़ी भी साथ में होते। 

कुमारजी का कबीर-सूर-मीरा के पदों का अति-चर्चित चयन ‘त्रिवेणी’ एक बार करीब ढाई घंटे तक सुना। कुछ वर्ष बाद इस संगीत सभा की रिकॉर्डिंग मुझे समाजवादी विचारक मधु लिमये की मार्फ़त प्राप्त हुई जिसकी प्रतियां बनाकर कई दोस्तों को भेंट कीं। कुमार गन्धर्व की कुछ विलंबित प्रस्तुतियां ज़रूर कुछ एकरस लगती थीं, खास तौर से जटिल या ज्यादा बढ़त वाले रागों में वे सपाट हो जाते थे, लेकिन मध्य लय और द्रुत की बंदिशें सिर्फ विभोर नहीं करती थीं, बल्कि बहुत रचनात्मक और अनसुने रूपों में ढली हुईं थीं। 

मालकौंस, शुद्ध सारंग, मदमाद सारंग, भूप, चैती भूप, नन्द, गौरी वसंत, बहार, और उनका स्वरचित, मर्मस्पर्शी राग मालवती, जिसकी द्रुत बंदिश ‘मंगल दिन आज बना घर आयो’ पहली बार भोपाल में कवि अशोक वाजपेयी के घर रिकॉर्ड पर सुनकर आँखें भीग गयी थीं। कुछ वर्ष बाद मालवती का विलंबित ख़याल भी सुनने को मिला: ‘जा रे चला जा रे बदरा।’ 

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कुमार गन्धर्व।

भोपाल के दिनों में कुमार-जी से देवास में उनके घर दिन भर रह कर एक लम्बी और सामूहिक बातचीत भी की जो मध्य प्रदेश कला परिषद् के आयोजन ‘कुमार गन्धर्व प्रसंग’ के समय ‘पूर्वग्रह’ के विशेषांक में प्रकाशित हुई। कुमार-जी अपने घर देवास में मसनद पर बैठते और बायें तबले को हाथ की टेक की तरह इस्तेमाल करते थे। तबले का यह उपयोग देखना मेरे लिए एक नयी बात थी हालांकि इससे पहले मैंने आईटीसी के संगीत सम्मेलनों में तबले पर बैठी कोयल का आकर्षक रेखांकन देखा था।

कुमारजी घरानों के मूर्तिभंजक, शास्त्रीयता को लोक संगीत से जोड़ने वाले नवाचारी संगीतकार के रूप में प्रसिद्द थे, उनका एक ‘कल्ट’ बन चुका था और खास तौर से ‘त्रिवेणी’ सुनकर महसूस होता था कि कबीर, सूर और मीरा की रचनाओं को इतने अद्भुत ढंग से, उनके अर्थों का विस्तार करते हुए कोई और नहीं गा सकता। गायन के बीच में जब वे मौन होते तो दोनों ओर पूरी तरह मिले हुए उनके तानपुरे भी गाते हुए लगते। वे कहते भी थे कि ‘मैं तानपुरों को स्वरों के लिए कैनवस की तरह इस्तेमाल करता हूँ।’ 

‘त्रिवेणी’ में कुमारजी के गाये हुए कबीर, सूर और मीरा के पद विह्वल करने वाले थे और कबीर की गहरे विराग और अध्यात्म की रचनाओं में वे अतुलनीय लगते थे।

मुझे कबीर का यह पद खास तौर से प्रिय था जिसे आज भी जब सुनता हूँ तो आँखें नम हो जाती हैं और भीतर कहीं एक रुलाई सी उठती है:

‘नैहरवा हमका न भावे

सांई की नगरी परम अति सुन्दर जहां कोई आय न जावे 

चाँद -सूरज जहाँ पवन न पानी को सन्देश पंहुचावे

दरद यहू सांई को सुनावे

आगे चलूँ तो पंथ नहीं सूझे पीछे दोष लगावे

केहि विध ससुर जाऊं मोरी सजनी विषय रस नाच  नचावे

बिन सतगुरु अपनो नहीं कोई अपनो नहीं कोई जो यह राह दिखावे

कहत कबीर सुनो भाई साधो सुपिने में साजन आवे

सुपिनो यहू सांई को सुनावे।”

बाद में जब अमीर खां का शुद्ध कल्याण सुना तो महसूस हुआ कि यह राग समुद्र नहीं, एक आकाश, सृष्टि और एक अनंत है, जहाँ स्वर भीमसेन जोशी के गायन की लहरों की तरह नहीं उठते, बल्कि परिंदों की तरह उड़ते जाते हैं, कहीं विलीन होते हुए लगते हैं और गायक के सम पर आते ही लौट आते हैं। 

अमीर खां का अद्भुत गायन 

अमीर खां का गायन बहुत गंभीर, दार्शनिक किस्म का और अमूर्तनों से भरा हुआ था, लेकिन यह उनकी कला की ऊंचाई थी कि हम उन अमूर्तनों को मूर्त रूप में, एक भौतिकता में ‘देख’ सकते थे, उनके स्वर आलापचारी के समय पहले ज़मीन पर फैलते-पसरते और फिर उड़ान भरते दिखते। भीमसेन जोशी के कल्याण में गहरी रंजकता, अलंकारिता और विपुलता थी तो अमीर खां का कल्याण अनुचिंतनात्मक-मेडीटेटिव-आवेग, निरालंकरण और न्यूनता-मिनिमलिज्म-- से भरपूर था। 

अमीर खां की बहुत ज्यादा व्यावसायिक रिकॉर्डिंग उपलब्ध नहीं थीं (उनकी संख्या बाद में बढ़ी, जब अमीर खां के बढ़ते महत्व के कारण कई निजी संग्रह बाज़ार में आये), लेकिन मैंने अपने परिचितों की मदद से आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों भोपाल, इंदौर, लखनऊ, दिल्ली, कलकत्ता में उपलब्ध रेकॉर्डिंग हासिल कीं और कुछ अमीर खां के शिष्यों सिंहबंधु सुरिंदर सिंह- तेजपाल सिंह, स्व. महेंद्र शर्मा, गाँधी शांति प्रतिष्ठान के राजीव वोरा और कवि कुंवर नारायण के सौजन्य से प्राप्त हुईं। 

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अमीर खां।

रिकॉर्डिंग की खोज

कुंवरजी के घर पर उनकी गायी हुई ‘हंसध्वनि’ इतनी विलक्षण थी कि अमीर खां के प्रिय शिष्य पंडित अमरनाथ के शिष्य महेंद्र शर्मा समेत कई लोगों ने वह मुझसे माँगी। सन 1974 में एक कार दुर्घटना में असमय निधन से कुछ पहले अमीर खां ने भोपाल के मध्य प्रदेश कला परिषद् में बागेश्री कान्हड़ा और जनसम्मोहिनी आदि का बेजोड़ गायन किया था। उसकी रिकॉर्डिंग भी मुझे मिली। निजी संग्रहों की ऐसी लम्बी रिकॉर्डिंग मिलना कारूं का खज़ाना हाथ लगने की तरह था। 

दरबारी, मालकौंस, चंद्रकौंस, हंसध्वनि, शुद्ध कल्याण, नन्द कल्याण, हेम कल्याण, पूरिया कल्याण, यमन कल्याण, अडाना, हंसध्वनि, दरबारी, बागेश्री, बागेश्री कान्हड़ा, रागेश्री, चारुकेशी, जोग, वसन्त मुखारी, शाहाना, सुहा, आभोगी, पूरिया, विहाग, मारवा, कलावती, केदार, वसंत, मेघ, मियां की मल्हार, रामदासी मल्हार, रामप्रिय मेल, बहार, जनसम्मोहिनी, मियाँ की तोड़ी, गूजरी तोड़ी, बिलासखानी तोड़ी, नत भैरव, भटियार, चारुकेशी, कोमल ऋषभ आसावरी, देशकार, नटभैरव, बरवा, रामकली और ‘खुदित पाषाण’ जैसी कुछ फिल्मों में गाये गीतों की एक से बेहतर एक और कई-कई प्रस्तुतियां, जो अमीर खां की खंडमेरु तकनीक के बावजूद अलग-अलग मनःस्थितियों में गायी होने के कारण एक दूसरे से बहुत भिन्न होती थीं। ऐसे करीब 70 टेप मेरे पास हो गये और जीवन अमीर खां की आवाज़ से आप्लावित हो गया। 

एक दिन सुबह कवि रघुवीर सहाय घर आये। समय मिलने पर कभी-कभी वे अपनी पुरानी एम्बेसडर चलाते हुए आते थे। टेप रिकॉर्डर पर अमीर खां का कोमल ऋषभ आसावरी बज रहा था। रघुवीरजी ने पांच मिनट उसे सुना, फिर कहा, ‘या तो हम यह गाना बंद कर दें या अपनी बातचीत बंद कर दें। दोनों काम एक साथ करना मुश्किल है। इस संगीत को ‘बैकग्राउंड म्यूजिक’ की तरह नहीं सुन सकते। इसके लिए बहुत एकाग्रता चाहिए।’ 

रघुवीरजी कोई ज़रूरी बात करना चाहते थे, मैंने टेप रिकॉर्डर बंद कर दिया। लेकिन वे जब जाने लगे तो बोले, ’इसे सुनने मैं फिर किसी दिन आऊंगा।’ और फिर एक सुबह हम दोनों अमीर खां के इस राग को करीब एक घंटे तक नि:शब्द सुनते रहे। 

गायन में चुम्बकीय ताक़त

रघुवीर सहाय को संगीत की गहरी समझ और जानकारी थी और उसके प्रति उनका नजरिया बौद्धिक और गैर-भावुक था। शायद इसलिए भी अमीर खां उन्हें बहुत पसंद थे। अमीर खां को सुनते हुए कोई दूसरा काम करने में सचमुच दिक्क़त होती थी और गाना बंद करना पड़ता था क्योंकि उसमें ऐसी चुम्बकीयता थी कि दिल और दिमाग दोनों उसकी ओर खिंच जाते थे। कभी-कभी वे अपने गायन के बीच में कहते सुनाई देते : ‘नग़मा वही नग़मा है जिसे रूह सुने और रूह सुनाये’। उनका गायन सुननेवाले की भी रूह की मांग करता था। एक अनोखी दार्शनिक शान्ति के साथ मंच पर बैठने का उनका अन्दाज शुरू में ही बता देता कि वे लोकप्रियतावादी मनोरंजनकारी कलाकार नहीं हैं और उनसे निरे वाहवाही उपजाने वाले संगीत की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। गाते समय उनका सिर्फ एक हाथ आगे-पीछे कुछ हरकत करता और चेहरे पर तन्मयता और कभी-कभी पीड़ा के अलावा और कोई भावना नहीं दिखती।

दरअसल, अमीर खां किसी भी तरह के प्रदर्शन से या जिसे अंग्रेजी में ‘प्लेइंग टू द गैलरी’ कहा जाता है, उससे बहुत दूर थे। वे ऐसा कुछ नहीं करते थे जिसे ‘प्रस्तुति’ का नाम दिया जाता है। कभी लगता था कि वे सामने बैठे श्रोताओं के लिए नहीं, बल्कि खुद को ही सुनाने के लिए गा रहे हैं। इसीलिए उनका गायन जितना बाहर व्यक्त होता सुनाई देता था, उससे भी ज्यादा उनके भीतर जाता हुआ होता था। 

मानसून से सम्बंधित रागों में ज़्यादातर गायक जहां भौतिक और बाहरी आकार को, गर्जन-तर्जन को अभिव्यक्त करते रह जाते हैं, अमीर खां के मेघ (‘बरखा ऋतु आयी’) और मियां की मल्हार (‘बरसन लागी री बदरिया/ सावन की अत कारी अत भारी’) आदि को सुनते हुए लगता था जैसे यह कोई आतंरिक बारिश है जिसमें हम भीग रहे हैं। वातावरण-प्रधान रागों को ऐसी अंतर्मुखता देना कोई सरल काम नहीं है।

इस संगीत में क्या था जो बरबस अपनी ओर खींचता था और दुनियावी कामों से दूर ले जाता था? उसे सुनते हुए लगता था, कुछ और नहीं करना चाहिए और अगर हम कुछ और कर रहे हों तो यह संगीत नहीं सुनना चाहिए।

क्या वह बौद्धिकता थी या विकलता और मार्मिकता? या रूहानियत और विराग-भाव? शायद यह सभी कुछ उसमें था, लेकिन अमीर खां के संगीत के ये सिर्फ कुछ पहलू थे। अपनी अवधारणा और संरचना में वह कहीं अधिक जटिल और बहुआयामी था। उन्होंने कई स्रोतों-परम्पराओं–कलाकारों से अपनी कला को ग्रहण किया था इसलिए उनकी कला का आगम-क्षेत्र-कैचमेंट एरिया–घरानेदार संगीतकारों की तुलना में कहीं ज्यादा फैला हुआ था। उनके गायन की तामीर ध्रुपद की खंडमेरु शैली पर हुई इसलिए उसमें जोखिम-भरी प्रयोगशीलता के साथ ही प्राचीनता की अनुगूंज भी सुनाई देती थी।

किसी तयशुदा घराने का वारिस न होने के बावजूद या इसी वजह से अमीर खां वहां तक गये जहाँ से सभी घरानों का उद्गम माना जाता है। परंपरा की ऐसी अन्तर्निहित स्मृति उनके किसी दूसरे समकालीन में नहीं मिलती। खासकर उनके  हेम कल्याण, आभोगी, रागेश्री, मारवा, पूरिया और बरवा में एक पुरातन संगीत-समय भी हमें घेर लेता है। अपनी बंदिशों और उनमें निहित काव्य-तत्व के प्रति पवित्रता और सम्मान का जो भाव अमीर खां के यहाँ है, वह एक दूसरे धरातल पर कुमार गन्धर्व में ही मिलता है। 

कुमारजी जिस तरह भक्ति-कवियों के पदों और लोक-बंदिशों के मौलिक स्वरूप पर बहुत ध्यान देते थे, वैसे ही अमीर खां ने अमीर खुसरो, हाफ़िज़ और सादी की ज़्यादातर सूफी चेतना की फ़ारसी शायरी को तरानों में शामिल किया था। उन्हें समझने में मुश्किल होती थी इसलिए वे गाते हुए उनके माने भी बता देते थे।

गायन के अलावा अमीर खां का जीवन भी अभिभूत करनेवाला था, जिसके कई किस्से महेंद्र शर्मा और राजीव वोरा से सुनने को मिलते थे और इस महान गायक के प्रति सम्मान में इजाफा करते थे। दिल्ली के शुरुआती वर्षों में एक बार उन्हें सुनने का मौका मिला था-कमानी सभागार में, जहाँ उन्होंने दरबारी और और कान्हडा के दूसरे प्रकार गाये थे। उन्हीं दिनों सप्ताहिक ‘दिनमान’ में अमीर खां से उर्दू शायर और आकाशवाणी के अधिकारी अमीक हनफी का एक इंटरव्यू पढ़ने को मिला, जिसमें पकिस्तान में संगीत को भारतीय संगीत से अलग करने की कोशिशों के सवाल पर अमीर खां ने बहुत सुन्दर जवाब दिया था कि ‘शास्त्रीय संगीत में सात सुर होते हैं। ऐसा तो नहीं हो सकता कि इनमें से चार सुर हिंदुस्तान में रह गये हों और तीन  पाकिस्तान चले गये हों।’ ऐसी बेजोड़ विनोद-वृत्ति के साथ-साथ उनकी शराफत की भी चर्चा होती थी।

मानवीयता की मिसाल थे अमीर खां

मसलन, यह कि अमीर खां दूसरे संगीतकारों की तुलना में काफी कम फीस लेते हैं, कोई मोल-भाव नहीं करते, वरीयता के बावजूद संगीत सभाओं में आखिर में गाने का कोई आग्रह नहीं करते और पहले गाने के लिए भी तैयार रहते हैं, नमाज़ पढने मुश्किल से ही जाते, लेकिन दिल्ली में हज़रत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जाना नहीं भूलते, ईद के दिन बकरा कटवाने से परहेज़ करते और उसके पैसे आसपास के बच्चों में बाँट देते, दूसरों के दुख से तुरंत द्रवित हो उठते और मददगारी का हाथ बढ़ाते। यह इसके बावजूद था कि वे हमेशा हाथ से तंग रहे और फिल्म्स डिवीज़न द्वारा उन पर निर्मित एक वृत्तचित्र में उनकी आखिरी पत्नी रईसा बेगम पैसे के अभाव की शिकायत करती हुई दिखती हैं।

एक कवि-मित्र अक्षय उपाध्याय (जिनकी मृत्यु सत्यजित राय के साथ काम करने के दौरान एक ट्राम-दुर्घटना में हुई) ने बताया था कि एक बार कलकत्ता में उनके पास पैसे नहीं थे तो उन्होंने अमीर खां से मांगे, लेकिन उनके पास भी पैसे नहीं थे इसलिए वे एक घर में गये और कुछ देर बाद अपनी एक महिला प्रशंसक से पैसे लेकर आये। इन मानवीय कहानियों से लगता था कि यह एक ऐसा व्यक्ति ही कर सकता है  जिसने अपने को सांसारिक प्रलोभनों से ऊपर उठा लिया हो और जो बिना किसी स्वार्थ के जीता हो। 

जिन लोगों ने राग मारवा की उनकी बड़े और छोटे ख़याल की बंदिशें –‘पिया मोरे अनत देस बसें/ना जानूं कब घर आवेंगे’, या ‘रे जग बावरे’ और ‘गुरु बिन ज्ञान न पाये‘ या जनसम्मोहिनी में ‘कौन जतन सों पिया को मनाऊं’ सुनी हैं, उन्हें अमीर खां के गहन विराग और अमूर्तन का एहसास होगा।

उनके मारवा के बारे में पंडित रविशंकर ने कहा था: ऐसा मारवा मैंने इस पृथ्वी पर कहीं नहीं सुना। उनके यमन में भी इसी तरह का अमूर्तन होता था। यमन एक बहुत इस्तेमालशुदा और आरंभिक राग है और उसे प्रस्तुत करना जितना सरल है, नए और अप्रत्याशित आयामों तक पंहुचाना उतना ही मुश्किल है। लेकिन अमीर खां के स्वरों में वह लोकोत्तर अनुभव बन जाता था। यमन के विलंबित में वे कभी एक श्रृंगारिक बंदिश ‘कजरा कैसे डारूं’ और कभी आध्यात्मिक बंदिश ‘शाहाजे करम दरवेश निगर’ गाते थे और द्रुत में अक्सर ‘ऐसो सुघर सुन्दरवा बालमवा/मईका सुरंग चुनरिया दियहू मंगाय’। 

Manglesh dabral expert of Indian classical music - Satya Hindi
अमीर खां।
मध्य लय में एक और बंदिश भी उन्होंने कुछ समय तक गायी: ‘अवगुन न कीजिये गुनिजन।’ ‘ऐसो सुघर सुन्दरवा’ में वे एक ऐसे सौन्दर्यशास्त्र को निर्मित करते थे जो बहुत भौतिक और दृश्यात्मक होते हुए भी विस्तीर्ण अमूर्तन में बदल जाता था। श्रोता यह ‘देख’ सकता था कि वह स्त्री जिसके ‘बालम’ ने उसके लिए सुंदर रंग की चुनरी मंगा दी है, कितनी मासूमियत के साथ उल्लसित है और इस ख़ुशी को तरह-तरह से व्यक्त कर रही है, लेकिन यह सब जहाँ घटित हो रहा है वह इस दुनिया से कहीं दूर, सृष्टि का कोई दूसरा विस्तार और दूसरा देशकाल है। अक्सर यह एहसास होता था कि अमीर खां जिस समय में गा रहे हैं, उसे अविलम्ब लांघ रहे हैं, एक दूसरे समय में पहुँच गए हैं और दोनों के बीच एक द्वंद्वात्मक सौंदर्य निर्मित हो गया है। 
किसी दार्शनिक का कथन है कि दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं। एक वे जो सांसारिक हैं और अध्यात्म की खोज में रहते हैं, और दूसरे वे जो आध्यात्मिक होते हैं लेकिन उन्हें सांसारिकता के लिए मजबूर होना पड़ता है। अमीर खां दूसरे किस्म के इंसान थे। ऐसे इंसान का न कोई घर बन पाता है, न घराना।

घरानों से परे रहे अमीर खां 

अमीर खां ने जितनी बार घर बसाने की कोशिश की, विफलता ही हाथ आयी और जहां तक घराने का सवाल है, वे किसी में नहीं अट पाये और सभी घरानों से परे जाते रहे। उस्ताद अब्दुल वहीद खां से गायन की कुछ समानता के कारण उन्हें किराना घराने में रखने की मुहिम चली, लेकिन उन्होंने भेंडी बाज़ार घराने के अमान अली खां और देवास के उस्ताद रजब अली खां की गायकी के चुनिन्दा तत्वों को भी आत्मसात किया था, इसलिए उसे कहीं-की-ईंट-कहीं–का-रोड़ा-नुमा गायकी कहकर उपेक्षित करने की कोशिशें हुईं। 

अमीर खां अपने शिष्यों को बाकायदा तालीम नहीं दे पाते थे और गाते समय संभवतः अपनी ध्यानावस्था के भंग होने की आशंका से स्वर-संगत के लिए किसी को नहीं रखते थे (इसका संकेत कुछ समीक्षकों ने भी किया है), लेकिन इसके बावजूद आश्चर्य यह है कि उनके शिष्यों और उनका अनुकरण करने वालों की तादाद सबसे ज्यादा रही है और दर्ज़नों गायक रिकॉर्डिंग सुनकर ही उनके स्वर लगाने के तरीके, बढ़त और विस्तार की शैली का अनुकरण करते रहे हैं। 

रामपुर-सहसवान घराने के राशिद खां की मिसाल अक्सर दी जाती है, जो बहुत से रागों में अमीर खां के पैरों की छाप पर ही अपने पैर रखते हुए बढ़ते हैं। कहते हैं, सितारवादक निखिल बनर्जी ने उनसे कहा था कि ‘आप जो गाते हैं, मैं उसे ही सितार पर बजा देता हूँ।’ अमीर खां के शिष्यों ने उनके लिए इंदौर घराने की ईजाद की, लेकिन यह कहना ज्यादा सही होगा कि वे सभी घरानों का घराना, तमाम गायकों के गायक थे--कुछ इस तरह जैसे हिंदी में शमशेर बहादुर सिंह को ‘कवियों का कवि’ कहा जाता था। 

संगीत आम तौर पर आनंद की ओर ले जाता है, द्वंद्वों, टकराहटों, दरारों को पाट देता है, विसर्जित कर देता है और समरसता पैदा करता है। लेकिन अमीर खां का संगीत समरसता नहीं उपजाता, बल्कि एक ख़ास तनाव को जन्म देता है जो बहुत रचनात्मक होता है  और जिसे आत्मसात करने के लिए सिर्फ दिल नहीं, दिमाग की भी दरकार होती है। इसीलिए वह हमें ‘बौद्धिक’ लगता है, लेकिन आश्चर्य कि गाना समाप्त होने पर एहसास होता है कि उसने हमारे भीतर कुछ पैदा कर दिया है और हम कुछ अधिक मनुष्य हो उठे हैं और यह दुनिया भी कुछ सुन्दर हो गयी है, और यह अनुभव भी जितना विलक्षण हो, अंतिम नहीं है, बल्कि हम इसमें कुछ और, अपनी कोई भावना, अपना कोई राग और विराग जोड़ सकते हैं। यह एक महान अमूर्तन था जिसे अमीर खां जीवन भर गाते रहे, लेकिन वह उनके संगीत में इतने स्वाभाविक ढंग से आकार लेता था जैसे, खुद उन्हीं के शब्दों में, ‘पेड़ पर पत्ते आते हैं।’

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मंगलेश डबराल

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