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ज़बान संभालना काफ़ी नहीं, हिंसा के प्रति नज़रिया बदले कांग्रेस

राहुल गाँधी ने बिना हिचकिचाहट के निर्द्वंद्व होकर सैम पित्रोदा के 1984 की सिख विरोधी हिंसा पर दिए गए बयान की सख़्त आलोचना की। राहुल का यह बयान अपने दल के एक सदस्य की असंवेदनशील लापरवाही की ज़िम्मेदारी लेने के लिहाज़ से आज के माहौल और दूसरे राजनीतिक दल के रवैए के संदर्भ में साहसिक कहा जा रहा है। इससे हमारे वक़्त की मानवीयता की दयनीय अवस्था का ही पता चलता है।
अपूर्वानंद

राहुल गाँधी की इसलिए तो प्रशंसा की ही जानी चाहिए कि उन्होंने बिना हिचकिचाहट के निर्द्वंद्व होकर सैम पित्रोदा के 1984 की सिख विरोधी हिंसा पर दिए गए बयान की सख़्त आलोचना की। उसे बकवास, (नॉन सेंस), अस्वीकार्य बताया और सैम से तुरंत अपने बयान के लिए माफ़ी माँगने को कहा। उन्होंने कहा कि उनकी माँ और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 1984 के लिए देश से माफ़ी माँगी है। वह मानते हैं कि उस हिंसा में शामिल और उसके लिए ज़िम्मेवार हर व्यक्ति को सज़ा होनी चाहिए। तुलनात्मकता के इस युग में कांग्रेस के प्रधान की इस प्रतिक्रिया और उसकी मुख्य विरोधी भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेताओं की ऐसे प्रसंगों में राय या प्रतिक्रिया की तुलना की ही जानी चाहिए। राहुल कम से कम मानवीय दीखते हैं और इसके लिए प्रयास भी करते हैं। भारतीय जनता पार्टी का हर बड़ा नेता घृणा और अमानवीयता की दौड़ में एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है। भारतीयों का इन दोनों में से एक का चुनाव ख़ुद मानवीयता की आवश्यकता में उनके यक़ीन का सबूत होगा।

हम राहुल की सैम को फटकार से आगे जाएँ। यह न भूलते हुए कि सैम उनके पिता के मित्र रहे, फिर भी राहुल ने अपनी बात में इसका लिहाज़ न किया। ज़ाहिर है, रिश्तों और विचार में भी चुनाव से आपके चरित्र का भी पता चलता है।

राहुल गाँधी ने 1984 की हिंसा को ट्रेजेडी कहा। ट्रेजेडी वह थी लेकिन उसके लिए अंग्रेज़ी में अधिक उपयुक्त शब्द होता, अट्रोसिटी। या पोग्रोम। ट्रेजेडी में हिंसा की वह सक्रियता नहीं है जिसके बिना 1984 का देशव्यापी सिख संहार संभव न था। उस हिंसा के लिए जो इंसानी ज़िम्मेदारी है, वह ट्रेजेडी शब्द में पीछे चली जाती है।

हम यह भी उम्मीद करेंगे कि राहुल में इतना नैतिक और मानवीय साहस आएगा कि वह अपने पिता के उस बयान से भी ख़ुद को अलग करेंगे कि बड़ा पेड़ गिरे तो धरती हिलती है। यह बयान दोनों लिहाज़ से ग़लत और क्रूर था। बड़ा पेड़ ख़ुद ब ख़ुद नहीं गिरा था और धरती भी अपने आप, भूकंप के कारण नहीं काँपी थी। यह राजीव गाँधी की कमज़ोर हिंदी का नतीजा न था, ऐसी हिंसा के प्रति एक तरह की लापरवाही का ही परिणाम था।

1984 की हिंसा के लिए इस तरह के मूल्य निरपेक्ष शब्दों का इस्तेमाल हो ही नहीं सकता। हम इस तरह की हिंसा को प्राकृतिक आपदा की तरह देखना चाहते हैं। ताज्जुब नहीं कि गुजरात, जो अनेक बार मुसलमान विरोधी हिंसा देख चुका है, इसे तूफ़ान कहता है।

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क़ुदरत की नाइंसाफ़ी!

उपेंद्र बक्षी ने रामजस कॉलेज में कुछ बरस पहले जियोग्राफ़ी ऑफ़ इंजस्टिस शीर्षक पर एक व्याख्यान दिया था। उसमें उन्होंने कहा कि तूफ़ान, भूकंप भी एक तरह का अन्याय कहा जा सकता है। अगर हम किसी परामानवीय सत्ता को मानते हैं तो यह उसका अन्याय है। गाँधी जैसे व्यक्ति इस तरह की घटना या दुर्घटना को एक दैवीय निर्णय मानते थे। 1934 के विनाशकारी भूकंप को उन्होंने जातिगत भेदभाव के चलते ईश्वरीय प्रकोप माना था। टैगोर, नेहरू और प्रेमचंद ने इसे गाँधी की वैज्ञानिकता कहकर इसकी आलोचना की थी। अभी उस पर बहस नहीं। प्रोफ़ेसर बक्षी ने तूफ़ान, बाढ़ को प्राकृतिक अन्याय या आपदा कहते हुए पूछा कि क्या इन्हें अन्याय की श्रेणी में रखा जाता सकता है! अगर हाँ, तो किसके ख़िलाफ़, किसका और किस कारण! दूसरी बात उन्होंने कही कि अगर इसे क़ुदरत की नाइंसाफ़ी मान भी लें तो यह कहना पड़ेगा कि उसने सभी इंसानों को बराबरी की निगाह से ही देखा है। तूफ़ान के भौगोलिक क्षेत्र में रहनेवाले सभी, धर्म, जाति, जेंडर से निरपेक्ष उस नाइंसाफ़ी के शिकार हुए हैं। उसमें हम प्रकृति का कोई फ़ैसला भी नहीं खोज सकते। इसलिए इन्हें प्राकृतिक आपदा कहते हैं। त्रासदी इनमें भी है। नाइंसाफ़ी जैसी अवधारणाओं का प्रयोग हम इस प्रसंग में नहीं कर सकते।

नाइंसाफ़ी में एक फ़ैसला होता है। लेनिन के निर्णय के कारण 1917 में सोवियत संघ में अकाल पड़ा इसलिए उसे ठीक ही लेनिन का अकाल कहते हैं। उसी तरह हिटलर के निर्णय के कारण लाखों यहूदी मारे गए। मारे गए में फिर भी निष्क्रियता है, मार डाले गए, यही कहा जाना चाहिए। प्रोफ़ेसर बक्षी के अनुसार हमेशा यह देखा जाना चाहिए कि इस तरह के अन्याय में भेदभाव कहाँ है।

हिटलर क्रूर था लेकिन साथ ही यह कहा जाना चाहिए कि उसकी क्रूरता का शिकार सभी जर्मन नहीं हुए। यहूदी, समलैंगिक, कम्यूनिस्ट ही उसके निशाने पर थे। माओ की क्रूरता भी सारे चीनियों के लिए नहीं जैसे अभी के चीन में हिंसा ख़ासकर उइगुर मुसलमानों के ख़िलाफ़ है। बिना यह कहे, हम नाइंसाफ़ी भर कहकर उसे समझ के बाहर कर देते हैं या अगर उस तरह का अन्याय कैसे रोका जाए, इसपर विचार करने की आवश्यकता भी महसूस नहीं करते।

प्रायः हम यह भी कहकर छुटकारा पाना चाहते हैं कि 1984 जैसी हिंसा आमतौर पर एक शांतिकामी और शांतिधर्मी समाज में एक विचलन मात्र है। लेकिन क्या 1984 की हिंसा विचलन मात्र थी?

अगर आप सिर्फ़ दिल्ली की बात पर विचार करें तो क़रीब 4000 सिखों का क़त्ल किया गया। एक इंसान का क़त्ल करना इतना आसान नहीं। उसे मारने में कई लोग लगते हैं। थोड़ी देर तक उसमें लगे रहना पड़ता है, आसानी से न मरते इंसान को मार डालने का संकल्प जुटाना पड़ता है। यह सब फ़ैसलों की कड़ियाँ हैं। आप किसी एक जगह कुछ और भी निर्णय कर सकते हैं। जुनून में भीड़ में शामिल हो जाना समझ में आता है, हालाँकि उस समय भी सारे लोग उसमें न शामिल हुए, इसपर भी सोचना चाहिए। क्या हिंसक भीड़ में नहीं शामिल होना कोई निर्णय नहीं? दो निर्णयों में से एक का चुनाव आपके राजनीतिक और नैतिक रुझान का भी परिचय देता है।

जो ख़ुद को राजनीतिक कहते हैं, उनसे इसके आगे भी कुछ फ़ैसलों की उम्मीद की जाती है। यह हो सकता है कि हिंसा का फ़ैसला आपने न किया हो, लेकिन क्या उस हिंसा को रोकने, भीड़ को पीछे ढकेलने के लिए आप आगे आए? या, आपने एक दल के तौर पर अपने सदस्यों को क्या संदेश दिया?

जो मानते हैं कि क्रोध या प्रतिशोध के कारण इस तरह की हिंसा स्वतःस्फूर्त होती है, वे लिए गए और न लिए गए फ़ैसलों के रिश्तों पर विचार नहीं करते। हिंसा इन दोनों में से एक निर्णय के कारण ही होती है।

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1984 की हिंसा और कांग्रेस

1984 में कांग्रेस पार्टी ने हिंसा का फ़ैसला न किया हो, यह मान लें तो बाद का सवाल बाक़ी रह ही जाता है। क्या उसने फ़ौरन इस हिंसा के विरुद्ध अपने सदस्यों को सक्रिय होने को कहा? उसके भी बाद क्या वह हिंसा के शिकार लोगों को राहत पहुँचाने, उन्हें सांत्वना देने के लिए सक्रिय हुई? यह प्रश्न उन सारे दलों को करना चाहिए जो 1984 के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेवार ठहराकर कर्तव्य मुक्त हो जाते हैं। अगर 1984 के पटना की याद करूँ तो मुझे हिंसा के वक़्त भी उसे रोकने का प्रायः निष्फल प्रयास करते सिर्फ़ वामपंथी दलों के सदस्य याद हैं। दिल्ली में भी वे ही सक्रिय थे जो बाद में 1992, 2002 में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा के विरुद्ध सक्रिय थे। हिंसा के बाद राहत पहुँचाने के काम में भी यही वामपंथी और मानवाधिकार कार्यकर्ता शामिल थे।

साधारण लोग, जो राजनीतिक दलों के सदस्य नहीं थे, ऐसे समय में अपनी भूमिका पर सोचें। जैसा हमने पहले कहा, इस पर विचार करें कि 4000 सिखों की हत्या में क़रीब 10000 लोग लगे होंगे। उनमें से कई समाज में सम्माजनक ओहदों पर होंगे, घरों में माँ-बाप, दादा-नाना, चाचा-चाची के रूप में तो इज़्ज़तदार हैं ही। क्या यह सोचकर हमें सिहरन नहीं होती कि हम कितने हत्यारों के साथ इतमीनान के साथ ज़िंदगी बसर कर रहे हैं। उनमें कितने डॉक्टर, अध्यापक और अफ़सर होंगे! जनसंहार, हत्या और हिंसा के प्रति यह भयानक सामाजिक लापरवाही ख़ुद उस समाज के बारे में क्या कहती है?

1984 की हिंसा के बाद लोकसभा चुनाव में क्या कांग्रेस ने उसका कोई इस्तेमाल नहीं किया था? माफ़ी सिर्फ़ सिखों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा के लिए नहीं, उससे पैदा हुई हिंसक सामाजिक मानसिकता के संगठन के लिए भी माँगी जानी चाहिए।

1984 की याद हिंदुओं के लिए भी आत्म परीक्षण का अवसर है। मुसलमान विरोधी हिंसा के लिए उनके पास पाकिस्तान के गठन के अपराध के ज़िम्मेदारी के लिए उन्हें निरंतर दंडित करने का एक तर्क है। लेकिन जिन सिखों को वे अपने धर्म का पहरेदार मानते थे, उनपर पहला मौक़ा मिलते ही टूट पड़ने का क्या कारण था? क्या इस हिंसा का जबलपुर, जमशेदपुर, भागलपुर, नेल्ली की हिंसा से कोई संबंध नहीं?

लेकिन हम राहुल गाँधी के बयान पर लौट आएँ। यह बयान अपने दल के एक सदस्य की असंवेदनशील लापरवाही की ज़िम्मेदारी लेने के लिहाज़ से आज के माहौल और दूसरे राजनीतिक दल के रवैए के संदर्भ में साहसिक कहा जा रहा है। इससे हमारे वक़्त की मानवीयता की दयनीय अवस्था का ही पता चलता है।

कांग्रेस के प्रवक्ता ने ऐसे मामलों में ज़बान संभालने का मशविरा अपने साथियों को दिया है। सवाल सिर्फ़ ज़बान संभालने का नहीं, दिल और दिमाग़ संभालने का है। यह वक़्त है कि हिंसा के प्रति अपना नज़रिया स्थिर करने के लिए कांग्रेस आत्म मंथन करे और उनके आधार पर एक दस्तावेज़ जारी करे। बिना उसके आगे की राह नहीं खुलती।

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