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सद्भाव की सकारात्मक ऊर्जा

किस तरह के सकारात्मक रवैए की अपेक्षा की जाती है? प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर एक दिन में 2.5 करोड़ टीके लगने से पहले और बाद में 50-60 लाख ही टीके लगाया जाना कैसी सकारात्मकता है और केरल में ईसाई-मुसलमान सद्भाव की बात करना कैसी सकारात्मकता?
अपूर्वानंद

हम जैसे लोगों पर आरोप लगता है कि हम प्रायः नकारात्मक बातें ही करते हैं। हमें कुछ भी अच्छा नहीं दीखता। सकारात्मक रवैए की हमारे भीतर कमी है। सकारात्मकता की मांग प्रायः शक्तिशाली के वर्चस्व की स्वीकृति में बदल जाती है। मसलन, प्रधानमंत्री के जन्मदिन के मौक़े पर ढाई करोड़ टीके लगने के रिकॉर्ड पर सकारात्मकता प्रदर्शित करते हुए ताली बजाएँ या उस उत्सव के क्षण में भी यह नकारात्मक सवाल पूछना जारी रखें कि क्यों भारत के टीके का रोज़ाना औसत 50 से 60 लाख ही क्यों रहा है। अगर यह हमारा औसत है तो फिर प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर 2.5 करोड़ टीके एक दिन में कहाँ से आ गए? क्या इस दिन के लिए टीके जमा किए जा रहे थे? या अगर टीकाकरण की हमारी क्षमता इतनी बढ़ गई कि हम एक दिन में 2.5 करोड़ टीके दे सकते हैं तो फिर जन्मदिन का सूरज डूबते ही अगले दिन क्यों यह संख्या घटकर 64 लाख रह गई?

इन प्रश्नों को नकारात्मक दिमाग़ की उपज कहा जा सकता है। यह कि बहाना प्रधानमंत्री के जन्म दिन का ही क्यों न हो, हमें टीकों की रिकॉर्ड संख्या का स्वागत करना ही चाहिए! लेकिन जो यथार्थवादी हैं, वे जनता को सजग रखना ज़रूरी समझते हैं कि वह एक दिन इस विशाल संख्या की चकाचौंध में यह देखना न भूलें कि कोरोना से सुरक्षा के लिए दिसंबर तक रोज़ाना टीकाकरण की जो रफ़्तार होनी चाहिए, वह अगर न हुई तो वे संकट में होंगे। एक दिन ढाई करोड़  और रोज़ाना 50 लाख से काम नहीं चलेगा। यह भी बताना पड़ेगा और यह नकारात्मक लगेगा कि एक दिन की इस बड़ी संख्या का मतलब बाक़ी के दिनों के लिए घटी संख्या ही होगा। ऐसा करके सरकार जनता की आँखों में धुल झोंक रही है। जाहिर है, यह भी नकारात्मक ही माना जाएगा।

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इस नकारात्मकता के माहौल में कहीं से आशा की किरण झाँक जाती है। टेलीग्राफ़ अख़बार में ख़बर पढ़ी कि केरल में ईसाइयों के एक हिस्से की तरफ़ से जो मुसलमान विरोधी प्रचार चल रहा था, वह शिथिल पड़ता दीख रहा है। लगातार तनाव और घृणा के वातावरण में कहीं से राहत मिलना अभी नेमत है। पिछले दिनों जो ख़बरें केरल से आ रही थीं, वे विचलित करनेवाली थीं। केरल के एक ईसाई मत-समूह के एक बिशप ने मुसलमानों के प्रति घृणा फैलानेवाला वक्तव्य दिया। मुसलमानों की तरफ़ से नाराज़गी का प्रदर्शन स्वाभाविक और उचित ही था। बिशप ने अपना वक्तव्य वापस नहीं लिया और चर्च के एक हिस्से ने भी उनका लचर तरीक़े से बचाव करने की कोशिश की। भारतीय जनता पार्टी की खुशी का ठिकाना न था। बिशप के वक्तव्य के सहारे उसने अपने मुसलमान विरोधी प्रचार को उचित ठहराने की कोशिश की।

अधिक निराशाजनक बात यह थी कि केरल के शासक दल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यमंत्री और अन्य नेताओं ने बिशप की तरफ़ से तर्क देने का प्रयास किया। इस बीच यह ख़बर आई कि एक और ईसाई समूह ने अपने मतावलंबियों के लिए एक किताब छापी है जिसमें मुसलमानों के ख़िलाफ़ पूर्वग्रहपूर्ण बातें लिखी हैं। तनाव बढ़ रहा था।

तब यह शुभ समाचार मिला कि मुसलमानों की तरफ़ से एक शिष्टमंडल ईसाइयों के इस समूह के प्रमुख से मिला और वे किताब से आपत्तिजनक अंशों को निकालने को राज़ी हो गए। बल्कि उन्होंने प्रतिनिधिमंडल के जाने के पहले ही उन्होंने दुर्भावनापूर्ण अंश हटाने का फ़ैसला कर लिया था, ऐसा लगा। क्योंकि उन्होंने इसके लिए खेद भी प्रकट किया। समाज में सौहार्द और सद्भाव बढ़ाने के लिए मिलकर काम करने की ज़रूरत ईसाइयों और मुसलमानों के नेताओं ने महसूस की। 

इस प्रकार का सद्भावपूर्ण निर्णय आज के दिनों में दुर्लभ है। इसलिए हमें इस सकारात्मक पहल का स्वागत करना ही चाहिए। 

केरल में पिछले दिनों एक बिशप के मूर्खतापूर्ण और ज़हरीले भाषण और इस किताब के प्रकाशन के बाद तनाव और काफ़ी बढ़ गया था। इसने बीजेपी को अपना मुसलमान विरोध प्रचारित करने का मौक़ा भी दे दिया था। उम्मीद करें कि अब आपसी समझदारी बढ़ेगी।

बिशप के बयान के बाद केरल की नन बहनों ने दृढ़तापूर्वक उनकी आलोचना की थी। उन्होंने उनके इतवार के प्रवचन का बहिष्कार किया। उनमें से एक सिस्टर अनुपमा ने कहा, "हमने उनसे कुछ लोगों के अपराध के लिए पूरे मुसलमान समुदाय को दोषी ठहराने से बाज आने को कहा। हर धर्म में ऐसे लोग होते हैं। प्रवचन के दौरान उन्होंने कहा कि मुसलमानों के होटल से हमें बिरयानी नहीं खाना चाहिए। या मुसलमानों की दुकानों में नहीं जाना चाहिए और मुसलमानों के ऑटोरिक्शा पर नहीं चलना चाहिए। ...हमने उनसे कहा कि हम छात्राएँ हैं और हमें मुसलमानों के ऑटो पर चलने में कोई दिक्कत नहीं है।"

उसी प्रकार केरल के दूसरे ईसाई समुदाय के बिशप ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि केरल में किसी धार्मिक समुदाय को दूसरे से ख़तरा नहीं है और ईसाइयों को तो क़तई नहीं है।

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इस्लाम के विद्वान् डॉक्टर हुसैन मदवूर ने कहा कि मुसलमानों को उस बिशप से भी मिलना चाहिए जिन्होंने साम्प्रदायिक तनाव पैदा करनेवाला वक्तव्य दिया था। उनका सुझाव है कि वे उनके उस भाषण का ज़िक्र ही न करें। बिशप भी अगर सिर्फ़ यह कह दें कि उनकी नीयत सारे मुसलमान समुदाय पर हमला करने की न थी तो बात यहीं ख़त्म कर देनी चाहिए।

साइरो मलंकारा कैथोलिक चर्च के मेजर आर्चबिशप कार्डिनल क्लीमिस ने कहा कि यह ऐसा वक़्त है कि हम सबको ईसाइयों, हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच के रिश्ते में काफ़ी ध्यान, मोहब्बत और एक दूसरे के प्रति ख़याल रखने की ज़रूरत है। उन्होंने कहा कि हमने लंबे वक़्त तक सद्भाव बनाए रखने में सफलता प्राप्त की है। लेकिन इधर समुदायों के बीच के रिश्तों में दरारें पड़ रही हैं। यह कठोर सच है कि बिशप के बयान के बाद इन रिश्तों पर बुरा असर पड़ा है। इसका समाधान यही है कि हम आपसी समझदारी, सम्मान, सहयोग और प्रेम को बढ़ावा दें।

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आम तौर पर ऐसी स्थिति में आलोचना-प्रत्यालोचना, आरोप-प्रत्यारोप की भाषा हावी हो जाती है। विरोध प्रदर्शन किए जाते हैं। इससे जिसने ग़लती की है, वह और सुरक्षात्मक होकर आक्रामक हो उठता है। अगर बीच में ही हस्तक्षेप किया जाए जैसे अभी केरल के विपक्षी दलों ने किया है और आपसी मेल मिलाप और संवाद शुरू कर दिया जाए तो स्थिति सँभाली जा सकती है।

बिशप के बयान के बाद नाराज़ मुसलमानों ने विरोध जाहिर किया। फिर बिशप के समर्थन में प्रदर्शन हुआ। शासक दल ने अपनी भूमिका नहीं निभाई। लेकिन यह अच्छा है कि विपक्षी दलों ने, मसलन कांग्रेस पार्टी और इंडियन यूनियन मुसलिम लीग ने आगे बढ़कर सौहार्द कायम करने की कोशिश की। अभी भी वे कह रही हैं कि सरकार को अब पहल लेकर और सबको साथ बिठाना चाहिए। 

समय गँवाए बिना संवाद शुरू करने की ज़रूरत है। लाइती मूवमेंट नामक एक प्रभावशाली ईसाई समुदाय के प्रवक्ता शिजू अंथोनी ने ठीक ही कहा है कि अगर समुदाय आपस में बात न करें तो दिमाग़ी दूरियाँ बढ़ती जाती हैं। 

यह सब कुछ इस निराशाभरे समय में काफ़ी उत्साह भरता है। हमें इस सकारात्मक ऊर्जा की बहुत आवश्यकता है।

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