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ग़ैर-भाजपावाद के लिए क्या विचारधारा से समझौता करेगी कांग्रेस?

भारतीय राजनीति में ग़ैर-कांग्रेसवाद का एक बड़ा दौर रहा है लेकिन अब क्या देश आने वाले समय में ग़ैर-भाजपावाद की राजनीति की ओर बढ़ने वाला है? ग़ैर-भाजपावाद का राजनीतिक मंच सजाने की कोशिश लोकसभा चुनाव से पूर्व करने की छिटपुट कोशिशें भी हुईं लेकिन उसे उतना समर्थन नहीं मिल सका और यह प्रयोग लागू ही नहीं हो पाया। लेकिन महाराष्ट्र में शिवसेना ने जिस तरह के तेवर दिखाए हैं और झारखंड में रामविलास पासवान की पार्टी, बीजेपी से अलग होकर चुनाव लड़ रही है उससे यह विचार आने लगा है कि क्या आने वाला दौर अब ग़ैर-भाजपावाद के ख़िलाफ़ सभी पार्टियों के एकजुट होने का होगा। वैसे एनडीए, जो कि अब बीजेपी बन चुका है, में सहयोगी दल  सवाल उठाने लगे हैं। 

कांग्रेस जब तक सत्ता के केंद्र में रही उसे हर बार ग़ैर-कांग्रेसवाद का नारा देकर देश की तमाम छोटी-बड़ी पार्टियों ने चुनौती देने का काम किया। कांग्रेस से अलग निकलकर जिन नेताओं ने पार्टियाँ बनायी उन्होंने दक्षिणपंथी विचारधारा की पार्टियों जनसंघ या आज की भारतीय जनता पार्टी को साथ लेकर कांग्रेस को चुनौती दी। इन्हीं दलों को वामपंथी पार्टियों ने भी तीसरा मोर्चा बनाकर कांग्रेस के ख़िलाफ़ लड़ने में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग किया। इसका परिणाम यह हुआ कि केंद्र व प्रदेशों में ग़ैर-कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ और कांग्रेस चुनाव दर चुनाव कमज़ोर होती गयी। आज कांग्रेस लगातार दूसरी बार बुरी तरह से लोकसभा चुनाव हार कर केंद्र की सरकार से बाहर है। हार इतनी बुरी है कि दूसरी बार भी कांग्रेस इतने भी सांसद नहीं जीता पायी कि लोकसभा में उसे आधिकारिक रूप से नेता प्रतिपक्ष का स्थान हासिल हो सके।

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भारतीय जनता पार्टी ने अपने पहले कार्यकाल में तो कुछ साथियों को जिन्हें वह ग़ैर-कांग्रेसवाद की लड़ाई में अपना साथी बनाए हुए थी संभाल के रखा, लेकिन दूसरे कार्यकाल में यह होता दिख नहीं रहा। उसकी सबसे विश्वस्त साथी शिवसेना जो वैचारिक रूप से भी उसकी विचारधारा के आधार पर चलती है उससे अलग हटकर सरकार बनाने को छटपटा रही है। यानी वह ग़ैर-कांग्रेसवाद की लड़ाई लड़ते-लड़ते कांग्रेस के खेमे में जा पहुँची है। लेकिन कांग्रेस इस उलझन में है कि वह ग़ैर-भाजपाई विचार के पीछे चले या अपनी पुरानी विचारधारा पर ही अटकी रहे? कांग्रेस की यही अड़चन उसे महाराष्ट्र में कोई ठोस निर्णय लेने से रोके हुए है। कांग्रेस अपने दम पर बीजेपी को रोक नहीं सकती। कुछ प्रदेशों को छोड़ दें तो कांग्रेस बिना किसी सहयोगी दल के बीजेपी को मज़बूत चुनौती देने की स्थिति में भी नहीं है। 

ग़ैर-कांग्रेसवाद के ख़िलाफ़ मोरारजी देसाई, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी का या आज की नरेंद्र मोदी सरकार का, सभी गठबंधनों में एक बात ही समान रही है। वह यह है कि कांग्रेस को सत्ता से हटाना या उसे रोकना। जनता पार्टी का जब प्रयोग हुआ तो जनसंघ उसमें सहयोगी बना था, वामपंथी और समाजवादी दल भी साथ खड़े हुए थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार तो रामो-वामो (राष्ट्रीय मोर्चा और वाममोर्चा) के दो धुर विरोधी ध्रुवों को मिलाकर ही बनी थी। वाजपेयी सरकार के भी यही हाल रहे। जीवन भर समाजवादी पताका कंधे पर ढोने वाले जॉर्ज फर्नांडिस उसमें सारथी रहे। जिस शिवसेना ने फर्नांडिस की मुंबई की राजनीति ख़त्म कर दी उसी को साथ लेकर उन्होंने एनडीए की स्थापना की। जय प्रकाश आंदोलन से निकले नीतीश कुमार, राम विलास पासवान जो पिछड़ों की राजनीति का चेहरा हुआ करते थे। वे साल 2014 में नरेंद्र मोदी और हिंदुत्ववादी भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़े रहे और आज भी सत्ता में हिस्सेदारी ले रहे हैं। 

भारतीय जनता पार्टी ने जब ग़ैर-कांग्रेसवाद को केंद्र में रखकर व्यूह रचना शुरू की थी तब उसकी विचारधारा से सहमति रखने वाली सिर्फ़ एक ही पार्टी उसके साथ खड़ी थी- वह थी शिवसेना।

लेकिन उसने उड़ीसा में नवीन पटनायक की पार्टी के साथ रहकर राज्य की राजनीति में अपनी ताक़त बढ़ाने का प्रयास किया और सरकार में भी रही। बिहार में उसने नीतीश कुमार से हाथ मिलाया। गोवा में गोमांतक पार्टी और असम में असम गण परिषद के साथ खड़ी हुई। पूर्वोत्तर में उन्होंने कई ऐसे संगठनों और छोटे-छोटे दलों को साथ लिया जिनको चरमपंथी कहा जाता है। जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार चलाने में भी बीजेपी को कोई हिचकिचाहट नहीं हुई। और यह सब उसने ग़ैर-कांग्रेसवाद से शुरू किया। इसमें विचारधारा का नाममात्र का भी कोई अंश नज़र नहीं आता है। 

कांग्रेस पशोपेश में क्यों?

आज कांग्रेस इस पशोपेश में है कि वह किस मार्ग पर चले? कर्नाटक में बीजेपी को रोकने के लिए उसने कुछ ही घंटों में क़दम उठा लिया लेकिन महाराष्ट्र में कांग्रेस सोच रही है कि किधर जाऊँ। जिस जनता दल सेक्युलर के कुमारस्वामी को कांग्रेस ने कर्नाटक का ताज पहनाया उसका जन्म ग़ैर-कांग्रेसवाद के मूल से ही हुआ है। रामकृष्ण हेगड़े, एस आर बोम्मई और एच डी देवेगौड़ा ने कर्नाटक में कांग्रेस को एक लम्बी चुनौती दी थी। कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में कांग्रेस ने ग़ैर-भाजपावाद की तसवीर तो खींची ली लेकिन उस तसवीर का रंग लोकसभा चुनाव तक बदरंग हो गया। पश्चिम बंगाल में वह ममता बनर्जी के मंच पर तो उपस्थित हो गयी लेकिन चुनावी तालमेल करने में फेल होकर ग़ैर-भाजपावाद के मुद्दे की हवा भी ख़ुद ही निकाल दी। पश्चिम बंगाल में वह न तो ममता के साथ खड़ी हुई और न ही अपने वामपंथी साथियों के साथ। 

ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ़ कांग्रेस की ही दुविधा है। अब यह समीकरण अन्य पार्टियों को भी समझ में आने लगा है। महाराष्ट्र में शिवसेना को यह समझ में आने लगा है कि ममता बनर्जी और चंद्रबाबू नायडू ने बीजेपी का साथ क्यों छोड़ा!

शिवसेना को यह भी समझ में आने लगा है कि उसे महाराष्ट्र में अपने आपको बीजेपी का मराठी संस्करण बनाये रखना है या अपनी अलग से छवि का निर्माण करना है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज को भी लोकसभा चुनावों के बाद इस बात का पता चल गया है कि हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नारे ने उनके वर्षों से स्थापित सोशल इंजीनियरिंग की चूलें हिला दी हैं। राम मंदिर का फ़ैसला भले ही अदालत के आदेश से हुआ हो, लेकिन अयोध्या में दीपावली मनाने, राम प्रतिमा लगाने या अब राम मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट बनाने में बीजेपी उसका श्रेय लेने से पीछे नहीं हटने वाली है। ऐसे में आने वाला विधानसभा चुनाव सिर्फ़ कांग्रेस के लिए ही नहीं, इन दोनों पार्टियों के लिए एक बड़ी चुनौती साबित होने वाला है जिन्होंने कांग्रेस को हटाकर वर्षों इस प्रदेश की सत्ता पर क़ब्ज़ा किया था। ग़ैर-भाजपावाद इन दलों के लिए एक संजीवनी बन सकता है लेकिन उसके लिए इन्हें कांग्रेस को स्वीकार करने की ज़रूरत पड़ेगी।

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संजय राय

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