सरकार द्वारा असहमति की आवाज़ को दबाने के आरोपों के बीच भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना ने कहा, 'हर कुछ वर्षों में एक बार शासक को बदलने का अधिकार, अपने आप में तानाशाही के ख़िलाफ़ गारंटी नहीं होना चाहिए'।
हम शायद महसूस नहीं कर पा रहे हैं कि संसद और विधानसभाओं की बैठकें अब उस तरह से नहीं हो रही हैं जैसे पहले कभी विपक्षी हो-हल्ले और शोर-शराबों के बीच हुआ करती थीं और अगली सुबह अख़बारों की सुर्खियों में भी दिखाई पड़ जाती थीं।
बनारस के सिविल जज आशुतोष तिवारी द्वारा विजय शंकर रस्तोगी की याचिका पर काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मसजिद के संदर्भ में ASI सर्वे का आदेश न्यायपालकीय अल्जाइमर का ताज़ा उदाहरण है।
लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं को लेकर प्रधानमंत्री मोदी पर हमलावर रहने वाले राहुल गाँधी ने कहा है कि सद्दाम हुसैन और गद्दाफी भी चुनाव जीत जाते थे। वह ब्राउन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर आशुतोष वार्ष्णेय के साथ एक ऑनलाइन बातचीत में बोल रहे थे।
नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने बयान दिया है कि 'भारत में लोकतंत्र कुछ ज़्यादा ही है'। ऐसे में जब किसान आंदोलन को कुचला जा रहा है, विरोध की आवाज़ दबाई जा रही है, यह कितना सही है?
अब तक लोकतंत्र सूचकांक में भारत के कुछ स्थान खिसकने की ही रिपोर्टें आती रही थीं, लेकिन अब एक ताज़ा रिपोर्ट में तो कहा गया है कि भारत एक लोकतंत्र के रूप में अपनी स्थिति खोने के कगार पर है।
क्या हमें मान लेना चाहिए कि 2020 का 5 अगस्त भारतीय गणतंत्र के पहले संस्करण का अवसान और दूसरे संस्करण का जन्म दिवस है? क्या इसकी चमक दमक 15 अगस्त की आभा को धूमिल कर देगी?
‘द इकोनॉमिस्ट ग्रुप’ की इकोनॉमिक इंटेलिजेंस यूनिट की ओर से जारी लोकतंत्र सूचकांक 2019 की वह वैश्विक सूची, जिसमें भारत पिछले वर्ष के मुक़ाबले 10 पायदान लुढ़क कर 51वें स्थान पर जा गिरा है।
भारत में लोकतंत्र कमज़ोर हुआ है! इसका सबूत यह है कि लोकतंत्र के पैमाने पर विश्व के 167 देशों की रैंकिंग में भारत 10 स्थान फिसल गया है। इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट ने यह रिपोर्ट जारी की है।