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दिल्ली दंगे: ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद...

साल 2020 की फ़रवरी में हुए दिल्ली के हालिया दंगे को देख कर कलेजा मुँह को आता है। दंगों का ज्वार थमने के बाद मीडिया और पुलिस का रवैया वही है जो राहत इंदौरी ने अपने इस शेर में कहा है- ‘अब कहाँ ढूंढने जाओगे हमारे कातिल/आप तो क़त्ल का इल्ज़ाम हमीं पर रख दो।’

अब इस बात का कोई मतलब नहीं रह गया है कि दंगों का इतिहास बताते हुए मारे गए लोगों के आँकड़े पेश किए जाएँ या पुलिस के पक्षपाती और सांप्रदायिक रुख का ज़िक्र किया जाए। हर दंगे का यह स्थायी भाव बन गया है और इंसानी मौतें महज एक संख्या से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। यह हमारी सांप्रदायिक राजनीति की ही देन है, जिसमें एक व्यक्ति, एक नागरिक केवल एक संख्या में बदल जाता है; कभी वोट के लिए और कभी विरोधियों पर चोट के लिए। वे आरोप भी बेमानी हैं, जिनमें दंगों के लिए इस या उस राजनीतिक दल के कार्यकाल को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है, क्योंकि दंगा कराने वाले कारखाने अब समाज के बीच खुल गए हैं। सरकार किसी की भी हो, उनकी मशीनरी भारत विभाजन के उद्गम से निकली रक्तरंजित नदी को 70 साल बाद भी किसी प्रदेश में सूखने नहीं देती।

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सांप्रदायिकता का ज़हर चुपचाप समाज की धमनियों में बहता रहता है, और राजनीतिक रक्तचाप के चलते जब ये धमनियाँ फटती हैं तो कभी भिवंडी दंगा होता है, कभी कोलकाता होता है, कभी अहमदाबाद होता है, कभी भागलपुर होता है, कभी मेरठ होता है, कभी समूचा गुजरात होता है, कभी मुज़फ़्फ़रपुर होता है- बस जगहें बदल जाती हैं… और अब दिल्ली दंगा हो गया, तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है! दंगों की शक्ल में घरों, गलियों, सड़कों, गटरों और मैदानों में इंसान का लहू बहता है। किसी का कम, किसी का ज़्यादा। मुआवज़े या जाँच के ब्रश से हर बार इस लहू की लीपापोती करने की कोशिश की जाती है, लेकिन लहू का रंग किसी हाल में छुपाए नहीं छुपता और हिंदुस्तान का रंग बेनूर होता जाता है। इसीलिए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ सवाल करते हैं-

“कब नज़र में आएगी बे-दाग़ सब्जे की बहार 

ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद।”

ख़ून के इन धब्बों को मिटाने के बजाए उन्हें ढँकने का प्रयास किया जाता है। नतीजतन जख़्म नासूर बनते जाते हैं। लेकिन दंगा कराने वालों की चाँदी हो जाती है। कवि एवं संस्कृतिकर्मी गोरख पाण्डेय की कविता इसका मर्म खोलती है-

“इस बार दंगा बहुत बड़ा था 

ख़ूब हुई थी ख़ून की बारिश

अगले साल अच्छी होगी फ़सल 

मतदान की।”

लेकिन आम जनता दंगा नहीं चाहती। उसे तो दंगे वाले कारखाने और उसकी मशीनरी असुरक्षा के भय में डुबोए रखती है। जनता असली-नकली धार्मिक विद्वेष की रौ में भी बह जाती है। फिर दंगों के बाद अक्सर लोग पहले की ही तरह एक-दूसरे के पड़ोस में गुज़र-बसर करने लगते हैं। चंडीगढ़ में रहने वाली लेखिका शायदा बानो का अनुभव देखिए-

“1987, मेरठ जल रहा था। हम जिस घर में हमेशा से रहे, एक रात वहाँ से हटकर तीन अलग जगहों पर पनाह लेनी पड़ी। अगली सुबह आर्मी ने रेस्क्यू करके कैंट स्टेशन तक छोड़ा। छह महीना फिर घर नहीं लौट सके। वापस आए तो घर सही-सलामत था। हम फिर वहीं रहे बरसों। वही पड़ोस, वही लोग। कोई शिकवा किसी से नहीं। हमको उम्मीद की बीमारी है। ये आग भी बुझ जाएगी। जो आज घर छोड़कर जा रहे हैं, कल लौट आएँगे। फिर से उन्हीं चौक, बाजारों में एक साथ घूमेंगे। काम-धंधा करेंगे। फिर अमन लौटेगा। सब साथ रहेंगे। अमन का कोई विकल्प नहीं।”

दिल्ली दंगों के दौरान अमनपसंद हिंदू-मुसलमानों ने कई गली-मोहल्लों में इंसानियत, भाईचारा और खिदमतगारी की मिसालें पेश कीं और दंगाई हिंदू-मुसलमानों के इरादों पर पानी फेर दिया। अगर यह न हुआ होता तो दिल्ली अब से ज़्यादा बदशक्ल दिख रही होती।

दिल्ली के उत्तर-पूर्वी हिस्से के चांदबाग़ इलाक़े में बाहर से भीड़ आई और तबाही मचाकर चली गई। उनके कहर से वाहन, दुकानें और मकान- कुछ नहीं बच सका। फिर भी लोगों ने उपद्रवियों का डट कर सामना किया और मुसलमानों ने इलाक़े के तीन में से एक मंदिर को पूरी तरह अपने घेरे में लेकर उसकी रक्षा की। एक वाक़या भागीरथी विहार की गली नंबर-4 का है।

मुस्तफाबाद रोड पर बसे इस इलाक़े के निवासी सुनील जैन ने बताया कि गली में रहनेवाले हासिम, डॉक्टर फरीद और इरफ़ान सहित कई और मुसलिम ढाल बनकर गली के मेन गेट पर खड़े हो गए थे और उन्होंने उपद्रवियों से कहा कि इस गली में रहनेवाले हिंदुओं तक पहुँचने के लिए उन्हें उनकी लाशों से गुजरना होगा! 

कुछ ऐसा ही यमुना विहार इलाक़े में भी हुआ। डीटीसी में जॉब करने वाले दिनेश सिंह ने बताया कि सैकड़ों उपद्रवी रोड नंबर-66 पर पहुँच गए थे और यमुना विहार सी-12 के घरों पर पथराव और पेट्रोल बमों से हमले कर रहे थे। लेकिन उस भीड़ के कॉलोनी में घुसने से पहले ही कॉलोनी के मुसलिमों ने भीड़ को रोक दिया और हिंदू परिवारों को बचाने के लिए वे रातभर कॉलोनी के गेट पर डटे रहे।

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ख़ुद की जान पर खेल दूसरों की जान बचाई

इसी तरह उत्तर-पूर्वी दिल्ली के अशोक नगर में क़रीब 40 मुसलिमों के लिए उनके हिंदू पड़ोसी रहनुमा बने हुए हैं। गुज़रे मंगलवार को जब भीड़ ने इनके घर फूँक दिए तो इन हिंदुओं ने अपने घर के दरवाज़े खोल दिए। अशोक नगर की गली नंबर पाँच में रहने वाले नीरज कुमार का कहना है कि वह दंगा करने वाले किसी शख्स को नहीं जानते। यहाँ रहने वाले एक-दूसरे को कभी नुक़सान नहीं पहुँचाएंगे, क्योंकि एक-दूसरे को सालों से जानते हैं। जो भी हो जाए हम उनके साथ खड़े रहेंगे। हम भी हिंदू हैं, लेकिन उनकी संपत्ति को नुक़सान पहुँचाने की सोच भी नहीं सकते। अब उनका घर और रोज़ी-रोटी का साधन बर्बाद हो चुका है। संकट की इस घड़ी में हम उन्हें अकेले नहीं छोड़ सकते हैं। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में भड़के दंगों के बीच शिव विहार इलाक़े में एक ऐसा दर्दनाक मामला भी सामने आया, जब प्रेमकांत बघेल नामक हिंदू युवक ने धू-धू कर जलते हुए घर में कूद कर मुसलिम परिवार के 6 सदस्यों की जान बचाई और पीछे छूट गई जिगरी दोस्त की बुजुर्ग माँ को बचाने के प्रयास में ख़ुद 70% जल गए!

विचार से ख़ास

दरअसल, प्रेमकांत ने न सिर्फ़ 7 ज़िंदगियाँ बचाई हैं बल्कि हिंदुस्तान की झुलसती हुई आत्मा को बचाया है और धर्मांधों को धर्मनिरपेक्षता के असली मायने सिखाए हैं। आप दिल्ली की गलियों में निकलेंगे तो ऐसी अनगिनत मानवीय कहानियाँ आपका इंतज़ार करती मिलेंगी। हमारे समाज का कारवाँ अभी इतना हिंसक नहीं हुआ है, जितना कि हमारे रहबर बनाना चाहते हैं। आप दंगे से तबाह हुए किसी भी मोहल्ले के किसी भी शख्स से पूछ लीजिए, वह आपको यही बताएगा कि दंगाई स्थानीय नहीं थे बल्कि कहीं बाहर से आए थे। ज़ाहिर है कि ये उपद्रवी उन्हीं दंगा फ़ैक्ट्रियों के कारकून थे, जिनके मालिक सत्ता और प्रशासन संचालित कर रहे हैं।

अब दंगा तो गुज़र चुका और दंगाई अपनी-अपनी मांदों में घुस चुके हैं। मलबों के मालिक बन चुके दिल्ली के बाशिंदे शायर शहाब जाफरी के इस शेर के ज़रिए वही पुराना सवाल उठा रहे हैं- 

“तू इधर उधर की न बात कर, ये 

बता कि काफिला क्यों लुटा?

मुझे रहजनों से गिला नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है।”

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विजयशंकर चतुर्वेदी

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