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यदि ज़िंदा होते तो किसके साथ खड़े होते गाँधी?

क्या 2 अक्टूबर गंदी आत्माओं का पर्व है? या उनका, जिनके हाथ भले तकली न हो, भले वे राम धुन न गा रहे हों, भले वे गाँधी का नामजाप भी न कर रहे हों, लेकिन जो हाँगकाँग में सरकार के ख़िलाफ़ अड़े हैं, जो अमेरिका में सरकार के आप्रवासियों पर हमले के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं, जो भारत में मुसलमानों पर हर हमले के ख़िलाफ़ उनके साथ खड़े हैं, जो कश्मीर की जनता की आज़ादी के हक़ में अपने ही देश का सामना कर रहे हैं?
अपूर्वानंद

2 अक्टूबर फिर आ धमका है। इस बार कुछ ख़ास है। इस बार के 2 अक्टूबर को 1869 के 2 अक्टूबर के 150 साल हो जाएँगे। किसी रहस्यमय तर्क से हम 25, 50, 60, 75, 100, 125, 150, 200 जैसी संख्याओं को अन्य संख्याओं के मुक़ाबले अधिक इज़्ज़त बख़्शते हैं। 100 रन बनाना एक उपलब्धि है, और 98 पर आउट हो जाने पर बैट्समैन को प्रशंसकों की सहानुभूति से ज़्यादा ग़ुस्सा झेलना पड़ता है। वह 100 जितना अपने लिए नहीं उतना उनके लिए हासिल करता है।

2 अक्टूबर की तारीख़ हिंदुस्तान के लिए विशेष मानी जाती है। यह महात्मा गाँधी का जन्मदिन जो है। औरों का भी है। जैसे लालबहादुर शास्त्री का। लेकिन दिन तो गाँधी के नाम ही रह गया। अपने जीवन में कभी शास्त्रीजी ने इसकी शिकायत की हो, इसका रिकॉर्ड नहीं है। जन्मदिन गाँधी के जीवन में ही सार्वजनिक रूप से मनाया जाने लगा था। गाँधी ने ज़ोर देकर रोका हो ऐसा करने से अपने चाहनेवालों को, इसका पता नहीं।

सोचकर देखें तो आख़िर जन्मदिन में क्या ख़ास बात है! क्योंकि जिसका वह है, उसका कोई योगदान इसमें है नहीं। यह एक संयोग है। जन्म के बाद वह ख़ुद अपने साथ जो करता है, उसकी याद के लिए क्या उसका जन्मदिन ही याद किया जाना चाहिए?

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

या वह दिन याद किया जाए जब उसने कोई ख़ास फ़ैसला किया हो जिस वजह से वह हमारी तरह के मामूलीपन से निकल आया हो। गाँधी की ज़िंदगी में ऐसे दिनों की कमी नहीं। अगर उन दिनों को याद करने लगें तो शायद पूरा कैलेंडर गाँधी के नाम कर देना पड़े। वह दिन जब किशोर गाँधी ने लंदन जाने की ठानी। वह दिन जब ट्रेन के पहले दर्जे के डब्बे से उन्हें धकेल दिया गया और रात उन्होंने देश से दूर दक्षिण अफ़्रीका के एक रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर उस अपमान के मायने खोजते हुए गुज़ारी और उसे व्यक्तिगत से सार्वजनिक में बदलने का निर्णय लिया। वह दिन जब उन्होंने गीता इंग्लैंड में अपने विदेशी मित्रों के सुझाव पर पढ़ी। जब बाइबल पढ़ी और माउंट अव सरमन को अपने दिल के उतना ही क़रीब पाया जितना गीता को। जिस दिन उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका में हिंदुस्तानी जनता के साथ अपमान का विरोध करने का निर्णय लिया। जब यह तय किया कि उनके घर में हर कोई, किसी भी राष्ट्रीयता का, किसी भी धर्म का, किसी जात का, बराबरी के साथ रहेगा। जब यह तय किया कि वह उन सबका मैला भी ख़ुद साफ़ करेंगे। जिस दिन अपनी पत्नी से इसी मुद्दे पर उनकी झड़प हुई। जब उन्हें अपना घर छोड़कर आश्रम का सामूहिक जीवन जीना तय किया। जिस दिन दक्षिण अफ़्रीका में अपना पहला अहिंसक प्रतिरोध शुरू किया। जिस दिन अपने प्रतिपक्षी के लिए जेल में चप्पल बनाई। जिस रोज़ अपने विरोधी से समझौता किया और उसके चलते एक मुसलमान मित्र का जानलेवा हमला झेला। जिस दिन हिंद स्वराज किताब पूरी की। जब तोलस्टोय से ख़तोकिताबत शुरू की। जब थोरो को पढ़ा या रस्किन को। जिस दिन अन टु द लास्ट के लिए सर्वोदय शब्द खोजा। जिस दिन सत्याग्रह शब्द का आविष्कार किया। जिस दिन सत्य ही ईश्वर है की जगह ईश्वर ही सत्य है, कहना तय किया। जिस दिन सर मुँड़ाकर धोती पहनने का फ़ैसला किया। जब पश्चिमी पोशाक त्यागकर एक आम हिंदुस्तानी का पहनावा लिया। जब लंगोटनुमा धोती को ही अपना पूरा पहरावा तय पाया। जब खादी का प्रण लिया, या जिस दिन चरखे को जीवन चक्र की धुरी बना लिया। जिस दिन कोचरब आश्रम में एक ‘अस्पृश्य’ को सदस्य बनाकर बाक़ी आश्रमवासियों और समाज को अपना दुश्मन बनाया। जब अहमदाबाद में मिल मालिकों की ज़्यादती के ख़िलाफ़ अनशन किया। जिस दिन हरिजन मंदिर प्रवेश अभियान पर निकले। जब ख़िलाफ़त आंदोलन को अपना बनाया। जिस दिन शांतिनिकेतन गए। जब टैगोर से उनकी भेंट हुई, या गोखले से, या नेहरू से, या मीरा बेन से, या रोमां रोला से या ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान से, या सरोजिनी नायडू से या चार्ली ऐंड्रूज़ से, या ऐनी मेरी पीटरसन से, या राजकुमारी अमृत कौर से या सरला देवी से। महादेव देसाई जिस दिन उन्हें मिले! जिस दिन वे वर्धा पहुँचे अपना अगला आश्रम बनाने को। जिस दिन देवघर पंडों ने मंदिर अशुद्ध करने के उनके पाप के लिए उनपर हमला किया। जब उन्हें शिक्षा का नया कार्यक्रम सूझा।

उस दिन को क्यों भूल जाएँ जिस दिन देश से दूर और अपनी कर्मभूमि अफ़्रीका से दूर लंदन में उनका शास्त्रार्थ एक दूसरे भारतीय विनायक दामोदर सावरकर से हुआ। वह मुठभेड़ न होती तो न हिंद स्वराज किताब लिखी जाती और न गाँधी की मौत उस तरह होती जैसी इस भेंट के कोई 40 साल बाद हुई। सावरकर के शिष्य ने उस शास्त्रार्थ का अंत गाँधी के सीने में तीन गोलियाँ दागकर किया।

ऐसे गिनें तो फिर अंत नहीं। यह कम होता है कि किसी शख़्स की ज़िंदगी का ख़ास दिन उसके समाज के लिए उससे कहीं ज़्यादा ख़ास साबित हो। गाँधी का ऐसा एक एक दिन सिर्फ़ भारत के लिए ही नहीं, कई मायनों में पूरी दुनिया के लिए ख़ास साबित हुआ है।

गाँधी के चाहनेवाले अपनी सुविधा के हिसाब से 2 अक्टूबर को राम धुन गाकर छुट्टी पाते हैं, उस आदमी से जिसके उन दिनों का अगर हिसाब वे रखने लगें तो साल निकल जाएगा, अपना कोई काम हो नहीं पाएगा। हर रोज़ वह शख़्स कुछ याद दिलाता रहेगा।

इस लंबी, प्रायः अंतहीन सूची के साथ उन सारे लोगों के नाम अगर जोड़ने लगें जो गाँधी के जीवन में एक एक कर जुड़ते गए तो साँस फूल जाएगी। लेकिन बिना उसके यह समझ पाना बहुत मुश्किल होगा कि गाँधी ने जैसे ख़ुद को एक एक दिन, एक एक मिनट गढ़ा, वैसे ही उनके इन सारे दोस्तों ने गाँधी को वह बनाया जो वह हैं। यह कहना ग़लत होगा कि दक्षिण अफ़्रीका के अपने मुसलमान व्यवसायी मित्र, ग्राहम पोलक, चार्ली या मीरा बेन या सरोजिनी नायडू या मोतीलाल नेहरू या गोखले के बिना गाँधी वही हो पाते जो वह हुए। गाँधी की ज़िंदगी का इतिहास इसलिए कई ज़िंदगियों का इतिहास है। ऐसे लोग भी गाँधी के कितने हुए जिन्होंने अपने एक एक पल को गाँधी के नाम कर दिया। गाँधी के जीवन को ठीक-ठीक समझना हो तो इन सबको भी समझना होगा। गाँधी इस तरह गाँधी से बड़े हैं और उनका विस्तार उनके अपने भौतिक जीवन से कहीं व्यापक है।

मारने के बाद और ज़िंदा हो गये गाँधी

गाँधी लोगों को विस्मित करते हैं, सम्मोहित करते हैं, उलझन में डालते हैं, विरक्त भी करते हैं। कुछ लोगों को गाँधी का जीवन अपने जीवन को चुनौती देता मालूम पड़ता है। ऐसे लोगों में गाँधी को लेकर एक गहरी घृणा और हिंसा है। वह घृणा और हिंसा उनकी जान लेने के बाद भी ज़िंदा है। और अब उसने चतुराई भी सीख ली है। यह तो उसने देख लिया कि गाँधी को मार डालने के बाद वह और ज़िंदा हो गया। यह भी कि वह हिंदुस्तान की सरहद से निकल कर पूरी दुनिया में फैल गया। तो अगर किसी सूरत में उसे इस मुल्क से निकाल भी दिया जाए तो वह ज़िंदा आ जाता है। दक्षिण अफ़्रीका में, अमेरिका में, पोलैंड में, विश्व के शांति आंदोलनों में और हर नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ और हर ताक़त के ख़िलाफ़ सिर्फ़ इंसानी रूह की ताक़त के सहारे अपनी ख़ुदी को हासिल करने वाले लोगों में। उसकी स्मृति को किसी राज्यसत्ता के संरक्षण की ज़रूरत नहीं। सत्ताओं को ज़रूर गाँधी की ज़रूरत है।

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इसीलिए इस्मत चुगताई की ज़ुबान उधार लेकर कहें, आज दो अक्टूबर है। बापू का जन्मदिन। आज गंदी और घिनौना आत्माएँ शुद्ध हो रही हैं। वे आत्माएँ राम धुन गा रही हैं, तकली नचा रही हैं। लेकिन उनका सूत टूट रहा है। उनका ध्यान कहीं और है। वे किसी और फ़िक्र में लगी हैं जिससे दूसरों को ग़ाफ़िल रखना चाहती हैं। गाँधी का स्वाँग भरा जाता रहा है। बच्चों को आधा बदन नंगाकर, उनकी नाक पर बेज़रूरत चश्मा डाल, उनके हाथों में एक लाठी थमाकर गाँधी की झाँकी निकाली जा रही है।

कुछ आत्माएँ 150 किलोमीटर की यात्रा पर निकल पड़ी हैं। सबका ख़याल है, इस तरह गाँधी की विरासत पर क़ब्ज़ा कर लिया जाएगा। इस ख़याल भर से उनकी लार टपक रही है।

क्या 2 अक्टूबर इन गंदी आत्माओं का पर्व है? या उनका, जिनके हाथ भले तकली न हो, भले वे राम धुन न गा रहे हों, भले वे गाँधी का नामजाप भी न कर रहे हों, लेकिन जो हाँगकाँग में सरकार के ख़िलाफ़ अड़े हैं, जो अमेरिका में सरकार के आप्रवासियों पर हमले के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं, जो भारत में मुसलमानों पर हर हमले के ख़िलाफ़ उनके साथ खड़े हैं, जो कश्मीर की जनता की आज़ादी के हक़ में अपने ही देश का सामना कर रहे हैं?

क्या इसमें कोई शक है कि किसी ईश्वरीय चमत्कार से 150 की पारी पार कर गया गाँधी किसके साथ खड़ा होता? किन्हें वह वैष्णव जन कहता, किन्हें हरि के जन?

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