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उमर अब्दुल्ला नाराज़ हैं, भारत के विपक्ष से, संसद से और अपने आप से…

उमर हों या महबूबा मुफ़्ती, उन्हें अकेले में ख़ुद से पूछना होगा कि उन्होंने उस राजनीति को कितना बल दिया जिसने उन्हें निगल लिया। जब उन्होंने पहली बार भारतीय जनता पार्टी से समझौता किया और इस तरह उसे राजनीतिक रूप से स्वीकार्य और सह्य बनाने में अपना स्वर मिलाया तब क्या उन्हें कभी यह ख्याल आया कि इसका आशय न सिर्फ़ भारत के अल्पसंख्यक समुदाय के लिए क्या होगा बल्कि यह भारत की शक्ल को ही किस तरह बदल देगा।
अपूर्वानंद

उमर अब्दुल्ला नाराज़ हैं। भारत के विपक्ष से, संसद से और अपने आप से। अपने साथ किए गए धोखे से वह नाराज़ हैं। वह क्षुब्ध हैं कि भारत के प्रधान मंत्री से पिछले साल जब उनकी आख़िरी मुलाक़ात हुई थी तो उन्होंने ऐसा कोई इशारा नहीं किया था कि कुछ ही दिनों में जम्मू और कश्मीर की रही-सही स्वायत्तता का अपहरण कर लिया जाएगा और उसके दो टुकड़े कर दिए जाएँगे। उससे स्वतंत्र राज्य का दर्जा छीनकर केंद्रशासित प्रदेश के रूप में उसकी पदावनति कर दी गई, इससे वह अपमानित महसूस कर रहे हैं। गृह मंत्री ने कश्मीर के बारे में संसद में मिथ्या भाषण दिया, इसलिए वह ख़फ़ा हैं। वह मिथ्याचरण जारी है। 

अभी हाल में कांग्रेस नेता सैफ़ुद्दीन सोज़ ने सर्वोच्च न्यायालय में जब अपने ऊपर लगी पाबंदी को चुनौती दी तो सरकार ने कह दिया कि उसने उन पर कोई रोक नहीं लगाई है। इतना सुनना था कि अदालत ने तुरत-फ़ुरत उनकी याचिका को किनारे कर दिया। फिर सबने देखा कि 83 साल के सोज़ साहब को किस तरह बाड़ेबंदी में रखा गया है और वह बाहर एक क़दम नहीं रख सकते।

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

उमर अब्दुल्ला की भारतीय जनतांत्रिक संस्थाओं से निराशा बिल्कुल जायज़ है। हम यह भी जानते हैं कि वह यह संभवतः क्षणिक क्रोध और क्षोभ में ही कह रहे हैं कि संसद में जिस विपक्ष ने कश्मीर के अपमान पर मुँह बंद रखा अगर उसकी आज़ादी पर हमला होता है तो वह भी होंठ सिल लेंगे। उनसे किसी क़िस्म की एकजुटता की उम्मीद यह विपक्ष न करे!

इसमें क्या शक कि यह सब सिर्फ़ कश्मीर की जनता को अपमानित करने के लिए किया गया था। उसे सबक़ सिखलाने के लिए। स्वायत्तता के विचार पर ज़िद बाँधने के लिए उसे ताड़ित करने के लिए। दुनिया को दिखला देने के लिए कि भारत को एक रंग में रंगने के रास्ते में जो भी आएगा उसे कुचल दिया जाएगा।

कश्मीर के साथ किए गए बर्ताव ने भारत का सर दुनिया में नीचा किया है। उसका नैतिक क़द घटा है। मुमकिन है कि एक हिस्से को लगे कि उसने इस्राइल की तरह की नैतिक ढिठाई आख़िर हासिल कर ली है, भला दिखने की बाध्यता से ख़ुद को मुक्त कर लिया है। लेकिन यह भारत के इंसाफ़पसंद लोगों की आत्मा पर बोझ है। वे कश्मीरियों के आगे सर उठाकर बात नहीं कर सकते।

उमर अब्दुल्ला के बयानों और साक्षात्कार में लेकिन आत्मावलोकन नहीं के बराबर है। वह ख़ुद से यह प्रश्न नहीं करते कि यह सब कुछ जो हुआ, उसमें कहीं उनकी, उनके दल की कोई भूमिका है या नहीं। अब उनके लोगों के बीच उनकी आवाज़ की कोई क़ीमत न रही, इसके लिए ख़ुद वह कितने ज़िम्मेवार हैं।

उमर हों या महबूबा मुफ़्ती, उन्हें अकेले में ख़ुद से पूछना होगा कि उन्होंने उस राजनीति को कितना बल दिया जिसने उन्हें निगल लिया। जब उन्होंने पहली बार भारतीय जनता पार्टी से समझौता किया और इस तरह उसे राजनीतिक रूप से स्वीकार्य और सह्य बनाने में अपना स्वर मिलाया तब क्या उन्हें कभी यह ख्याल आया कि इसका आशय न सिर्फ़ भारत के अल्पसंख्यक समुदाय के लिए क्या होगा बल्कि यह भारत की शक्ल को ही किस तरह बदल देगा।

यह आश्चर्यजनक नहीं है इसीलिए स्वीकार्य भी हो, यह ज़रूरी नहीं कि उमर या महबूबा मुफ़्ती अपने जम्मू और कश्मीर के लिए ही ख़ुद को ज़िम्मेदार मानते हैं और अगर उन्हें ऐसा लगता है कि एक बहुसंख्यकवादी दल से समझौता करने से उनके राज्य को लाभ होगा तो वे यह करेंगे। उमर और महबूबा के दल ने यह तर्क भी दिया कि भारत की जनता के बहुमत ने जिसे चुना, उसके साथ जाकर वे उसका सम्मान कर रहे थे।

उमर और बीजेपी

यह सच है कि 2014 में उमर अब्दुल्ला ने ऐलानिया कहा कि वह नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी के साथ गठजोड़ नहीं करेंगे। कारण 2002 के गुजरात के जनसंहार में मोदी की ज़िम्मेदारी को बताया गया। लेकिन उस वक़्त वह भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाली सरकार में मंत्री थे। उनका कहना है कि इस जनसंहार को लेकर अपना विरोध जतलाने के लिए उन्होंने अपना इस्तीफ़ा अटल बिहारी वाजपेयी को भेज दिया था। लेकिन उनकी समझ थी कि जनसंहार में वाजपेयी की कोई भूमिका न थी, इसलिए अपने इस्तीफ़े पर उन्होंने ज़ोर नहीं दिया। वह कहते हैं कि शायद यह उनकी मूर्खता थी।

अटल बिहारी वाजपेयी को कई लोग अभी भी भारत के लिए अनिवार्य मानते हैं। उनकी बुद्धि पर रोया भी नहीं जाता! उनकी भागीदारी भले न रही हो, वाजेपयी ने आख़िर में यही सवाल पूछा था, ‘आख़िर पहले किसने आग लगाई?’ इस तरह उन्होंने क्रिया-प्रतिक्रिया के सिद्धांत को बल दिया और जो कुछ गुजरात में हुआ उसे उचित नहीं तो स्वाभाविक बना दिया। इसके बाद भी सुशिक्षित उमर सरकार में बने रहे!

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यह सवाल इस वक़्त क्यों पूछा जाना चाहिए और अपनी आत्मा टटोलने की ज़रूरत क्यों सिर्फ़ उमर अब्दुल्ला को ही नहीं, सबको है? वह चाहे कश्मीर हो या नगालैंड, यह तर्क नहीं चल सकता कि हमारी सीमा हमारे क्षेत्रीय हित तय करते हैं। अभी हाल में जब एक कश्मीरी नेता से बीजेपी से उनके समझौते के बारे में पूछा गया तो उन्होंने जवाब दिया कि यह एक ‘हिंदू भारत’ के साथ सहअस्तित्व का रास्ता तलाशने का प्रयास था। यही तर्क महबूबा मुफ़्ती ने दिया था कि चूँकि जम्मू ने प्रधानतः बीजेपी को बहुमत दिया, उससे समझौता करके वह घाटी और मैदान के बीच रिश्ता प्रगाढ़ कर रही थीं। लेकिन यह सब कुछ जब क्षेत्रीय हितों की रक्षा के नाम पर और राजनीतिक यथार्थवाद के नाम पर किया गया तो जनतांत्रिक राजनीतिक विचार की जड़ को कमज़ोर ही किया गया।

महबूबा हों या उमर, उन्होंने भारतीय अल्पसंख्यक या धर्मनिरपेक्ष चिंता से ख़ुद को अलग कर लिया। चूँकि आप कमज़ोर हैं, इस घड़ी आपके साथ रहने से मेरा क्या लाभ? बीजेपी के बहुमत का यह मतलब न था कि वह सारे हिंदुओं की राय की प्रतिनिधि बन गई है।

उससे समझौते को हिंदू-मुसलमान एकता के नाम पर जायज़ ठहराना उन हिंदुओं को अपमानित करना है जिन्होंने बीजेपी का इस समय भी विरोध जारी रखा है। और वह इस आशंका से नहीं कि अंततः उनको भी इस राजनीति से हानि होगी बल्कि उसके बहुसंख्यकवाद के कारण ही वे उसके ख़िलाफ़ हैं।

तुलना ग़लत होगी लेकिन गई सदी में जब सोवियत यूनियन को कमज़ोर करने में हिटलर की उपयोगिता को शेष ‘जनतांत्रिक’ विश्व ने स्वीकार किया और जब सोवियत संघ ने हिटलर के साथ समझौता किया तब उनके दिमाग़ में जर्मनी या यूरोप के यहूदियों के बारे में क्या चल रहा था? उनके अपने राष्ट्रीय हित थे लेकिन यहूदी तो राष्ट्रविहीन थे!

संभव है उमर और महबूबा को इस वक़्त ये सवाल अप्रासंगिक लगें और इनसे उन्हें झुँझलाहट हो लेकिन अपनी सबसे बड़ी हार के क्षण को अपनी सबसे हिम्मत का मौक़ा भी बनाया जा सकता है। राजनीति में कुछ बुनियादी उसूलों की वापसी की शुरुआत की जा सकती है। वरना रणनीति और नीति का भेद जनबोध से भी लुप्त हो जाएगा।

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