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होर्डिंग मामला: सुप्रीम कोर्ट के ‘अस्पष्ट’ फ़ैसले का फ़ायदा उठा रही है योगी सरकार

यूपी में होर्डिंग के मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने न यह कहा कि अदालती आदेश पर रोक लगाई जाए, न ही यह कहा कि उसका पालन किया जाए। इसने साथ में एक टिप्पणी भी कर दी कि ‘राज्य में ऐसा कोई क़ानून नहीं है जिसके तहत सरकार को ऐसे होर्डिंग लगाने का अधिकार मिलता हो’। योगी सरकार को यह मौक़ा मिल गया कि वह ऐसा क़ानून ले आए और वह ले आई। 
नीरेंद्र नागर

यूपी में होर्डिंग के मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर कुछ लोगों को निराशा हो सकती है। नागरिकता क़ानून का विरोध करने वाले कार्यकर्ताओं के होर्डिंग यूपी सरकार ने फ़ोटो और पते समेत लगा दिये हैं। इलाहाबाद के फ़ैसले के ख़िलाफ़ योगी सरकार सर्वोच्च अदालत गयी थी। अदालत ने मामले की सुनवायी के लिए बड़ी बेंच बनाने की बात कही है। हाईकोर्ट ने 16 मार्च तक होर्डिंग हटाने का आदेश दिया था।

राज्य सरकार हाई कोर्ट के आदेश का पालन इसलिए नहीं कर रही कि जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट की अवकाशकालीन बेंच के पास गया तो उसने हाई कोर्ट के फ़ैसले पर कोई स्पष्ट निर्णय नहीं दिया था। न तो उसने कहा कि अदालती आदेश पर रोक लगाई जाए, न ही यह कहा कि उसका पालन किया जाए। उसने मामला तीन जजों की बेंच को सौंपने का आदेश दे दिया जिसका गठन अगले सप्ताह किया जाना है।

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जिन्हें इस मामले की पूरी जानकारी न हो, उनको बता दें कि लखनऊ में 57 लोगों के नाम, फ़ोटो और पते के साथ होर्डिंग लगाए गए हैं। ये वे लोग हैं जिनके ख़िलाफ़ 19 दिसंबर 2019 को नागरिकता क़ानून विरोधी आंदोलन में तोड़फोड़ करने का आरोप है और सरकारी मशीनरी ने ‘अपनी जाँच के आधार पर’ जिन्हें भारी-भरकम दंडराशि भरने का आदेश दिया है, यह कहते हुए कि दंगों और तोड़फोड़ के लिए वे सामूहिक रूप से ज़िम्मेदार हैं। ध्यान दीजिए, इन लोगों ने हिंसा या तोड़फोड़ की हो, ऐसे कोई प्रमाण नहीं हैं, न ही ये लोग किसी अदालत द्वारा दोषी ठहराए गए हैं। वे केवल अभियुक्त हैं लेकिन सरकार उनके साथ दोषियों जैसा व्यवहार कर रही है।

यह मामला इतना गंभीर था कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पिछले रविवार को यानी छुट्टी के दिन इसपर सुनवाई की और अगले ही दिन आदेश दे दिया कि ये होर्डिंग हटा दिए जाएँ। कारण, कोर्ट की नज़र में यह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकारों का गंभीर उल्लंघन था

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने हाई कोर्ट का निर्णय नहीं माना और उसके ख़िलाफ वह सुप्रीम कोर्ट में चली गई। 

सुप्रीम कोर्ट की अवकाशकालीन बेंच के दो जजों ने भी वही बात कही जो हाई कोर्ट ने कही थी कि सरकार का यह काम क़ानूनसम्मत नहीं है लेकिन उन्होंने होर्डिंग हटाने या न हटाने के बारे में कुछ नहीं कहा।

अब देखिए कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा कोई स्पष्ट निर्णय न देने का क्या असर हुआ। पहला असर तो यह हुआ कि सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से कि ‘राज्य में ऐसा कोई क़ानून नहीं है जिसके तहत सरकार को ऐसे होर्डिंग लगाने का अधिकार मिलता हो’, योगी सरकार को यह मौक़ा मिल गया कि वह ऐसा क़ानून ले आए और वह ले आई। शनिवार को योगी सरकार ने इस आशय का एक अध्यादेश पारित कर दिया।

हमें नहीं मालूम, यह अध्यादेश होर्डिंग मामले में योगी सरकार के लिए कितना उपयोगी साबित होगा, लेकिन इससे सरकार को यह कहने का मौक़ा तो मिल ही गया कि सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कहा था, कोई क़ानून नहीं है, लीजिए, हम क़ानून बनाकर ले आए। इस तरह से वह इलाहाबाद हाई कोर्ट की 16 मार्च की डेडलाइन की अवहेलना करने का बहाना पा जाएगी और लखनऊ में होर्डिंग लगे रहेंगे।

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यानी नागरिकों के जिस संवैधानिक अधिकार के गंभीर उल्लंघन की बात हाई कोर्ट के जजों ने की, वह आगे भी होता रहेगा और तब तक होता रहेगा, जब तक सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच अपना कोई अंतिम फ़ैसला नहीं दे देती। अतीत के अपने अनुभवों से हम देख चुके हैं कि कोर्ट का फ़ैसला आने में सात दिन भी लग सकते हैं और सात सप्ताह भी।

फ़ैसला किसी के भी पक्ष में आ सकता है। अगर यह सरकार के पक्ष में आया तो ज़मीनी स्थिति पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा। लेकिन यदि सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला अभियुक्त याचिकाकर्ताओं के पक्ष में आया तो सोचिए, उनके साथ कितना अन्याय होगा?

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