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प्रतीकात्मक तसवीर।

असंभव होता जा रहा है जातीय आधार पर एकता बनाना

मध्य प्रदेश के शिवपुरी में दिल दहला देने वाली घटना सामने आई। वाल्मीकि समाज के दो बच्चे, रोशनी जिसकी उम्र 12 साल और अविनाश जिसकी उम्र 10 साल थी, पंचायत भवन के सामने सड़क पर शौच कर रहे थे। हाकिम यादव नाम के शख़्स ने उन्हें शौच करने से मना किया। मारे गए बच्चों के परिजनों के मुताबिक़, हाकिम और रामेश्वर यादव ने उनके बच्चों की लाठियों से पिटाई की। उन्होंने दोनों को तब तक मारा जब तक उनकी मौत नहीं हो गई। 

मारने वाले यादव यानी पिछड़े वर्ग के, जबकि मारे गए बच्चे अनुसूचित जाति के हैं। हत्यारोपियों ने यह भी बयान दिया कि उन्हें भगवान ने राक्षसों का संहार करने का आदेश दिया था। साथ ही यह भी सूचना निकलकर सामने आई कि दलितों को गांव के सरकारी नल पर सबसे बाद में पानी भरने दिया जाता था।

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जातीय नफ़रत फैलाने वाली प्रतिक्रियाएं आईं 

इसके बाद प्रतिक्रियाओं की बाढ़ सी आ गई। सबसे पहले बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने इस घटना को लेकर कांग्रेस व बीजेपी दोनों दलों पर सवाल उठाया। सोशल मीडिया में जातीय घृणा खुलकर सामने आने लगी। दलित तबक़े से जुड़े युवाओं ने पिछड़े वर्ग की जातियों को सवर्णों से भी ख़तरनाक बताना शुरू कर दिया। चौतरफ़ा जातीय घृणा और नफरत की चर्चा तेज हो गई। 

इस बीच जातिवाद के समर्थकों ने भी हाथ साफ़ करना शुरू किया और यह कहने लगे कि क्या जाति कायम रखते हुए सौहार्द्र नहीं बनाया जा सकता? क्या एकता बनाए रखने के लिए यह ज़रूरी है कि सभी लोग एक-दूसरे के चौका-बर्तन छुएं?

कांशीराम ने बहुजन समाज की अवधारणा दी। उन्होंने दलितों, पिछड़ों व मुसलमानों को जोड़ने की कवायद की। यूपी में एक हद तक यह फ़ॉर्मूला सफल भी रहा, जहां कांशीराम के नेतृत्व वाली बीएसपी ने ओबीसी की थोड़ी मजबूत जातियों जैसे कुर्मी, कुशवाहा को अपना लठैत बनाया।

बहुजन समाज की अवधारणा फ़ेल

विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के बाद यह एकता थोड़ी बहुत और प्रगाढ़ हुई क्योंकि दलित और पिछड़े दोनों ही आरक्षित वर्ग के बन गए। धीरे-धीरे यूपी-बिहार में ओबीसी आरक्षण के कारण उपजी एकता जातीय वर्चस्व में बदल गई। वहीं, बसपा पूरी तरह से जातीय गिनती में फंसती चली गई। उसने पिछड़े वर्ग की उपेक्षा की और ब्राह्मण-दलित और मुसलिम समीकरण का सहारा लिया। यह समीकरण एक हद तक कामयाब भी रहा क्योंकि ब्राह्मण तबक़ा संख्या में कम होने के बावजूद मतदाताओं को प्रभावित करने की कूवत रखता है। 

लेकिन बीएसपी द्वारा पिछ़ड़े वर्ग की उपेक्षा के कारण यह तबक़ा पार्टी से दूर होता चला गया। वहीं बीजेपी ने कोरी जाति के राष्ट्रपति बनाने का ह्वाट्सऐप से लेकर समाचार के विभिन्न माध्यमों में ख़ूब प्रचार किया और मायावती को जाटव जाति का नेता घोषित कर दिया। वहीं, ग़ैर यादव पिछड़े तबक़े का बड़ा हिस्सा बीजेपी में भविष्य तलाशने लगा। अब 85 प्रतिशत बहुजन केवल हवाई परिकल्पना रह गई, जिसे कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में एक हद तक सफल बना दिया था।

आरक्षण भी जोड़ने में सक्षम नहीं

आरक्षण का भी प्रचार कुछ इस तरह से किया गया है कि यह जातीय आधार पर दिया गया। सरकारी नौकरियों के ख़त्म होने और सत्तासीन बीजेपी की धांधलियों, तिकड़मों के कारण पिछड़े वर्ग की मैरिट सामान्य से ऊपर जाने लगी है। यह टीचिंग से लेकर मेडिकल, इंजीनियरिंग तक की परीक्षाओं में देखने को मिल रहा है। इसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है। ऐसे में ओबीसी तबक़े के लिए अब आरक्षण कहीं से फायदेमंद नहीं लग रहा है। 

क्षत्रिय, ब्राह्मण घोषित करने की कोशिश!

सरकारी नौकरियों की संख्या कम होना भी आरक्षण के प्रति मोहभंग होने की एक वजह है। साथ ही जो जातियां बहुत ही पिछड़ी हुई हैं, वे खुद को किसी राजवंश का या क्षत्रिय, ब्राह्मण घोषित करने की कवायद में रहती हैं। उन्हें लगता है कि आरक्षण की वजह से ही उन्हें नीच माना जाता है और आरक्षण ख़त्म होते ही उनके सिर से नीच जाति का ठप्पा हट जाएगा और उनका ख़ुद को क्षत्रिय या ब्राह्मण होने का दावा मान लिया जाएगा। 

यह दुष्प्रचार भी चरम पर है कि कुछ जातियां ही आरक्षण का लाभ ले रही हैं और वास्तव में पिछड़े लोगों को आरक्षण का फायदा नहीं मिलता। इस तरह से आरक्षण का मसला भी अब एकता लाने वाला नहीं रह गया है।

किसानों की एकता का क्या? 

अगर किसानों के हित की बात करें तो उनमें ओबीसी आरक्षण पाने वाली ज़्यादातर जातियां समाहित होती हैं। इनके अलावा मराठा, पटेल, कापू, जाट जैसी जातियां भी किसान एकता के नाम पर सामने आ सकती हैं। अपर कास्ट में ऐसे लोग जो खेती-बाड़ी से जुड़े हुए हैं, को भी अगर किसान कहा जाए तो वह ख़ुद को अपमानित नहीं महसूस करेंगे। इस अवधारणा पर चौधरी चरण सिंह ने ठीक-ठाक राजनीति की। हालांकि वह भी अजगर (अहीर, जाट, गुर्जर, राजपूत) में बदल गई और जाति ने पीछा नहीं छोड़ा। आख़िरकार जातीय वर्चस्व में किसान एकता भी जाती रही। 

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आज के दौर में किसान के नाम पर एकजुट होने को लेकर समस्या यह भी है कि गांवों में भी सिर्फ़ खेती पर निर्भरता बहुत कम लोगों की रह गई है। ज़्यादातर लोग ठेकेदारी, दुकान, प्राइवेट या सरकारी नौकरियों जैसे साइड के कामों से परिवार चला रहे हैं और किसानों की व्यापक एकता उनके लिए समस्याओं का समाधान नहीं बल्कि सांकेतिक ही रहेगी। किसानों को एकजुट करने का मसला भी बहुत साफ़ नजर नहीं आता।
इस समय आरएसएस-बीजेपी ने हिंदुत्व व धार्मिकता की राजनीति के साथ ऐसी खिचड़ी बना दी है कि बग़ैर ख़र्च के भी उसका साल के बारहों महीने प्रचार होता रहता है।

कभी कांवड़ यात्रा, कभी दुर्गा भसान, कभी लक्ष्मी पूजा, कभी रामलीला चलती ही रहती है और इसमें तिरंगा लहराने, जय श्रीराम के नारे लगाने सहित वह सभी नारे लगते हैं, जो बीजेपी ने गढ़े हैं। 

दिलचस्प यह है कि सड़क पर मूर्तियां लेकर डीजे पर थिरकने वाले ज़्यादातर युवा-युवतियां, बच्चे पिछड़े वर्ग से जुड़ी जातियों के हैं। इनमें बेहतर जिंदगी जी रहे सवर्ण बच्चों की भागीदारी कम होती है। इस पिछड़े वर्ग की धर्म में संलिप्तता न सिर्फ़ इस तबक़े को बीजेपी की ओर खींच रही है बल्कि वे वही नारे लगा रहे हैं, जो बीजेपी के चुनावी जनसभाओं के नारे होते हैं। विपक्ष के लिए इससे निपटना मुश्किल हो रहा है।

अब जातीय आधार पर कोई एकता बनती नजर नहीं आ रही है। मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद बनी यह एकता अब जातियों में खंड-खंड हो चुकी है। जन्म के आधार पर ऊंच-नीच में बांटने के लिए जाति बनाई गई थी, और अब वह उसी बांटने वाली भूमिका में है।

नए मसले खोजने ज़रूरी

उत्तर प्रदेश की राजनीति ने दलित व पिछड़े तबक़े के बीच नफ़रत की खाई बहुत चौड़ी कर दी है। यह राजनीतिक विश्लेषकों के लिए भी जानना असंभव हो रहा है कि कौन से मसले हो सकते हैं, जो बेरोज़गारी, अशिक्षा, महंगाई, धार्मिक नफ़रतों की मार झेल रही जनता को एक सूत्र में बांध सके। यह मसला सांप्रदायिकता, किसानों की व्यापक एकता हो सकता है। बढ़ती बेरोज़गारी व आर्थिक बदहाली हो सकती है। या कुछ और, जिसकी चर्चा नहीं हो पा रही है। 

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बहरहाल, अभी बीजेपी अपने मुताबिक़ पूरे विपक्ष व जनमानस को खेलने के लिए मजबूर कर रही है। अगर बीजेपी हाउडी मोदी कर देती है तो विपक्ष से लेकर मुख्य धारा का मीडिया और सोशल मीडिया हाउडी-हाउडी कर रहा है, चाहे वह मोदी के ख़िलाफ़ बोले या समर्थन में। अभी उन मसलों का इंतजार है, जो पीड़ित-वंचित तबक़े का साझा प्लेटफॉर्म तैयार कर सके। 
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प्रीति सिंह

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