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आरसीईपी: न्यूज़ीलैंड के आगे क्यों नहीं टिक पाएगा भारतीय दूध?

भारत ने समग्र क्षेत्रीय आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया है। यह इसलिए क्योंकि इसको आरसीईपी के कुछ प्रावधानों पर आपत्ति है। इसमें से एक प्रावधान डेरी उत्पादों से जुड़ा हुआ है। भारतीय उद्योगों का मानना है कि अगर भारत इस समझौते में शामिल होता है तो देश के किसान बर्बाद हो जाएँगे। भारत में आशंका जताई जा रही थी कि समझौते में शामिल हो रहा न्यूज़ीलैंड अपने सस्ते डेरी उत्पाद भारत में पाट देगा और यहाँ के पशुपालक किसान इसका मुक़ाबला नहीं कर सकेंगे।

भारत में गाय का बड़ा सम्मान है। बहुत पुराने समय से देश भर में गोशालाएँ चलती हैं। भारत में गाय को धार्मिक मानने व उसका सही इस्तेमाल न कर पाने को लेकर मोहनदास करमचंद गाँधी ने गहरी चिंता जताई थी। उनका कहना था कि भारत में लोगों को पशुधन का इस्तेमाल नहीं आता, जिसकी वजह से करोड़ों रुपये का नुक़सान हो रहा है। 1947 में एक प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा था, ‘हिंदुस्तान भर में गोशालाएँ सिर्फ़ ऐसी जगहें बनकर रह गई हैं जहाँ ढोरों को बुरी हालत में रखा जाता है। ऐसी संस्थाएँ होने के बजाय इस तरह की जगहें हों, जहाँ कोई शख्स हिंदुस्तान के ढोरों को ठीक तरह से पालने की कला सीख सके, जो आदर्श डेरियाँ हों और जहाँ से लोग अच्छा दूध, अच्छी गाय और अच्छी नस्ल के सांड और मज़बूत बैल ख़रीद सकें।’

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गाँधी ने भारत में पशुओं की गुणवत्ता को लेकर सवाल उठाए। बीमार, कम दूध देने वाली और ख़राब परिस्थितियों में जी रही गायों को लेकर वह चिंतित थे। गाँधी का मानना था कि उन्हें गायों के बारे में जानकारी है, इसलिए दावे के साथ यह कह रहे हैं कि भारत में गायों को पालने की कला उन लोगों को नहीं पता है जो बहुत ही श्रद्धा भाव से गोशालाएँ चलाते हैं। इस स्थिति से निराश होकर गाँधी ने कहा था, ‘किसी माहिर ने कहा है कि हमारा पशुधन देश के लिए बोझ है और वह सिर्फ़ नष्ट कर देने के ही काबिल है। मैं इससे सहमत नहीं हूँ। मगर यदि आम अज्ञान इसी तरह कुछ दिनों तक और बना रहा तो मुझे यह जानकर ताज्जुब नहीं होगा कि पशु देश के लिए बोझ बन गए हैं।’

भारत में पशुओं की गिनती 1919 में शुरू हुई थी। अब तक 19 बार पशुओं की गिनती हो चुकी है। इसमें उनकी संख्या, उम्र, लिंग जैसी तमाम जानकारियाँ जुटाई जाती हैं। 1998 से विश्व के दूध उत्पादक देशों में भारत प्रथम स्थान पर बना हुआ है। भारत में दुधारू पशुओं की संख्या दुनिया में सबसे ज़्यादा है। 1950-51 से 2017-18 के दौरान भारत में दूध उत्पादन 1.7 करोड़ टन से बढ़कर 17.64 करोड़ टन हो गया है। देश में प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता 1950-51 में 130 ग्राम प्रति दिन थी जो वर्ष 2017-18 में बढ़कर 374 ग्राम प्रतिदिन हो गई है। इसकी तुलना में विश्व में वर्ष 2017 के दौरान अनुमानित औसतन ख़पत 294 ग्राम थी।

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के 70वें चक्र के सर्वेक्षण से पता चलता है कि बहुत छोटे भूखंडों (0.01 हेक्टेयर से कम) वाले कृषि परिवारों के पाँचवें भाग से अधिक (23 प्रतिशत) परिवारों ने पशुधन को अपनी आय का मुख्य स्रोत बताया है।

कुछ संख्या में गोपशुओं के साथ खेती करने वाले परिवार अत्यधिक ख़राब मौसम की स्थिति के कारण पैदा होने वाली विपदा का बेहतर रूप से सामना करने में सक्षम होते हैं।

भारत में अधिकाँश दूध छोटे, सीमान्त किसानों और भूमिहीन श्रमिकों द्वारा पाले गए पशुओं से प्राप्त होता है। भारत में कुल दूध उत्पादन में से लगभग 48 प्रतिशत दूध का या तो उत्पादन स्तर पर ही उपभोग कर लिया जाता है या ग्रामीण क्षेत्र में दूध का उत्पादन न करने वालों को बेच दिया जाता है। शेष 52% दूध शहरी क्षेत्रों में बेचा जाता है। बेचे जाने वाले दूध में से लगभग 40 प्रतिशत दूध की बिक्री संगठित क्षेत्र (20 प्रतिशत सहकारिताओं द्वारा और 20 प्रतिशत निजी डेरियों द्वारा) द्वारा की जाती है और शेष 60 प्रतिशत दूध की बिक्री असंगठित क्षेत्र द्वारा की जाती है।

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प्रतिस्पर्धा में पीछे क्यों?

आँकड़ों को देखें तो यह पता चलता है कि भारत में संगठित क्षेत्र द्वारा प्रतिस्पर्धी तरीक़े से दूध की बिक्री का प्रतिशत कम है। शायद यही वजह है कि भारत इस समय न्यूज़ीलैंड जैसे छोटे से देश से दूध के उत्पादों के मामले में मुक़ाबला नहीं कर पा रहा है। हालाँकि यह डर अनायास भी हो सकता है क्योंकि भारत में डेरी उत्पादन और यहाँ की कुल खपत के आँकड़े को देखते हुए न्यूज़ीलैंड की क्षमता बहुत कम है।

सरकार पिछले 5 साल से किसानों की आमदनी दोगुना करने का ढिंढोरा पीट रही है। एक सामान्य किसान भी जानता है कि पशुधन उसकी आमदनी का मुख्य स्रोत है। 

भारत इस स्थिति में भी नहीं पहुँच पा रहा है कि वह न्यूज़ीलैंड जैसे छोटे से देश से दूध के उत्पादों के मामले में मुक़ाबला कर सके।

इसे देखकर यही कहा जा सकता है कि मौजूदा सरकार के कार्यकाल में गाय के नाम पर मारपीट और हत्याएँ तो ख़ूब हुई हैं, लेकिन हमारी गायें अन्य देशों के पशुधन से मुक़ाबला करने की स्थिति में आज भी नहीं बन पाई हैं। गाँधी ने गायों की गुणवत्ता को लेकर जो चिंता जताई थी, वह आज भी यथावत है। भले ही हम मरियल, ग़ैर उत्पादक, बीमार गायों की ढेर सारी संख्या लेकर दुनिया के सबसे बड़े दूध उत्पादक बन गए हैं, लेकिन स्वस्थ, पुष्ट, मज़बूत और वैश्विक बाज़ार से मुक़ाबला कर पाने वाली गायें पालने के मामले में अभी फिसड्डी बने हुए हैं।

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प्रीति सिंह

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