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फ़ाइल फ़ोटो

दिल्ली हिंसा की गोधरा जैसी व्याख्या कर बस्ता बंद तो नहीं कर देगी सरकार?

हमें जानना ही चाहिए कि उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंसा कैसे संगठित की गई। लेकिन उसके जानने के साधन अगर दूषित हों तो सत्य कैसे पता चले! मसलन क्या किसी को वाक़ई यह जानने में दिलचस्पी है कि 27 फ़रवरी, 2002 को गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के कोच नंबर 6 में आग कैसे लगी? यह हम आजतक क्यों नहीं जान पाए?
अपूर्वानंद

किस क़िस्म की हिंसा दिल्ली में हुई? इस पर बहस चल ही रही है। कुछ लोगों ने इसे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दंगा कहा जिसमें दोनों पक्षों ने हिंसा की। आख़िर इस हिंसा में हिंदू भी मारे गए हैं भले ही मारे जानेवाले मुसलमानों की तादाद उनके दोगुना से भी अधिक है। अख़बारों और ख़बरी वेबसाइटों ने मारे गए लोगों के नाम छापे हैं। यह भी दिखलाया गया है कि हिंदुओं के घरों और दुकानों को भी नुक़सान पहुँचा है। इनमें से कुछ के लिए सिर्फ़ दो नाम महत्त्वपूर्ण हैं। एक पुलिसकर्मी और दूसरा नाम भी सरकारी ख़ुफ़िया संस्था से जुड़ा हुआ। दोनों इत्तिफ़ाक़ से हिंदू हैं। इससे सामाजिक मनोविज्ञान की बारीक समझ रखनेवाले आशीष नंदी जैसे विद्वान भी इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि हिंसा दोतरफा थी।

हिंसा को एक हद तक ही दोतरफा कहा जा सकता है अगर हम यह न देखें कि यह कितनी असमान थी। जब किसी हिंसा को हम दोतरफा कहते हैं तो अक्सर इस पक्ष को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। हिंसा का प्रकार जानना हो तो राज्य का रवैया हिंसा के शिकार लोगों के प्रति क्या है, उसे समझना चाहिए। राज्य समुदायों के बीच हिंसा की स्थिति में निष्पक्ष होगा और उसकी दिलचस्पी हिंसा रोकने में होगी, यह सभी समाजों का रिवाज है। लेकिन भारत में बात उलट है। चाहे 1984 हो या 2002, या 2020, भारत की पुलिस हमेशा आक्रामक हिन्दुओं के साथ खड़ी दिखलाई पड़ी है। या तो वह सिखों और मुसलमानों पर हमला होते देखती रहती है या कई बार ख़ुद हमलावरों में शामिल हो जाती है।

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यह सब कुछ क्रूर और हिसाबी लगने लगता है लेकिन यह सामान्यीकरण और वह भी ग़लत सामान्यीकरण से बचने के लिए ज़रूरी है। मसलन यह जानना क्यों ज़रूरी है कि किसी मारे गए व्यक्ति को 400 बार चाकू नहीं मारा गया था, सिर्फ़ 12 बार चाकू के वार की पुष्टि है! फॉरेंसिक रिपोर्ट का यह तथ्य जब कुछ ने उजागर किया तो उनपर यह आरोप लगा कि वे चाकू के वार गिन रहे हैं। जो यह आरोप लगा रहे थे वे भूल गए कि वे ख़ुद जब इस संख्या को 400 बता रहे थे तो वे यह बताना चाहते थे कि इस संख्या से उस विशेष क्रूरता का पता चलता है जो हिन्दुओं के ख़िलाफ़ बरती गई।

जब हम हिंसाग्रस्त इलाक़ों में से एक खजूरी ख़ास में थे तो सड़क किनारे एक झाजी से मुलाक़ात हुई। वह बिहार से आकर इसी इलाक़े के बाशिंदे हो गए थे। “मानवीयता समाप्त हो गई”, उन्होंने सर हिलाते हुए कहा। निष्पक्ष भाव से उन्होंने बताया कि दोनों पक्षों का नुक़सान हुआ है। फिर उन्होंने सामने के नाले की ओर इशारा करते हुए कहा कि इसमें जाने कितनी लाशें फ़ेंक दी गईं। मैंने दोनों पक्षों के नुक़सान की बात को साफ़ करने के लिए कहा। उन्होंने स्पष्ट किया कि हिंदू लूट रहा था, मुसलमान काट रहा था। हिंदू और मुसलमान स्वभाव के बारे में हिंदुओं के भीतर जो पूर्वग्रह बसा हुआ है झाजी उसे ही अभिव्यक्त कर रहे थे। हिंदू हिंसक या क्रूर नहीं हो सकता, वह लूटपाट भर कर सकता है जबकि मुसलमान की दिलचस्पी लूटपाट में नहीं हत्या में होती है।

यही बात शिव विहार में एक हिंदू महिला ने बहुत विश्वास के साथ कही, “हमारे यहाँ तो प्याज लहसुन खाते नहीं, खोजने पर सब्जी काटने के चाकू के अलावा कुछ होता नहीं, जबकि उनके यहाँ पत्थर, तलवारें और पेट्रोल बम जमा रहते हैं।”

मुझे उनकी बात सुनते हुए 2015 में त्रिलोकपुरी में हिंसा के दौरान वहाँ हुई एक चर्चा याद आई। कुछ हिंदू बाहर टहल रहे थे। हमने उनसे जानना चाहा कि क्या हुआ था। उन्होंने बताया कि मुसलमान बच्चे भी पत्थर मार रहे थे। हमने जब इसपर आश्चर्य व्यक्त किया तो उन्होंने कहा कि वे तो अपने बच्चों को बचपन से ही यही ट्रेनिंग देते हैं। उनके घरों और मसजिदों में हथियार हमेशा जमा रहते हैं।

त्रिलोकपुरी में ही हमने यह भी नोट किया था कि हिंसा के बाद हिंदू तो सड़क पर दिखलाई पड़ सकते हैं लेकिन मुसलमान को यह छूट नहीं होती। वह सार्वजनिक जगह पर अपने जोखिम पर ही दिखलाई पड़ सकता है। हिंसा के बाद पुलिस की तैनाती और उसके दोनों समुदायों के प्रति बर्ताव से भी यह अंतर ज़ाहिर होता है।

हमने महाराष्ट्र और गुजरात की सीमा पर बसे धुले या धुलिया में 2013 में हुई हिंसा के बाद यही देखा था। मुसलमान बस्तियों को जैसे सीलबंद कर दिया गया था जबकि हिंदू इत्मीनान से आ-जा सकते थे। उस हिंसा की जाँच करते हुए भी हमने नोट किया था, “45 मुसलमानों को गोली लगी है जबकि सिर्फ़ एक हिंदू को गोली लगी है, 35 मुसलमानों के घर जलाए गए जबकि हिंदुओं की तरफ यह संख्या 4 की है।” 

2013 में महाराष्ट्र की पुलिस झूठ बोल रही थी, 2020 में यही दिल्ली पुलिस करती दीख रही है। तब धुले की पुलिस ने कहा था कि उसे इस वजह से गोली चलानी पड़ी कि उसपर रहस्यमय रासायनिक द्रव से हमला हो रहा था और उसके कई जवान इससे बुरी तरह ज़ख़्मी हो गए थे। हमने जब सिविल हस्पताल से जानकारी ली तो मालूम हुआ कि वहाँ 159 पुलिसकर्मी आए थे लेकिन उनमें से किसी को ऐसी चोट न थी कि उसे भर्ती करने की ज़रूरत भी पड़े। फिर पुलिस ने ग़लतबयानी क्यों की?

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सरकारी अस्पतालों में क्रूरता!

धुले में घायल मुसलमानों को सरकारी अस्पताल में इलाज कराने की जगह एक निजी अस्पताल में जाना सुरक्षित जान पड़ा। दिल्ली की इस हिंसा के दौरान और उसके बाद सरकारी अस्पताल में मुसलमानों के साथ बेरुखी और क्रूरता के अनुभव सुनने को मिले।

दिल्ली की हिंसा को दोतरफा कहकर हम इत्मीनान हासिल कर लेना चाहते हैं। दोनों आपस में लड़े, जिसकी संख्या अधिक थी वह भारी पड़ा! यह एक ऐसी व्याख्या है जो हिंसा का असली रूप देखने से हमें रोक देती है।

पहले से मौजूद पूर्वग्रह सच को देखना मुश्किल बना देते हैं। जो सामने हो रहा है, उसकी व्याख्या उन पूर्वग्रहों की भाषा में की जाती है। ये पूर्वग्रह झाजी या शिव विहार की उन महिला के मन में ही नहीं हैं, हममें से ज़्यादातर इनके शिकार हैं, इसलिए हम हिंसा के ब्योरे के बिना ही उसके बारे में अपनी राय कायम भी कर लेते हैं।

यह बात उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हर जगह बताई गई कि हमलावर बाहर से आए थे। हिंदुओं ने यह तो कहा कि हमले में पड़ोस का कोई नहीं था, सब बाहर के थे लेकिन उन्होंने अपने मुसलमान पड़ोसियों को हिंसा के आरोप से बरी नहीं किया।

जब एक तबाह कर दिए गए मकान को हम देख रहे थे तो जैसे उसपर हुए हमले का औचित्य बताते हुए पड़ोसी महिला ने कहा कि यहाँ से तलवार और पेट्रोल बम निकला है!

यही बात और जगहों पर भी सुनाई पड़ी। हिंदू पड़ोसी मान रहे थे कि हमलावर बाहर से आए लेकिन अगर “ये” पत्थर नहीं चलाते तो यह सब न होता!

लालबाग में एक हिंदू भाई ने कहा कि लोग बाहर से आकर नारे भर लगा रहे थे, “इन्हें” पत्थर चलाने की क्या ज़रूरत थी! मैंने जानना चाहा कि आख़िर बाहर से लोग लाठी, सरिया और बाक़ी हथियार लेकर नारे क्यों लगा रहे थे! वह अपनी बात पर अडिग रहे। उनका कहना था कि वे बेचारे सिर्फ़ नारे लगाते घूम रहे थे! उन्हें भड़का दिया गया। 

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उस इलाक़े में सिर्फ़ मुसलमानों के घरों और दुकानों को तबाह किया गया था। जिन्होंने हमें यह बताया, उन्होंने इस हमलावर भीड़ से अपने पड़ोसियों को बचाया भी था। इसलिए उनकी मानवीयता पर शक करने का कारण नहीं था। लेकिन बाहरी हिंसा की उनकी व्याख्या की कैसे व्याख्या की जाए?

हमें जानना ही चाहिए कि उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंसा कैसे संगठित की गई। लेकिन उसके जानने के साधन अगर दूषित हों तो सत्य कैसे पता चले! मसलन क्या किसी को वाक़ई यह जानने में दिलचस्पी है कि 27 फ़रवरी, 2002 को गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के कोच नंबर 6 में आग कैसे लगी? यह हम आजतक क्यों नहीं जान पाए? सिर्फ़ इसीलिए तो कि उस आग की बहुसंख्यकवादी व्याख्या से गुजरात में मुसलामानों के संहार का औचित्य साबित हो जाता है। ताज्जुब नहीं दिल्ली की हाल की हिंसा की ऐसी ही व्याख्या करके हम बस्ता बंद कर दें! संसद में सरकार यही कर रही है।

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