बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में असदउद्दीन ओवैसी की अध्यक्षता वाली पार्टी ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तिहादुल मुसलिमीन (एआईएमआईएम) के पांच सीट जीतने के बाद कई तरह की बहस जोर पकड़ने लगी हैं। दूसरी ओर, कांग्रेस पार्टी है जो उसे हुए वोटों के नुक़सान के लिए एआईएमआईएम को जिम्मेदार मानती है और ओवैसी को मिले वोट को वह रैडिकलाइजेशन के रूप में प्रस्तुत कर रही है।
दूसरी तरफ मुसलमानों का एक ऐसा बुद्धिजीवी वर्ग है जो यह समझता है कि ओवैसी की राजनीति मुसलमानों के लिए घातक है। तीसरा वर्ग उन हिन्दू बुद्धिजीवियों का है, जो साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ हैं और उन्हें लगता है कि ओवैसी की राजनीति से हिन्दुत्व को बढ़ावा मिलेगा।
इस बहस का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यह भी है कि मुसलमानों के असली मुद्दे क्या हैं और क्या ओवैसी उन्हें नहीं उठाते हैं? इस पर बहस होनी चाहिए कि क्या ओवैसी साम्प्रदायिक राजनीति करते हैं या उनकी राजनीति में सिर्फ सामुदायिक चिंता रहती है।
ओवैसी विरोधियों के तर्क
एक ऐसे समय में जब भारतीय राजनीति में ‘सब कुछ हिन्दू’ का उग्रतम रूप हावी है, यह बहस सिर्फ मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि हर भारतवासी के लिए महत्पूर्ण है। ओवैसी की राजनीति सही है या गलत, इस बात का फैसला करने के कई पैमाने हो सकते हैं लेकिन उनका विरोध करने वाले अक्सर ऐसे तर्क देते हैं जो ओवैसी को ही सशक्त करते हैं।
बिहार चुनाव में कांग्रेस पार्टी जब 70 में महज 19 सीटें ही जीत पायी तो उसने एआईएमआईएम पर वोट काटने के आरोप लगाये। यानी कांग्रेस के अनुसार एआईएमआईएम के उम्मीदवारों ने उसके वे वोट काट लिये जो मुसलमानों के थे। अब कई आंकड़ों से यह साबित हो चुका है कि कांग्रेस का यह आरोप सही नहीं है।
सीएसडीएस के आंकड़ों के मुताबिक़, मुसलमानों के 78 प्रतिशत वोट महागठबंधन को मिले। ऐसे ही लोग ओवैसी की पार्टी को बीजेपी की बी टीम भी कहते हैं लेकिन उनके पास इसे साबित करने का उनके पास कोई ठोस आधार नहीं होता।
कुछ लोग ओवैसी पर बीजेपी से पैसे लेने का आरोप भी लगाते हैं लेकिन जब उनसे यही बात सार्वजनिक रूप से बोलने को कहा जाता है तो वे पीछे हट जाते हैं। इस तरह के निराधार-असिद्ध आरोपों से ओवैसी के समर्थक बढ़ते हैं।
हिन्दू वोटों की चिंता क्यों नहीं?
अब एक महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस को अगर मुसलमान वोट की इतनी चिंता है तो उसे हिन्दू वोट की चिंता क्यों नहीं है या उसकी कोशिश इतनी कमजोर क्यों है कि उसे हिन्दुओं का वोट नहीं मिल पाता या उतना नहीं मिल पाता जितना हिन्दुत्व की राजनीति करने वाली बीजेपी को मिल जाता है।
सवाल यह है भी है कि कांग्रेसी मुसलमान वोटों को किस हक से अपनी झोली में गिरा हुआ मानते हैं? क्या धार्मिक आधार पर वोटों पर ऐसे हक जमाना सही है? सीमांचल के जिस इलाके में कांग्रेस को हारने का दुख है क्योंकि वहां से एआईएमआईएम ने कुछ सीटें जीत ली हैं, वहां की बदतर हालत के लिए क्या कांग्रेस के विधायक-सांसद जिम्मेदार नहीं हैं?
कांग्रेस को यह उम्मीद रहती है कि उसके विधायक चाहे जितने नाकारा-निकम्मे हों, मुसलमान तो उसे ही वोट दें। यह क्या सामंतवादी सोच नहीं है?
कांग्रेस पार्टी एआईएमआईएम पर मुसलिम रैडिकलाइजेशन का आरोप लगा रही है। यह गंभीर आरोप है लेकिन क्या किसी पार्टी को वोट देना और किसी को वोट नहीं देने को रैडिकलाइजेशन कहना सही होगा? अगर यह रैडिकलाइजेशन है तो कांग्रेस इसे रोकने के लिए क्या कर रही है?
कांग्रेस का साॅफ्ट हिन्दुत्व
दिलचस्प बात यह है कि रैडिकलाइजेशन का आरोप लगाने वाली कांग्रेस पर साॅफ्ट हिन्दुत्व पर चलने के आरोप लगते रहे हैं। कई बार कांग्रेस भी बीजेपी के हिन्दुत्व से प्रतिस्पर्धा करने की कोशिश करती नजर आती है। वह हिन्दू रैडिकलाइजेशन की बात भी बेहद हल्के ढंग से कभी-कभार ही कह पाती है।
ध्रुवीकरण को लेकर सवाल
बहुत से मुसलमान बुद्धिजीवियों को यह डर सताता है कि ओवैसी की पार्टी के बढ़ने से भारत में ध्रुवीकरण और बढ़ेगा। परंतु ध्रुवीकरण का क्या कोई ऐसा पैमाना है जिससे यह पता लग सके कि अभी वह किस स्तर पर है और कितना आगे बढ़ सकता है? क्या ध्रुवीकरण अपने संतृप्त स्तर तक नहीं पहुंचा है? क्या यह कहा जा सकता है कि ओवैसी के नहीं रहने से ध्रुवीकरण खत्म या कम हो जाएगा? यह ऐसा सवाल है कि जिसका जवाब नहीं मिलता और इसलिए यह तर्क औंधे मुंह गिर जाता है।
क्या यह सच नहीं है कि ओवैसी हों या नहीं हों, जिन्हें ध्रुवीकरण करना हो, वे कर ले जाते हैं और कोई भी बहाना ढूंढ लेते हैं। क्या कांग्रेस में इतनी कुव्वत है कि वह बहुमत के ध्रुवीकरण को रोक सके? क्या कभी वह इसके लिए कोशिश करते हुए दिखती है?
एक सवाल यह भी उठता है कि अगर ओवैसी को सारे मुसलमान वोट दे दें तो क्या हो जाएगा? ऐसा सवाल उठाने वालों की सोच यह भी है कि इससे ओवैसी की पार्टी तो कुछ खास नहीं कर पाएगी मगर मुसलमानों का बहुत नुक़सान हो जाएगा।
नुक़सान का जिम्मेदार कौन?
इसके जवाब में भी वही सवाल है कि क्या कोई पैमाना है जिससे यह पता लग सके कि मुसलमानों का नुक़सान होना अब कितना बाकी है और किस हद तक हो सकता है। जो नुक़सान अब तक हो चुका है उसके लिए कौन जिम्मेदार है और इसकी भरपाई कैसे होगी? मुसलमानों को जान और माल का नुक़सान ओवैसी के आने से हुआ है या उससे पहले से है? ऐसे मुसलिम बुद्धिजीवी इन सवालों पर बहस करते नहीं दिखते।
मुसलमानों के सामने दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार का भी उदाहरण है। यहां ओवैसी की पार्टी चुनाव में नहीं थी। मुसलमानों ने अरविन्द केजरीवाल की पार्टी को भरपूर वोट दिये लेकिन क्या उनका और उनकी सरकार का रवैया कहीं से सेक्युलर कहला सकता है?
ओवैसी सिर्फ़ एक बहाना हैं?
अगले साल पश्चिम बंगाल में होने वाले चुनाव के मद्देनजर बहुत से लोग इस बात से चिंतित हैं कि ओवैसी की पार्टी वहां जाकर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को बीजेपी के हाथों हरवा देगी। यह अजीब असुरक्षा की भावना है और अपने ख़राब प्रदर्शन के लिए पहले से बहाना तलाशने जैसा है। ममता बनर्जी ने अगर वाकई अच्छा काम किया है तो उन्हें ओवैसी से बिल्कुल नहीं डरना चाहिए क्योंकि अक्सर ऐसी जगहों पर ओवैसी को हार का सामना करना पड़ता है।
कुछ लोग तो यह सलाह भी देते हैं कि ओवैसी को गुजरात और कश्मीर में चुनाव लड़ना चाहिए क्योंकि वहां भी मुसलमानों की हालत अच्छी नहीं है। शायद यह मजाक में कहा जाता हो लेकिन इसमें विरोधाभास यह है कि एक तरफ तो उन्हें मुसलमानों की राजनीति नहीं करने की सलाह दी जाती है तो दूसरी तरफ ऐसे लोग वही काम उनसे गुजरात और कश्मीर में करवाना चाहते हैं।
वास्तविकता यह है कि एआईएमआईएम अभी तक मुख्यतः एक परिवार पर आधारित है। उसमें और किसी क्षेत्रीय पार्टी में संगठन के स्तर पर बहुत फर्क नहीं है। इसलिए जैसे कभी-कभार जेडीयू और एलजेपी नाॅर्थ ईस्ट में चुनाव लड़ लेती हैं वैसे ही एआईएमआईएम खास-खास जगह अपने उम्मीदवार खड़े करती है।
हिन्दू विद्वानों की चिंता
ओवैसी की पार्टी पर वैसे हिन्दू विद्वान भी चिंता व्यक्त कर रहे हैं जो हिन्दुत्ववादी राजनीति के मोटे तौर पर आलोचक रहे हैं। वे इस बात को मानते हैं कि ओवैसी संविधान की बात करते हैं, कानून के राज की बात करते हैं लेकिन उनकी पार्टी ‘मुसलमानों की, मुसलमानों के लिए और मुसलमानों की राजनीति’ करती है, इसलिए वह साम्प्रदायिक है।
क्या किसी समुदाय की बात करना किसी पार्टी को साम्प्रदायिक बनाता है? बहुत से लोगों को एआईएमआईएम के नाम पर भी आपत्ति है क्योंकि इसमें मुसलिम शब्द है। लेकिन नाम से मुसलिम शब्द हटाने से बात बन जाएगी?
कल्पना कीजिए कि ओवैसी अपनी पार्टी का नाम कुछ और रख लें तो क्या उनकी राजनीति बदल जाएगी? शायद इसी में इस बात का जवाब भी है कि जब वह पार्टी मुसलिम समुदाय की बात करती है तो उसके नाम में यह शब्द होना स्वाभाविक है।
सिर्फ मुसलिम राजनीति नहीं
वैसे तो ओवैसी मुसलिम समुदाय की राजनीति करने के लिए जाने जाते हैं लेकिन व्यावहारिक राजनीति में उनकी पार्टी इसके आगे जाने की कोशिश करती दिखती है। यह दो स्तरों पर होता दिखता है। एक गठबंधन बनाने में और दूसरा पार्टी का टिकट देने में।
बिहार में एआईएमआईएम उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के साथ ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट में थी जिसमें बहुजन समाज पार्टी भी शामिल थी। इसी तरह एआईएमआईएम ने महाराष्ट्र में बहुजन वंचित अघाड़ी के साथ गठबंधन किया। तेलंगाना में ओवैसी की पार्टी का तेलंगाना राष्ट्र समिति से विधानसभा चुनाव में गठबंधन रहता है और टीआरएस सरकार को उसका समर्थन भी प्राप्त है।
एआईएमआईएम ने दलित वर्ग के कई लोगों को पार्टी का टिकट दिया है। चूंकि अभी उस वर्ग से कोई जीतकर नहीं आया है इसलिए यह ओवैसी की पार्टी के लिए गंभीर सवाल बना रहता है।
साम्प्रदायिकता की परिभाषा?
इस बात पर ज़रूर बहस हो सकती है कि क्या एक मुसलिम नाम वाली पार्टी का होना भारत की सेक्युलर राजनीति में असहज करने वाली बात नहीं है? परंतु क्या इससे बड़ा सवाल यह नहीं है कि क्या भारत में सेक्युलरिज्म अपनी सहज स्थिति में है? ऐसे समय में इस बात पर बहस होनी चाहिए कि साम्प्रदायिकता क्या है? क्या किसी समुदाय के अधिकार और उत्थान की बात करना साम्प्रदायिकता है?
अगर पिछड़े समुदाय की बात के लिए पार्टी नहीं होनी चाहिए तो उसके लिए बात करने वाले बाकी लोग क्या कर रहे हैं? क्या मांझी-पासवान और अन्य जातियों की पार्टियों पर हमारी वैसी ही आपत्ति रहती है?
भारत में जातीय उत्थान की बात करने वाली पार्टियां हैं। धर्म के नाम पर बना अकाली दल भी है। इंडियन मुसलिम लीग भी है। तो फिर ओवैसी की पार्टी पर ही आपत्ति क्यों?
सेक्युलरिज्म पर बहस
सेक्युलरिज्म की इस बहस में यह बात भी शामिल होनी चाहिए कि आखिर क्यों सोचा जाता है कि इसकी ज्यादा ज़रूरत मुसलमानों को है। ऐसा सोचने वाले ओवैसी विरोधी मुसलिम बुद्धिजीवी भी हैं। जब तक सेक्युलरिज्म किसी एक समुदाय की अकेली या अधिक ज़रूरत होगी तब तक इसका वही हश्र होगा जो अभी है।
क्या आम जनमानस को इस बात के लिए तैयार करने की कोई कोशिश है कि सेक्युलरिज्म भारत में सबके लिए समान रूप से ज़रूरी है? क्या हमारे नेताओं और अफसरों का सरकारी कार्यक्रमों में रवैया ऐसा रहता है जिसे धर्म से परे कहा जाए? क्या हम संस्कृति के नाम पर एक धर्म को सरकारी नहीं बनाते जा रहे हैं?
साम्प्रदायिक राजनीति का आवश्यक अंग है कि किसी संप्रदाय के ख़िलाफ़ रहा जाए, उसके बारे में नफरत फैलायी जाए। अगर कोई पार्टी किसी सम्प्रदाय के ख़िलाफ़ जहर उगले तो निश्चित रूप से वह साम्प्रदायिक है।
अकबरउद्दीन के भड़काऊ भाषण
इस मामले में एआईएमआईएम के नेता अकबरउद्दीन के भाषण बेहद आपत्तिजनक होते हैं और उनके बड़े भाई असदउद्दीन की उनसे सहमति नहीं भी हो तो वे कम से कम लाचार तो नजर आते ही हैं। अकबरउद्दीन का विरोध बिल्कुल ज़रूरी है परंतु क्या अकबरउद्दीन के भाषणों को असदउद्दीन की बातों से अधिक महत्व देना चाहिए?
ओवैसी पर लगने वाले आरोपों में एक और आरोप ये है कि वे जिन्ना बनने की राह पर हैं। यह बहुत दिलचस्प आरोप है क्योंकि एक तरफ उन पर बीजेपी की बी टीम होने का भी इल्जाम है। यहां तक कि बीजेपी से पैसे लेने का आरोप भी है। तो क्या बीजेपी अपने पैसे से जिन्ना तैयार कर रही है?
पाकिस्तान का उलाहना क्यों?
जिन्ना होने का आरोप वास्तव में मुंह बंद करवाने जैसा हथकंडा है। जैसे किसी भारतीय मुसलमान पर कोई आरोप सिद्ध न हो तो उसे यह कह दिया जाता है कि मुसलमानों ने तो देश का बंटवारा कर दिया या यह कि तुम्हारा देश तो पाकिस्तान है, यहां क्या कर रहे हो।
भारत के हर बुद्धिजीवी और आम नागरिक को पहले यह तय कर लेना चाहिए कि भारत के मुसलमानों को कब तक पाकिस्तान और जिन्ना के सहारे चुप कराने का हथकंडा अपनाया जाता रहेगा। भारत के मुसलमान को इस बात के लिए जवाबदेह क्यों ठहराया जाएगा कि पाकिस्तान के मुसलमानों ने क्या किया है? क्या हमने यह बात सहजता से स्वीकार कर रखी है कि जो मुसलमान भारत में रह रहे हैं उनसे पाकिस्तान बनने का बदला नहीं लिया जा सकता?
हद तो यह है कि आज़ादी के बाद तो दो-तीन पीढ़ियां निकल चुकी हैं लेकिन भारत के मुसलमानों से पाकिस्तान का सवाल हटा नहीं है।
परंतु क्या असदउद्दीन ओवैसी मुसलमानों के असली मुद्दे नहीं उठाते हैं? बहुत से निरपेक्ष लोगों को लगता है कि तीन तलाक का मुद्दा या सीएए का मुद्दा मुसलमानों के असल मुद्दे नहीं हैं। उन्हें आम मुसलमानों से मिलकर यह बात मालूम करनी चाहिए कि उनकी सोच क्या है।
ओवैसी के संसद में दिये भाषणों में अक्सर सच्चर कमेटी और अन्य आयोगों की बात होती है जिसमें मुसमलानों के पिछड़ेपन की रिपोर्ट है। इसलिए यह आरोप सही नहीं मालूम होते कि ओवैसी असल मुद्दों पर बात नहीं करते।
उनकी राजनीति को सही नहीं मानने वाले लोग अक्सर यह मानते हैं कि ओवैसी का भाषण अच्छा होता है। असदउद्दीन ओवैसी से उनकी पार्टी के प्रदर्शन पर सवाल पूछे जाने चाहिए। जैसे, किशनगंज के उप चुनाव में जीते उनकी पार्टी के विधायक को इस बार हार का सामना करना पड़ा। इससे पहले वह इसलिए जीत गये थे कि वहां के कांग्रेसी सांसद मोहम्मद जावेद ने अपनी मां को कांग्रेस का टिकट दिलवा दिया था।
ओवैसी की पार्टी से हैदराबाद के हालात पर सवाल होने चाहिए जहां बरसों से उनका राज है। इसी तरह उनके औरंगाबाद-महाराष्ट्र सांसद से सवाल होने चाहिए। यह बात बिहार में ज़रूर होगी कि अगर उनके विधायकों ने काम नहीं किया तो उन्हें भी हार का सामना करना होगा।
जिन्हें भी ओवैसी की राजनीति में समस्या है उन्हें इस बात की उम्मीद करनी चाहिए कि जनता के सामने बेहतर विकल्प हों। ऐसे विकल्प नहीं जो जनता के वोट पर अय्याशी करें और लोग उसे बंधुआ मजदूर की तरह वोट देते रहें।
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